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अपराध की अवधारणा | अपराध की अवधारणा वैधानिक दृष्टि | अपराध की अवधारणा सामाजिक दृष्टि

अपराध की अवधारणा
अपराध की अवधारणा

अपराध की अवधारणा से आप क्या समझते हैं ? विवेचित कीजिए।

अपराध की धारणा हर समाज में प्राचीनकाल से ही मिलती है किन्तु अपराध की वैज्ञानिक अवधारणा का विकास हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं। पहले अपराध को एक व्यक्तिगत घटना माना जाता था तथा “एक बार का अपराधी सदा अपराधी” में व्यापक रूप से विश्वास किया जाता था। यही कारण है कि अपराधी को कठोर से कंठोर दण्ड देने का प्रचलन था । आधुनिक समय में अपराधी को एक रोगी माना जाता है, वह सहानुभूति का पात्र समझा जाता है। अतः दण्ड के स्थान पर आज सुधार पर अधिक जोर दिया जाता है।

अपराध की अवधारणा को दो दृष्टियों से स्पष्ट किया जाता है :

1. वैधानिक दृष्टि से,

2. सामाजिक दृष्टि से

अपराध की अवधारणा वैधानिक दृष्टि से बताइये। 

आधुनिक समय में अपराध की व्याख्या वैधानिक दृष्टि से ही करने पर बल दिया जाता है। अनेक अपराधियों व समाजशास्त्रियों ने अपराध को स्पष्ट करने के लिए इसी दृष्टिकोण का सहारा लिया। इलिएट तथा मैरिल ने अपराध को समझाते हुए लिखा है “आधुनिक सभ्य समाज में अपराध कानून द्वारा निषिद्ध वह कार्य है जिसके लिए मृत्यु, जुर्माना या जेल, वर्क हाउस व सुधार गृह में कैद का दण्ड दिया जा सकता है।” अपराध की यह कानूनी व्याख्या संक्षिप्त और स्पष्ट अवश्य है किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यदि किसी समाज में कानून नहीं है तो अपराध की धारणा भी नहीं होगी। सच तो यह है कि कानून के विकास या निर्माण के बहुत पहले से ही हर समाज में कुछ कार्यों को सामाजिक दृष्टि से अपराध माना जाता रहा है जो कार्य समाज विरोधी होते हैं। ऐसे कार्यों को सामाजिक दृष्टि से अपराध माना जाता है। सदरलैण्ड ने लिखा है कि अपराधी कानून के समाप्त होने से अपराधों के नाम व दण्ड अवश्य बदल जायेंगे किन्तु ऐसे कार्यों के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया तो अपरिवर्तित रहेगी।

अपराध की अवधारणा सामाजिक दृष्टि से बताइये।

सामाजिक दृष्टि से अपराध की व्याख्या करते हुए डा० हेकरवाल ने लिखा है, “सामाजिक दृष्टिकोण से अपराध या बाल अपराध का तात्पर्य व्यक्ति के ऐसे व्यवहार से है जो मानवीय संबंधों के क्रम को बाधा पहुंचाता है, जिन सम्बन्धों को समाज अपने अस्तित्व के लिए प्राथमिक दशा मानता है।”

इलियट तथा मैरिल ने सामाजिक दृष्टि से अपराध की व्याख्या करते हुए लिखा है: “अपराध समाज विरोधी व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे समूह अस्वीकार करता है और उसके लिए दण्ड निर्धारित करता है।” अपराध के इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अपराध में निम्नलिखित विशेषतायें होनी चाहिए :

1. बाह्य क्रिया अपराध ऐसी क्रिया या कार्य है जिससे बाहरी परिणाम या हानि हो। इसलिए मन में सोचा गया कार्य अपराध नहीं माना जाता । जैसे, मन में किसी की हत्या करना अपराध नहीं है।

2. अपराधी इरादा अपराध की दूसरी विशेषता अपराधी इरादा है। यह कसौटी निर्धारित करती है कि कोई कार्य अपराध माना जायेगा अथवा नहीं जैसे भूल से किसी का छाता उठा लेना अपराध नहीं है किन्तु चोरी करना अपराध है।

3. अपराध होने के लिए कार्य की हानि कानून द्वारा निषिद्ध होना चाहिए।

4. हानि के लिए दण्ड-व्यवस्था भी आवश्यक है।

अधिकांश लोग प्रथम दो विशेषताओं को अपराध निर्धारण में महत्वपूर्ण मानते हैं।

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shubham yadav

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