राजनीति विज्ञान (Political Science)

अराजकतावादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

अराजकतावादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
अराजकतावादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

अराजकतावादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना

अराजकतावाद यह मानकर चलता है कि मनुष्य स्वभावतः सद्गुण सम्पन्न है और यदि उसे कृत्रिम बन्धनों से मुक्त व्यवहार की स्वतन्त्रता प्राप्त हो, तो वह उस दशा से अच्छा जीवन व्यतीत करेगा, जैसा वह राजकीय बन्धनों के अन्तर्गत करता है। इसी आधार पर यह विचारधारा राज्य और कानून के उन्मूलन को प्रतिपादन करती है, किन्तु यदि अराजकतावाद की इस विचारधारा पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया आय, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि अराजकतावाद कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अराजकतावादी विचारधारा पर प्रमुख रूप से निम्नलिखित की जा सकती हैं-

(1) अराजकतावादी दर्शन अत्यधिक आदर्शवादी है- अराजकतावादी द्वारा सहयोग और समानता पर आधारित एक ऐसे राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की कल्पना की गयी है, जिसमें मानव जीवन पर कोई नियन्त्रण नहीं होगा, किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण के आधार पर कहा जा सकता है कि इस आदर्श समाज की स्थापना केवल स्वर्ग में ही सम्पन्न हो सकती है। यह समझना बहुत कठिन है कि मनुष्य अपनी स्वार्थपरता और बर्बरता को त्यागकर एकदम साधुव्रत कैसे धारण कर सकता है, पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा प्रतियोगिता एकदम किस प्रकार समाप्त हो सकती है और यह कैसे सम्भव हो सकता है कि अराजकतावादी समाज के विभिन्न समुदायों में पारस्परिक संघर्ष न हो। वास्तव में, अराजकतावादियों द्वारा तो पारियों की कहानी जैसे चमत्कार का वर्णन किया गया है जो व्यावहारिक जगत में बिल्कुल सम्भव नहीं है।

(2) मानव स्वभाव चित्रण एकांगी है- अराजकतावादी मानव को स्वाभाविक सहयोगी प्रवृत्ति से सम्पन्न एक दैवीय प्राणी मानते हैं, किन्तु अनुभव यह बताता है कि मनुष्य के स्वभाव का। केवल दैवीय पक्ष ही नहीं होता, वरन् दैवीय के साथ-साथ पाशविक और सार्वजनिक एवं निःस्वार्थी पक्ष के साथ-साथ एक स्वार्थी और व्यक्तिगत पक्ष भी होता है। प्रत्येक व्यक्ति में साधरणतया ये दोनों ही पक्ष पाए जाते हैं यद्यपि इनके अनुपात में अन्तर हो सकता है। अतः अराजकतावादियों की यह मान्यता कि मौलिक रूप से मनुष्य दैवीय ही होता है, त्रुटिपूर्ण है।

(3) मानव स्वभाव के दुर्गुण राज्य कार्यों के परिणाम नहीं है- अराजकतावादियों का यह विचार भी है कि मानव स्वभाव में जो दुर्गुण होते हैं, उनके लिए राज्य तथा उसके कानून उत्तरदायी हैं, पूर्णतः औचित्यपूर्ण नहीं है। कुछ व्यक्तियों के स्वभाव पर शासकों के अत्याचार का बुरा प्रभाव पड़ सकता है, किन्तु मनुष्यों के प्रत्येक दुर्गुण के कलए राज्य का उत्तरदायसी नहीं ठहराया जा सकता। व्यावहारिक अनुभव यह बतलाता है कि मानवीय चरित्र की निर्बलताओं के लिए राज्य तथा कानून से कहीं अधिक उत्तरदायित्व समाज, कुटुम्ब, शिक्षणालय, देश के रीति रिवाज, आदि का है। राज्य तथा उसके अधिकतर कानून अधिकांशतः मानव स्वभाव के दोषों के जनक न होकर, उनके सुधारक भी होते हैं।

(4) अराजकतावादी विचारधारा विरोधाभासों से युक्त हैं- अराजकतावादी विचारधारा में कई विरोधाभास है और उनकी मानव स्वभाव सम्बन्धी धारणा तो अनेक विरोधाभासों से पूर्ण है। इस विचारधारा के अनुसार सामान्य नागरिक के रूप में मानव अत्यधिक निःस्वार्थ, सहयोग, सहानुभुति, प्रेम और सेवा की भावना सम्पन्न होता है, किन्तु शासक के रूप में में यह मानव स्वार्थपूर्ण, दुराचारी एवं अत्याचारी हो जाता है। यह ठीक है कि शक्ति की लिप्सा मानव स्वभाव का भ्रष्ट कर देती है, परन्तु यदि मौलिक रूप से मानव एक दैवीय प्राणी है तो जनमत के बल, शिक्षा के प्रभाव तथा नैतिक चेतना के आधार पर शासकों के स्वरूप को उसी प्रकार सके बदला जा सकता है, जिस प्रकार अराजकतावादी राज्य का अन्त करके मानव के दैवीय गुणों को जाग्रत करने की आशा करते हैं। अराजकवादी इस बात का उत्तर नहीं दे पाते कि यदि सर्वसाधारण जनता के चरित्र में सुधार हो सकता है तो शासकों में सुधार कैसे नहीं हो सकता ? विशेषकर प्रजातन्त्र में तो जहां शासक सर्वसाधरण के ही प्रतिनिधि होते हैं, ऐसे सुधार की आशा की ही जा सकती है।

(5) राज्य एक दुर्गुण नहीं, सभ्य जीवन की अनिवार्य दशा है- राज्य के सम्बन्ध में भी अराजकतावादी दृष्टिकोण अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है। अराजकतावादी राज्य को शक्ति के प्रतीत तथा दमन और शोषण की संस्था के रूप में ही देखते हैं और वे राज्य के लोककल्याणकारी पक्ष के प्रति सर्वथा उदासीन हैं। जब राज्य केलव शक्ति का प्रतीक हो जाता है।, तब तो वह दमन और अत्याचार का साधन बन सकता है, किन्तु यदि राज्य की शक्ति का प्रयोग नियन्त्रित रूप में लोक कल्याण के लिए किया जाए, तो राज्य लोकहित में वृद्धि का एक उपयोगी साधन सिद्ध हो सकता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि राज्य उपयोगी सिद्ध भी हुआ है। ऐसी स्थिति में राज्य को एक दुर्गुण के स्थान पर सकारात्मक अच्छाई ही कहा जा सकता है। राज्य तो सभ्य जीवन की एक अनिवार्य दशा है और अरस्तू के शब्दों में कहा जा सकता है कि “समाज द्वारा सुसंस्कृत मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठतम होता है, किन्तु वही जब बिना कानून तथा न्याय के जीवन व्यतीत करता है तो सबसे अधिक निकृष्ट हो जाता है। “

(6) अराजकतावादियों का इतिहास का अध्ययन त्रुटिपूर्ण – अराजकतावादियों का आरोप है कि राज्य के द्वारा कभी भी कोई महान कार्य नहीं किया गया और राज्य में मानव का नैतिक विनाश ही किया है। अराजकतावादियों का यह आरोप सही नहीं है और वास्तविक स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। सभ्यता और संस्कृति का सम्पूर्ण विकास राज्य की सत्ता के अन्तर्गत रहकर ही हुआ है। प्रो. सीले कहना है कि “मानवता के इतिहास में जो कुछ भी अच्छी अथवा प्रशंसनीय वस्तु आज तक हुई, वह केवल शासित और संगठित समाज में ही सम्भव हो सकी है।”

(7) अराजकतावादी परोक्ष रूप में शक्ति प्रयोग को स्वीकार कर लेते हैं- अराजकतावादियों द्वारा अपने आदर्श समाज की रूपरेखा का स्पष्ट चित्रण नहीं किया गया है और वे घूमकर उसी बिन्दु पर पहुंच जाते हैं, जहां से वे चले थे। एक और अराजकतावादी कहते हैं कि व्यक्ति पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं होना चाहिए, किन्तु दूसरी ओर वे समाज की व्यवस्था का भार ऐसे संघों को सौंपना चाहते हैं।, जो वर्तमान राज्य में किए जाने वाले कार्यों को सम्पन्न करेंगे। अपनी आज्ञाओं को प्रभावदायक ढंग से लागू करने के लिए इन समुदायों को भी आज्ञा उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के विरूद्ध शक्ति का प्रयोग करना पड़ेगा। फिर यह भी सम्भव नहीं है कि इन संस्थाओं में सब कार्य एकमत होकर किया जाए, स्वाभाविक रूप से बहुमत अल्पमत पर अपने निर्णय थोपेगा। इस प्रकार संघों में संगठित समाज में भी सत्ता तथा बल का अभाव नहीं होगा। बट्रेंड रसेल के शब्दों में, “जैसा कि अराजकतावादियों का कथन है, यदि सरकार बल का प्रयोग नहीं करेगी, तो बहुसंक्ष्यक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध संगठित होकर बल प्रयोग करेंगे। अन्तर केवल यही होगा कि राज्य तथा सेना स्थायी विभाग न होकर अस्थायी बन जाएंगे।”

(8) अराजकतावादियों का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है- अराजकतावादी स्पष्टतापूर्वक यह नहीं बतला पाते हैं। कि राज्य के नष्ट होने के पश्चात् समाज में किसी प्रकार की व्यवस्था होगी। ऐच्छिक संघों को संगठित करने वाली कौन-सी सत्ता होगी और विभिन्न व्यक्तियों, विशेष रूप से विभिन्न समुदायों के झगड़ों का निराकरण कैसे किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। यदि विवादों का निपटारा करने की शक्ति और दण्ड देने की व्यवस्था किसी संघ विशेष को समर्पित की जाती है, तब राज्य और उस संघ में कोई अन्तर नहीं है। यदि मनुष्य में एक-दूसरे के साथ व्यवस्थित सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता होती, जितनी कि अराजकतावादी सोचते हैं तो राज्य और उससे सम्बन्धित संस्थाएं कभी की अनुपयुक्त हो गई होतीं। अपने उद्देश्य के सम्बन्ध में अस्पष्ट होने के कारण ही 1917 को सोवियत क्रान्ति के समय अराजकतावादी क्रान्तिकारियों को कोई निर्देश नहीं दे सके थे।

(9) धर्म एक घृणास्पद वस्तु नहीं है— अराजकतावाद धर्म को समाज के धार्मिक वर्ग हाथ निर्धनों के शोषण का यन्त्र मात्र मानता है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सत्य के है कि पूछातछ में अनेक राष्ट्रों में धर्म के नाम पर मानवीय शोषण किया गया, लेकिन इसके लिए धर्मगुरू कार्यकर्ता ही पक्ष के समान ही उसका आध्यात्मिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है।

(10 ) अराजकवादियों का स्वतन्त्रता सम्बन्धी दृष्टिकोण- अराजकतावादी कानून को परस्पर विरोधी मान लेते हैं और उनका विचार है कि राज्य के प्रत्येक कानून से व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित होती है। हो सकता है कि राज्य के कुछ कानूनों ने मानव स्वतन्त्रता को सीमित किया हो, पर सामान्यतः राज्य तथा कानून की सत्ता के अभाव में स्वतन्त्रता का अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता है। वास्तविक स्थित यह है कि कानून स्वतन्त्रता का रक्षक होता है और कानूनों के कारण ही सर्वसाधारण द्वार स्वतन्त्रता का उपयोग सम्भव है। सिसरो (Cicero) की भाषा में कहा जा सकता है कि “स्वतन्त्र होने के लिए ही हम बन्धन में रहते हैं। “

उपर्युक्त तर्कों के आधार पर कहा जाता है कि अराजकतावादी विचारधारा एक ऐसी आदर्शात्मक कल्पना मात्र है, जिसे व्यावहारिक रूप देना लगभग असम्भव ही है। अराजकतावादी की व्यावहारिकता का इससे बड़ा प्रयास और क्या हो सकता है कि अब तक कभी भी और भी अराजकतावादी व्यवस्था को अपनाया नहीं जा सकता है।

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shubham yadav

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