अनुक्रम (Contents)
आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यक्रम
आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप निम्नलिखित प्रकार का होना चाहिये-
(1) आदर्शवाद में पाठ्यक्रम का आधार जीवन के सर्वोच्च आदर्श हैं।
(2) इसमें मानव जाति के अनुभवों को संगठित करना चाहिये।
(3) इसे सभ्यता तथा संस्कृति का प्रतीक होना चाहिये।
(4) पाठ्यक्रम में भौतिक एवं सामाजिक अनुभवों को सम्मिलित करना चाहिये।
(5) पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक मूल्यों को स्थान मिलना चाहिये।
(6) पाठ्यक्रम में उच्च आदर्शों, अनुभवों तथा विचारों को स्थान देना चाहिये।
(7) पाठ्यक्रम में मानविकी तथा वैज्ञानिक दोनों प्रकार के विषयों का समावेश होना चाहिये। इस सम्बन्ध में जे. एस. रॉस के विचार अग्रलिखित प्रकार हैं-
“मनुष्य को सच्चे तथा विशिष्ट अर्थों में मानव होने के लिये अपनी इस विरासत को ग्रहण करना चाहिये। वह सामान्य संस्कृति उसे अपने लिये पुनः प्राप्त और अर्जित करनी चाहिये और हो सके तो सामान्य भण्डार में कुछ देना चाहिये।”
आदर्शवाद के अनुसार शिक्षण विधि
शिक्षाशास्त्री बटलर के अनुसार-“आदर्शवादी अपने को विधि का निर्माणक तथा निर्धारक समझते हैं, वे किसी भी एक विधि का दास नहीं बनना चाहते।”
रूसो, फ्रॉबेल, पेस्टालॉजी, किलपैट्रिक तथा डाल्टन ने दर्शन के सिद्धान्तों का प्रयोग करते हुए विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रतिपादन किया है। शिक्षण विधि का महत्त्वपूर्ण भाग “यह है कि एक शिक्षक को किस सीमा तक शैक्षणिक कार्यक्रम में अपना निजी योगदान देना चाहिये। शिक्षक का हस्तक्षेप किस सीमा तक न्यायसंगत एवं तर्कसंगत है।
आदर्शवादी ‘व्याख्यान विधि’ पर अधिक बल देते हैं, इससे बालकों में रचनात्मक कलाकृतियों के प्रति सहज में ही सौन्दर्यानुभूति की भावना जाग्रत् हो जाती है। प्रश्नोत्तर एवं वाद-विवाद विधि द्वारा भी छात्रों को सक्रिय बनाते हैं परन्तु कौशल की अभिवृद्धि बिल्कुल नहीं होती।
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