राजनीति विज्ञान (Political Science)

अराजकतावाद क्या हैं? अराजकतावाद के प्रमुख लक्षण

अराजकतावाद क्या हैं
अराजकतावाद क्या हैं

अराजकतावाद क्या हैं?

मानव जीवन तथा समाज में राज्य के महत्व तथा स्थान के सम्बन्ध में जो विविध विचारधाराएं प्रचलित रही हैं उनमें अराजकतावाद एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्रभावशाली विचारधारा है। अराजकतावाद एक ऐसी विचारधारा है जो राज्य, राज्यसत्ता तथा सभी प्रकार के राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक नियन्त्रणों का उपहास कर एक वास्तविक राज्यविहीन, वर्गविहीन एवं नियन्त्रणविहीन समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत करती है। अराजकता शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘अनारिकया’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘शासन का अभाव’ अराजकतावाद सभी प्रकार के राजनीतिक एवं सामाजिक बल प्रयोग को अस्वीकार करता है और राज्य को एक ऐसा दुर्गुण मानता है जो समाज में सर्वथा अनावश्यक, अवांछनीय तथा अत्याचारितापूर्ण है, लेकिन इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि अराजकतावाद का तात्पर्य व्यवस्था का अभाव नहीं है, बलिक शक्ति या दबाव के अभाव से हैं। अनिवार्यता का अभाव इसका परम आवश्यक तत्व

वास्तव में, अराजकतावाद के भी दो रूप हैं- एक तो व्यक्तिवादी और दूसरा साम्यवादी। दोनों ही राज्य की समाप्ति के पक्ष में हैं, परन्तु व्यक्तिवादी निजी सम्पत्ति को बनाए रखना चाहते हैं। साम्यवाद में विश्वास करने वाले अराजकतावादी निजी सम्पत्ति की व्यवस्था को खत्म करने के पक्ष में हैं। वर्तमान युग के अराजकतावादी अधिकांशतः साम्यवादी हैं। ये अराजकतावादी राज्य, व्यक्तिगत सम्पत्ति और धर्म इन तीनो अराजकतावादी अधिकांशतः साम्यवादी हैं। ये अराजकतावादी राज्य, व्यक्तिगत सम्पत्ति और धर्म इन तीनों संस्थाओं के विरूद्ध हैं और इन तीनों संस्थाओं को समाज की प्रगति में बाधक मानते हैं। बाकुनिन के अनुसार, “ये तीनों संस्थाएं मनुष्य के आदिम विकास के चिन्ह हैं और आधुनिक विकास की अवस्था में इनकी बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं।”

अराजकता उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जिनके आधार पर परिवर्तित समाज का संचालन किया जाएगा। अराजकतावादी राज्यविहीन समाज में राज्य के स्थान पर स्वतंन्त्र एवं ऐच्छिक संस्थाओं की स्थापना करना चाहते हैं, जिनके होने पर सेना, न्यायालय और कारागार, आदि राज्य के दण्डाकारी विभाग निरर्थक सिद्ध हो जाएंगे। अराजकतावादी सरकारी श्रम के आधार पर सम्पूर्ण उत्पादन शक्तियों के स्वतन्त्र संगठन के पक्षपाती हैं तथा राष्ट्रीय राज्यों की अपेक्षा स्वतन्त्र समुदायों की एक संघीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं। अराजकतावाद के जन्मदाता प्रिन्स क्रोपॉटकिन (Prince Kropotkin) ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है, “अराजकता जीवन या आचरण के उस सिद्धान्त या वाद को कहते हैं, जिसके अधीन राज्यविहीन समाज की कल्पना की जाती है। इस समाज में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने के लिए किसी कानून अथवा बाहरी सत्ता के आदेशों का पालन आवश्यक नहीं होगा। यह सामंजस्य उत्पादन, उपभोग तथा सभ्य समाज की अनेक प्रकार की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की सन्तुष्टि के लिए स्वतन्त्र रूप से संगठित विभिन्न प्रादेशिक तथा व्यावसायिक समुदायों के एच्छिक तथा स्वतन्त्र समझौते से उत्पन्न होगा। “

हक्सले के अनुसार, “अराजकतावाद समाज की वह स्थिति है, जिसमें केवल व्यक्ति के स्वयं पर शासन को ही न्यायोचित रूप में मान्यता प्राप्त होगी।”

जी. डी. एच. कोल के अनुसार, “एक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में अराजकतावाद समाज के सामाजिक संगठन के उन सब रूपों के पूर्ण विरोध के साथ प्रारम्भ होता है, जो बाध्यकारी सत्ता पर आधारित होते हैं। एक आदर्श के रूप में अराजकतावाद का अभिप्राय उस स्वतन्त्र समाज से है जिसमें बाध्यकारी तत्वों का लोप हो चुका है।”

व्यक्ति के व्यक्तित्व की महत्ता और अपने राज्य विरोधी दृष्टिकोण में, अराजकतावादी 19वीं सदी के उदारवाद का घनिष्ठ सहयोगी है। इसके साथ ही निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के विरोध में, जो कि श्रम के शोषण का साधन है, यह समाजवादी विचारधाराओं के सूत्रों को ग्रहण करता है। इस प्रकार गेटल के शब्दों में, “अराजकता का उद्देश्य 19वीं सदी की दो महान् समाज सुधारक विचारधाराओं, उदारवाद और समाजवाद, का समन्वय है। यह लिखता है कि समाजवाद के बिना स्वतन्त्रता विशेषाधिकारों में परिणत हो जाती है और स्वतन्त्रता के बिना समाजवाद स्वेच्छाचारिता और दासता में परिणत हो जाता है।”

अराजकतावाद के प्रमुख लक्षण

यद्यपि राजनीतिक दर्शन में अराजकतवाद के समर्थकों की संख्या बहुत अधिक नहीं रही है, लेकिन फिर भी अन्य विचारधाराओं की भांति अराजकतावाद की भी अपनी कुछ विशेष धारणाएं हैं, जिनका उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है:

(1) मानव के सात्विक गुणों का विश्वास- अराजकतावाद मानता है कि मनुष्य जन्म से एक सामाजिक तथा सहयोगी प्राणी है, जो आत्मकल्याण के साथ-साथ दूसरों के हित और समान लाभ का पूरा-पूरा ध्यान रखता है। उसके अनुसार मानव में भय, भूख और संघर्ष के तत्व नहीं, वरन् प्रेम, सहानुभूति और स्वतन्त्रता के तत्वों की ही प्रमुखता है।

(2) राज्य एक अस्वाभाविक और अनावश्यक बुराई- अराजकतावादियों के अनुसार राज्स एक अस्वाभाविक संस्था है, क्योंकि राज्य की उत्पत्ति से पूर्व भी मनुष्य बनाकर स्वतन्त्र और सुखी जीवन व्यतीत करते थे। राज्य की उत्पत्ति का कारण मानव स्वभाव नहीं, वरन् वर्गभेद है इसलिए जब वर्गभेद मिट जाएगा तो राज्य की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

अराजकतावादी राज्य को अनावश्यक भी मानते हैं और इस बात पर बल देते हैं कि देश की सुरक्षा का भार, आन्तरिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक पुनर्निर्माण, आदि कार्य यदि राज्य से लेकर स्वतन्त्र संघों को दे दिये जाएं, तो उनका सम्पादन अधिक सफलता के साथ हो सकेगा। क्रोपाटकिन के शब्दों में, “स्थायी सेनाएं सैदव ही आक्रान्ताओं द्वारा परास्त होती रही हैं और इतिहास की दृष्टि से उन्हें देश के बाहर निष्कासित करने में जनक्रान्तियां अधिक सफल हुई हैं।”

अराजकतावादियों के अनुसार राज्य एक ऐसा दुर्गुण है, जिसे आदर्श समाज में कोई स्थान प्राप्त नहीं हो सकता। मनुष्य जो कि प्रकृति से विवेकी, तर्कशील और शुभेच्छु होता है, राज्य के आधिपत्य से अपने स्वाभाविक गुणों को खो बैठता है और राज्य व शक्ति उसे स्वार्थी, पदलोलुप और अनैतिक बना देती है। राज्य तथा उसके कानून मानव स्वतन्त्रता के शत्रु हैं। राज्य की शक्ति शासकों को निष्ठुर तथा अत्याचारी बना देती है और सामान्य जनता में दासता की प्रवृत्ति उत्पन्न करती है। अराजकतावादी क्रोपाटकिन के शब्दों में, “इस अथवा उस घृणित मन्त्री को यदि सत्ता प्राप्त न हुई होती, तो वह बहुत ही श्रेष्ठ व्यक्ति होता।” राज्य प्रथम तो निर्दोष एवं पवित्र व्यक्ति को पाप के मार्ग पर प्रेरित कर अपराध करना सिखाता है और फिर उसे अपराधी होने के अभियोग में दण्डित करता है।

अराजकतावादी आर्थिक आधार पर भी राज्य का विरोध करते हैं। उनका विचार है कि राज्य में व्यक्तिगत सम्पत्ति के मार्ग में जन्म लेकर व्यक्तिगत सम्पत्ति को प्रोत्साहन देने का ही कार्य किया है और वर्तमान समय की आर्थिक असमानता तथा आर्थिक शोषण राज्य के कार्यों का ही परिणाम है। इस सब बातों के आधार पर क्रोपाटकिन कहते हैं कि “राज्य का कोई स्वाभाविक औचित्य नहीं है। वह मुनष्य की स्वाभाविक सहयोगी मूलप्रवृत्ति के विरूद्ध है।”

(3) प्रतिनिध्यात्मक सरकार का आलोचक- राज्य तथा सरकार की आलोचना करते हुए अराजकतावादी ने केवल राजतन्त्र और कुलीनतन्त्रस, वरन् जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिध्यिात्मक सरकार की भी भर्त्सना करते हैं। प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए अराजकतावादी कहते हैं। कि यथार्थ में अन्य व्यक्ति का तो क्या, एक व्यक्ति स्वयं तक का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। यथार्थ में, इन तथाकथित प्रतिनिध्यात्मक सरकारों का संचालन नितान्त अपरिपक्व एवं अनुभवशून्य व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। व्यावसायिक राजनीतिज्ञों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाता है, जिसका एकमात्र कार्य मानवीय दुर्बलताओं का अनुचित लाभ उठाना होता है। प्रतिनिध्यात्मक शासन के सम्बन्ध में अराजकतावादी दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हुए प्रो. जोड लिखते हैं, “प्रतिनिधि सरकार ऐसे व्यक्तियों की सरकार होती है जो प्रत्येक कार्य को खराब ढंग से करने के लिऐ सबके विषय में थोड़ा-थोड़ा जानते हैं, किन्तु जिन्हें ठीक प्रकार से कार्य करने के लिए आवश्यक किसी भी वस्तु का पर्याप्त ज्ञान नहीं होता।”

(4) व्यक्तिगत सम्पत्ति और पूंजीवाद का शत्रु – अराजकतावाद साम्यवाद की ही भाँति श्रम को मूल्य का एकमात्र आधार मानकर इस बात का प्रतिपादन करता है कि किसी वस्तु के क्रय से जो लाभ होता है वह सम्पूर्ण रूप में श्रमिक को ही मिलना चाहिए, किन्तु व्यवहार में पंजीपति उसे हथिया लेता है, इसलिए अराजकतावादी प्रोधां कहता है कि “प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति चोरी है।”

अराजकतावादी मानते हैं कि व्यक्तिगत सम्पत्ति ने ही पूंजीवाद को जन्म दिया है, ‘जो मानवीय शोषण का पर्यायवाची है। पूंजीपति सांस तो अतिरिक्त लाभ तथा निर्यात की लेते हैं, लेकिन उसे वापस निकालते समय सामाजिक वातावरण में शोषण, घृणा, द्वेष, निर्धनता तथा वेरोजगारी उत्पन्न करते हैं। अराजकतावादियों का विचार है कि पूंजीवाद का अन्त ही श्रेयस्कर है और इसका अन्त अब अत्यन्त समीप भी है।

(5) धार्मिक पाखण्डों की निन्दा – अराजकतावादी धर्म का भी विरोध करते हैं। उनकी यह मान्यता है कि धर्म के धोखे में आकर व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है, वह भाग्यवादी हो जाता है और उसके कर्म की शक्ति बहुत शिथिल पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में मानव राज्य तथा पूंजीवाद जैसी अन्यायपूर्ण संस्थाओं के विरोध में खड़ा नहीं हो पाता और मानवीय शोषण तथा अत्याचार पनपते हैं। बाकुनिन तो यहां तक कहता है कि “ईश्वर बहुत कुछ जार के समान था और जार ईश्वर के समान था; दोनों ही अत्याचारी थे।” धर्म के द्वारा विभिन्न मतावलम्बियों के बीच विद्वेष उत्पन्न करने का कार्य भी किया जाता है।

(6) विकेन्द्रीकरण में विश्वास- अराजकतावादियों द्वारा राज्य के विरोध का एक प्रमुख कारण राज्य के अन्तर्गत सारी व्यवस्था का केन्द्रीकरण है जिसका परिणाम अकुशलता और भ्रष्टाचार होता है। अराजकतावादी अपने आदर्श समाज में व्यवस्था और प्रबन्ध के विकेन्द्रीकरण पर बल दते हैं और चाहते हैं कि समाज का पुनर्निमाण स्थानीय संस्था एवं संघों के आधार पर हो, जो पुनः विशलतर संगठनों में संयुक्त होकर एक देशव्यापी संगठन का रूप धारण कर ले। इस प्रकार अराजकतावाद समाज को स्वतन्त्र संघों में संगठित कर संघात्मक रूप देना चाहता है। प्रो. जोड के अनुसार यदि हम निष्पक्षता से देखें तो “अराजकतावाद प्रादेशिक तथा व्यावसायिक विवेकेन्द्रीकरण का सबसे प्रबल समर्थक तथा पोषक हैं। “

(7) राज्यविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य – वर्तमान सामाजिक प्रबन्ध का एक प्रमुख दोष वर्गवादी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक ओर तो ‘रोमांचित करने वाली दरिद्रता’ और दूसरी ओर ‘पापकारिणी सम्पन्नता’ देखी जा सकती है। इस वर्गवादी व्यवस्था को जन्म देने और बनाये रखने का कार्य राज्य के द्वारा ही किया गया है और मानव समाज में व्याप्त सभी बुराइयों की जड़ राज्य और वर्गवादी व्यवस्था ही है।

अराजकतावादी का लक्ष्य इस वर्गवादी व्यवस्था को समूल नष्ट कर एक ऐसे सहकारी समाज की स्थापना करना है, जिसके द्वारा एक संयुक्त परिवार के समान जीवन व्यतीत किया जाएगा। इस समाज का प्रत्येक सदस्य पारस्परिक सौहार्द, सहयोग तथा प्रेम के सूत्रों से बंधा होगा और इस समाज में एक सबके लिए और सब एक के लिए जीवित रहेंगे। इस समाज में धर्म, रंग, लिंग, सम्पत्ति और जाति के आधार पर किसी प्रकार का ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं होगा और आज के समाज में पायी जाने वाली छोटे-बड़े की दीवारें सदैव के लिए ढह जाएगीं। इस समाज में वर्ग और व्यक्तिगत का अस्तित्व न होने से पारस्परिक द्वन्द्व तथा संघर्ष समाप्त हो जाएगा और स्वतन्त्रता, समानता और सहयोग पर आधारित एक वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज की स्थापना होगी।

प्रश्न- अराजकतावाद के जनक कौन है?

उत्तर- प्रिन्स क्रोपॉटकिन (Prince Kropotkin) है|

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shubham yadav

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