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प्रश्न. अध्यक्षात्मक शासन से आप क्या समझते हैं ? इसके गुण तथा दोष बताइए।
उत्तर – अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है। इस शासन व्यवस्था में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी एक दूसरे से पृथक व स्वतन्त्र रहकर अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करते हैं । अध्यक्षीय शासन में कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित होती हैं, जिनका प्रयोग वह विधान के अन्तर्गत स्वतन्त्रतापूर्वक करता है । दूसरे शब्दों में,राष्ट्रपति व उसके मन्त्री न विधानमण्डल के सदस्य होते हैं और न उसके प्रति उत्तरदायी होते हैं । विधानमण्डल अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा उसे उसकी निर्धारित अवधि से पहले नहीं हटा सकता। इसी प्रकार कार्यपालिका भी विधानमण्डल या उसके किसी सदन को भंग नहीं कर सकती।
डॉ. गार्नर के अनुसार, “अध्यक्षात्मक सरकार वह होती है जिसमें कार्यपालिका अर्थात् राज्य का अध्यक्ष तथा उसके मन्त्री अपनी अवधि के बारे में संविधान की दृष्टि से विधानमण्डल से स्वतन्त्र होते हैं और अपनी राजनीतिक नीतियों के सम्बन्ध में भी उसके प्रति अनुत्तरदायी होते हैं।” __
गैटेल के शब्दों में,“अध्यक्षात्मक शासन वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका का प्रधान अपने कार्यकाल तथा बहुत कुछ सीमा तक अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिए व्यवस्थापिका से स्वतन्त्र होता है।” –
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के लक्षण
अमेरिका, ब्राजील तथा लैटिन अमेरिकी देशों में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली ही प्रचलित है।
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के गुण
1. स्थायी शासन- इसमें स्थायी सरकार रहती है क्योंकि कार्यपालिका का अध्यक्ष यानि राष्ट्रपति एक निश्चित कार्यकाल के लिए नि्वाचित किया जाता है व्यवस्थापिका उसे अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके हटा नहीं सकती। उसे हटाने का एकमात्र हथियार महाभियाग हाता है। और उस हथियार का प्रयोग कर पाना अत्यधिक कठिन होता है फलस्वरूप सरकार स्थायी रहती है और दीर्घकालीन योजनाओं को दृढ़ता से कार्यान्वित किया जाता है, क्योंकि उसे हटाय जाने का भय नहीं रहता। इससे जनता का शासन में विश्वास रहता है।
2. नीति की एकता- एक निश्चित समय तक कार्यपालिका को अपने पद पर बने रहने के कारण उस अवधि तक एक ही नीति चलती रहती है।
3. संकटकाल के लिए उचित सरकार- समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित होने के कारण वह अपनी इच्छानुसार प्रयोग करता है। वह स्वयं यह निर्धारित करता है कि संकट का सामना किस प्रकार किया जाय और अपने द्वारा लिये गये उस निर्णय को वह दृढ़तापूर्वक लागू करने में समर्थ होता है । व्यवस्थापिका भी ऐसे समय में अपनी बहुत सी शक्तियाँ उसे समर्पित कर देती है। फलस्वरूप संकट और युद्ध का सामना करने के लिए अध्यक्षात्मक सरकार सर्वश्रेष्ठ प्रणाली साबित हुई है।
4. राजनीतिक दल उग्र नहीं- इसमें राजनीतिक दलों का प्रभाव बहुत कम पड़ता है इसलिए एक बार निर्वाचन सम्पन्न हो जाने के बाद राजनीतिक दलों की उग्रता भी समाप्त हो जाती है क्योंकि निश्चित अवधि से पहले विरोधी दल राष्ट्रपति को उसके पद से हटा नहीं सकते।
5.बहुदलीय प्रणाली के लिये उपयुक्त-बहुदलीय प्रणाली में यह विशेष रूप से उपयोगी साबित होती है क्योंकि राष्ट्रपति को एक निश्चित अवधि से पहले हटाना लगभग असम्भव ही होता है जिसके कारण शासन में स्थायित्व बना रहता है।
6.शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित है- यह शक्तियों के पृथक्करण है सिदान्त पर आधारित होती है क्योंकि कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका एक दूसरे से स्वतंन्त्र होती हैं और दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं। दोनों अंग निरंकुश नहीं हो पाते क्योंकि वे एक-दूसरे को उनके कार्यक्षेत्र में ही सीमित रखकर नियंत्रित करते हैं जिससे नागरिकों की स्वतंत्रता को खतरा नहीं रहता।
7. योग्य व्यक्तियों का शासन- इसमें शासन योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों के हाथों में होता है क्योंकि राष्ट्रपति मन्त्रियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर करता है, दलगत आधार पर नहीं। मन्त्री ईमानदारी और निष्पक्ष भाव से अपने कार्यों को संपादित करते हैं क्योंकि वे किसी राजनीतिक दल की अधीनता में नहीं होते। अपने कार्यकाल के लिए वे व्यवस्थापिका पर निर्भर नहीं करते और उनका उत्तरदायित्व केवल राष्ट्रपति के प्रति होता है ।
8. शासन में कार्यकुशलता- इसमें शासन दक्षतापूर्ण संचालित किया जाता है क्योंकि मन्त्रीगण योग्यता के आधार पर नियुक्त होते हैं। उन्हें निर्वाचन लड़ने की चिन्ता नहीं होती और न ही उन्हें व्यवस्थापिका की बैठकों में भाग लेना होता है। फलस्वरूप वे अपना सारा समय और ध्यान कार्य पर ही केन्द्रित करते हैं। इसमें निर्णय शीघ्रता से लिये जाते हैं और दृढ़तापूर्वक लागू भी किये जाते हैं, जिसके फलस्वरूप शासन में कुशलता और दक्षता आ जाती है।
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के दोष
1. निरंकुशता का भय- समस्त कार्यशक्ति राष्ट्रपति में निहित होने के कारण इसमें उसके निरंकुश बन जाने का भय रहता है। एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित होने और उसके पूर्व हटाये न जाने की संभावना के कारण यह भय और बढ़ जाता है, क्योंकि जनता व्यवस्थापिका का उसके ऊपर कोई नियंत्रण नहीं रहता । उसे हटाने का एक मात्र शस्त्र महाभियोग है। इसका प्रयोग इतना कठिन होता है कि राष्ट्रपति उससे डरता नहीं और अपनी शक्तियों का स्वेच्छाचारी ढंग से प्रयोग करता है।
2. शासन को परिस्थितियों के अनुसार बदला न जा सकना- इसमें चूँकि शासन को परिवर्तित करना बहुत कठिन होता है इसलिए किसी विशेष परिस्थिति के उत्पन्न होने पर उसका सामना करना मुश्किल हो जाता है । राष्ट्रपति उचित ढंग से शासन को न चलाये तो भी उसे हटाना सम्भव नहीं होता।
3. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में गत्यावरोध- इसमें व्यवस्थापिका और कार्यपालिका एक-दूसरे से अलग होने के कारण यदि दोनों में दलीय एकता न हो तो प्राय: इनमें संघर्ष होना अनिवार्य हो जाता है, इनके बीच गत्यावरोध पैदा हो जाता है और कार्य समुचित ढंग से चलाना मुश्किल हो जाता है । व्यवस्थापिका के द्वारा बनाये गये कानूनों को कार्यपालिका ठीक प्रकार से लागू नहीं कर पाती जिससे कानूनों के उद्देश्यों को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। राष्ट्रपति को भी व्यवस्थापिका यथोचित सहयोग प्रदान नहीं करती।
4. अच्छे कानूनों का निर्माण नहीं होता- सरकार के दोनों अंगों में सहयोग न होने के कारण श्रेष्ठ कानूनों का निर्माण नहीं हो पाता। कार्यपालिका के सदस्य व्यवस्थापिका की बैठकों में न तो सम्मिलित ही हो सकते हैं और न ही विधेयक प्रस्तुत कर सकते हैं । फलस्वरूप कार्यपालिका को किस तरह के कानूनों की आवश्यकता है, इससे अनिभिज्ञ होने के कारण आवश्यकतानुसार कानूनों का निर्माण नहीं होता और व्यवस्थापिका में अच्छे कानून बनाने के लिए अपेक्षित कशलता भी नहीं होती।
5. उत्तरदायी सरकार की स्थापना असंभव- इसमें सरकार अनुत्तरदायी होती है औ मंत्रिमण्डल का उत्तरदायित्व व्यवस्थापिका के प्रति न होकर केवल राष्ट्रपति के प्रति होता है, व्यवस्थापिका का कार्यपालिका पर कोई नियंत्रण नहीं होता।
6. विदेशी सम्बन्धों में कमजोरी- इसमें राष्ट्रपति विदेशों से दृढ़तापूर्वक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता क्योंकि इसके लिए उसके पास पर्याप्त शक्तियाँ नहीं होतीं। प्राय: विदेशी मामके में बहुत सी शक्तियाँ व्यवस्थापिका के पास होती हैं। फलस्वरूप राष्ट्रपति बिना व्यवस्थापिका की स्वीकृति के न तो युद्ध कर सकता है और न शांति की उद्घोषणा कर सकता है और न ही सन्धि समझौता कर सकता है। इसके फलस्वरूप राष्ट्रपति पूर्ण विश्वा और दृढ़ता के साथ इन क्षेत्रों में कार्य करने में असमर्थ होता है।
7. शक्तियों का विभाजन असंभव- शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त पर यह व्यवस्था आधारित होती है। लेकिन शक्तियों का स्पष्ट विभाजन व्यवहार में न तो सम्भव ही होता है और न ही वांछनीय। यदि सरकार के तीनों अंगों को दृढ़तापूर्वक एक दूसरे से अलग कर दिया जाय तो वे क्षेत्राधिकार के लिए ही लड़ते-झगड़ते रह जायेंगे और रचनात्मक कार्य न करेंगे।
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अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के लक्षण
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