राजनीति विज्ञान (Political Science)

आधुनिक युग में कितनी विचारधाराएँ प्रचलित है? संक्षेप में प्रकाश डालिए।

आधुनिक युग में कितनी विचारधाराएँ प्रचलित है
आधुनिक युग में कितनी विचारधाराएँ प्रचलित है

आधुनिक युग में कितनी विचारधाराएँ प्रचलित है? 

आधुनिक युग में मोटे तौर पर चार प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित हैं- 1. उदारवादी विचारधाराएँ, 2. मार्क्सवादी अथवा समाजवादी विचारधाराएँ, 3. सर्वाधिकारवादी अथवा फासीवादी विचारधाराएँ, 4. गाँधीवादी विचारधाराएँ।

1. उदारवादी विचारधाराएँ

उदारवादी विचारधारा राजनीति का वह सिद्धान्त है जो समाजवाद के पतन के बाद राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था के अनुरूप मोड़ देने के लिए अस्तित्व में आया। प्रारम्भ में इसने व्यक्ति को राजनीति का केन्द्र बिन्दु मानते हुए व्यक्तिवाद को अपनाया परन्तु बाद में इसने राजनीति में समूह की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए बहुलवाद को अपना लिया। शुरू-शुरू में इसने मुक्त बाजार व्यवस्था को सार्वजनिक हित का उपयुक्त साधन मानते हुए राज्य के लिए अहस्तक्षेप नीति का समर्थन किया परन्तु बाद में इसने बाजार व्यवस्था को सार्वजनिक हित के अनुरूप नियमित करने की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कल्याणकारी राज्य का सिद्धान्त अपना लिया।

उदारवादी विचारधारा में दो प्रमुख विषयों पर बल दिया जाता है एक तो इसमें निरकुंश सत्ता को अस्वीकार करके उसकी जगह मनुष्यों की स्वतन्त्रता पर आधारित व्यवस्था स्थापित करने का लक्ष्य सामने रखा जाता है; दूसरे, इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की मांग की जाती है।

उदारवादी विचारधारा के विकास के दो चरण माने जाते हैं— परम्परागत उदारवाद तथा सकारात्मक उदारवाद।

परम्परागत उदारवाद का प्रारम्भिक रूप इंग्लैण्ड में विकसित हुआ। इंग्लैण्ड में उदारवाद शुरू-शुरू में धार्मिक स्वतन्त्रता और सहिष्णुता, संविधानवाद तथा राजनीतिक अधिकारों की मांग के रूप में सामने आया। 1688 की क्रांति इतिहास की सबसे पहली उदारवादी क्रांति मानी जाती है जिसका मुख्य लक्ष्य राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि करना था, आर्थिक उद्देश्यों की नहीं। इन राजनीतिक उद्देश्यों में संविधानवाद के मुख्य-मुख्य सिद्धान्त सम्मिलित थे- विरोध का अधिकार, विधि का शासन और शक्तियों का पृथक्करण। परम्परागत उदारवाद एक विशेष आर्थिक वर्ग उभरते हुए पूँजीवादी वर्ग (मध्यम वर्ग) का दर्शन था। अतः इसका आर्थिक पहलू और भी महत्वपूर्ण है। 1760 से 1830 की जबरदस्त औद्योगिक क्रांति के दौर में फ्रांस में फिजिओक्रेटस इंग्लैण्ड में एडम स्मिथ, माथल्स आदि ने लेसेफेयर का सिद्धान्त दिया तथा आर्थिक क्षेत्रों में किसी भी प्रकार की राजनीतिक दखलंदाजी का विरोध करते हुए आर्थिक स्वतन्त्रता की सिफारिश की। स्वतन्त्र समझौते, व्यापार प्रतियोगिता, अर्थव्यवस्था, बाजार तथा बाजारू समाज को आर्थिक स्वतन्त्रता की आवश्यकता बतलाते हुए राज्य की आर्थिक मामलों में दखलंदाजी का विरोध किया गया। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिवाद को महत्व दिया गया। राज्य के अधिकार क्षेत्र को सीमित कर आर्थिक मामलें में राज्य की घुसपेठ तथा हस्तक्षेप को रोक कर आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को स्वतन्त्र रूप से स्थापित करके यह प्राप्त किया गया। यह पूंजीवादी वर्ग के आर्थिक दर्शन है। यह राज्य तथा सरकार को आवश्यक बुराई मानता है तथा जो सरकार कम से कम शासन करे उसे सर्वोत्तम मानता है।

19 वीं शताब्दी में परम्परागत उदारवाद को नयी-नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इनमें से एक प्रजातन्त्र की चुनौती तथा दूसरी समाजवाद की चुनौती थी। प्रजातन्त्र की चुनौती का सामान राजनीतिक समानता की मांग को वयस्क मताधिकार देकर सुलझाया गया तथा समाजवाद की आर्थिक समानता की मांग को राज्य को आर्थिक कार्यों में हस्तक्षेप, कल्याणकारी मांग, निर्धन मजदूर वर्ग की आर्थिक स्थिति को सुधारने सम्बन्धी मामलों को पूरा करने का प्रयत्न किया गया। राज्य की शक्ति का बढ़ाया जाना आर्थिक समानता लाने की आवश्यकता माना गया। 20 वीं शताब्दी में भी यह प्रवृत्ति बढ़ती गई और आर्थिक क्षेत्रों में राज्य के क्रियाकलाप बढ़ने लगे। अब उदारवाद पूँजीवादी राज्य की शक्ति को बढ़ाएँ जाने का अनवरत समर्थन करता गया। राज्य वर्ग संघर्ष को कम करने वाली संस्था के रूप में समझा जाने लगा जिसका काम मानव के व्यक्तित्व के विकास के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना, समाज में विवाद निपटाना, अर्थव्यवस्था नियंत्रित करना, पूंजीपतियों पर टैक्स लगाकर गरीबों के कल्यण के लिए काम करना, समाज में वर्ग सामन्जस्य स्थापित करते हुए शांति व्यवस्था तथा तालमेल स्थापित करना माना गया।

यह संशोधित उदारवाद या सकरात्मक उदारवाद कहलाया जो पूंजीवादी वर्ग की बदलती हुई स्थिति तथा आवश्यकताओं के कारण बदल रहा था। उदारवाद में यह परिवर्तन पूँजीवादी वर्ग की बदलती हुई स्थिति की आवश्यकता थी। अब उदारवाद को प्रजातन्त्र तथा समाजवाद के नारों में नया सहारा मिला। आज उदारवाद प्रजातन्त्र तथा समाजवाद की बैसाखियों के सहारे चलता हुआ दर्शन है। आज उदारवाद समाजवाद से घुलमिल रहा है और यह सिद्धान्त सकरात्मक उदारवाद नाम से प्रचलित है। सकरात्मक उदारवाद का दर्शन जे. एस. मिल., टी. एच. ग्रीन, आर्नोल्ड, हाव्हाउस, रिचे, हॉब्सन, लॉस्की, कीन्स आदि के चिन्तन से मिलता है। उदारवादी दर्शन से सम्बन्धित प्रमुख विचारधाराएँ हैं—व्यक्तिवाद, उपयोगितावाद, बहुलवाद तथा लोकतान्त्रिक समाजवाद ।

2. मार्क्सवादी अथवा समाजवादी विचारधाराएँ

यदि उदारवाद उभरते हुए पूँजीवादी वर्ग का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन था तो मार्क्सवाद मजदूर तथा मेहनत करने वाले वर्गो के दर्शन के रूप में जन्मा औद्योगिक क्रांति के दौरान पूंजीवादी उद्योगों की प्रगति ने यूरोप में एक नये वर्ग को जन्म दिया। यह था मजदूर वर्ग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक परिणाम, जो 19 वीं शताब्दी में निरन्तर बढ़ता गया और जिसकी दशा इतनी दर्दनाक थी कि स्वयं पूँजीवादी लेखक तथा अन्य मानवतावादी विचारक भी इसकी ओर ध्यान देने लगे। फ्रांस की क्रांति तथा उसके द्वारा प्रेरित मानवीय मूल्य तथा आदर्श जब 19 वीं शताब्दी पूँजीवादी शोषण की आँधी में धुधले पड़ने लगे तब इन्हीं आदर्शो की मशाल को मार्क्सवादी विचारधारा ने उठाया। जर्मन दर्शनिक कार्लमार्क्स तथा उसके सहयोगी फ्रैडरिक एंग्ल्स ने मजदूर वर्ग को क्रातिंकारी संदेश दिया दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ। तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं है तथा पाने के लिए संसार पड़ा है। मजदूर वर्ग को संगठित करके वैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर क्रांति लाने का संदेश देने वाले इस दर्शन का मुख्य तत्त्व दुनिया को समझना ही नहीं अपितु बदलने का तरीका बताते हुए बदलना भी है। मार्क्सवादी दर्शन का उद्देश्य निजी सम्पत्ति पर आधारित उत्पादन व्यवस्था को खत्म करके, समाजवादी सम्पत्ति पर आधारित उत्पाद व्यवस्था स्थापित कर, वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना है। मार्क्सवादी दर्शन मुख्यतः समाज, अर्थव्यवस्था, राजव्यवस्था, सांस्कृतिक व्यवस्था आदि के विश्लेषण की वैज्ञानिक पद्वति है। विश्व के शोषक वर्गों के लिए मार्क्सवाद एक डरावना दर्शन है तथा करोड़ो मेहनत करने वाले शोषित लोगों के लिए यह दर्शन मुक्ति का संदेश, क्रांति का सिद्धान्त तथा नये समाज की रूपरेखा का आधार है।

मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर आगे चलकर कतिपय विचारधाराएँ प्रचलित हुई जिनमें प्रमुख हैं— समाजवाद, अराजकतावाद, श्रमिक संघवाद, समष्टिवाद, समाजवाद, फेबियनवाद आदि ।

3. सर्वाधिकारवादी अथवा फासीवादी विचारधाराएँ

सर्वाधिकारवादी विचारधारा शब्द का प्रयोग उदारवादी विचारधारा शब्द के विरोध में किया जाता है। सर्वाधिकारवादी राज्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन पर अधिकार रखने का दावा करता है। जिस प्रकार बाइबिल का उपदेश है कि “हमारा जीवन हमारी क्रियाशीलता और हमारा अस्तित्व परमात्मा में होता है”, उसी प्रकार सर्वाधिकारवाद हमें सीखता कि “हमारा जीवन हमारी क्रियाशीलता और हमारा अस्तित्त्व राज्य में ही है।” सर्वाधिकारवाद के अनुसार मनुष्य के जीवन पर उसका अधिकार नहीं होता। यह राज्य की धरोहर है और उसका प्रयोग राज्य के हित में ही होना चाहिए। सर्वाधिकारवाद के अनुसार राज्य सब कुछ है यह सर्वशक्तिमान है और यह कभी कोई गलती नहीं कर सकता। मुसोलिनी ने इटली की जनता के समक्ष यह आदर्श रखा था – “राज्य के भीतर सब कुछ, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं।” सर्वाधिकारवादी राज्य का लक्ष्य राज्य और समाज के बीच के भौतिक विभेद को मिटाना और राज्य को सर्वशक्तिमान बनाना है। सर्वाधिकारवादी विचारधारा के उदाहरण हैं फासीवाद और नाजीवाद की विचारधाराएँ । फासीवाद सर्वाधिकारवाद का इटालियन संस्करण है। फासीवाद एक दल का शासन है जिस पर अधिनायक का नियन्त्रण रहता है। यह अधिनायक एक निरंकुश समग्रवादी राज्य की स्थापना करता है।

4. गाँधीवादी विचारधारा

गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को गाँधीवाद या गाँधीवादी विचाराधारा का नाम दिया जाता है। दक्षिणी अफ्रीका एवं भारत के जनआंदोलनों को गाँधीजी ने एक विशिष्ट पद्धति एंव दृष्टिकोण से संचालित किया। यह पद्धति एवं दृष्टिकोण इतिहास सर्वथा नयी चीज थी। गाँधीजी ने इतिहास में पहली बार सत्य अहिंसा और प्रेम के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का राजनीति के क्षेत्र में इतने विशाल पैमाने पर प्रयोग किया कि यदि उनके विचारों को गाँधी विचारधारा कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। गाँधी विचारधारा के प्रमुख लक्षण है— राजनीतिका आध्यात्मिकरण करना राजनीति को उच्च नैतिकता और धार्मिक भावना से अतिप्रोत करना; अहिंसा के सिद्धान्त को मूर्तरूप देने के लिए राजनीति में सत्याग्रह की कार्यपद्धति का प्रयोग करना, राज्यरहित जनतन्त्र की स्थापना करते हुए सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देना, औद्योगिकरण पर बल देते हुए कुटीर उद्योगों का समर्थन और ट्रस्टीशीप सिद्धान्त द्वारा आर्थिक विषमता के अन्त का विचार। संक्षेप में गाँधी विचारधारा विश्व को सर्वोदय का संदेश देती है, अहिंसात्मक क्रान्ति के रूप में यह मानवमात्र का नैतिक उत्थान करना चाहती है।

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shubham yadav

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