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कर्नाटक की कसूती कला पर प्रकाश डालिए।

कर्नाटक की कसूती कला
कर्नाटक की कसूती कला

कर्नाटक की कसूती कला

कर्नाटक की कसूती- मैसूर के आस-पास के क्षेत्र, धारवाड़, बीजापुर इस कढ़ाई . हेतु प्रसिद्ध है। कसूती कसीदा शब्द का ही पर्याय है। इस कढ़ाई के धागे गिन-गिन कर डबल रनिंग, जिक जैग, सादी रनिंग, क्रॉस स्ट्चि द्वारा नमूने बनाए जाते हैं।

कसूती कढ़ाई अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार की कढ़ाई कला चाणक्य वंश के समय से ही चली आ रही है। छठीं शताब्दी में यह कला काफी विकसित थी। धारवाड़, कर्णाटक के बालगाँव, जामाखंडी, बीजापुर इस कढ़ाई के प्रसिद्ध क्षेत्र थे। कसूती शब्द दो शब्दों के मिलने से बना है का+सूती ‘का’ का अर्थ है हाथ तथा सूती का अर्थ है ‘धागा’। इस प्रकार कन्नड़ भाषा में कसूती कढ़ाई को सूती धागे से हाथ की कढ़ाई।

कसूती कढ़ाई ‘दो सूती’ वस्त्र पर सूती धागे से की जाती है जिसमें कच्चा टाँका, गाँठ वाला टाँका, जिंग जैग आदि नमूने काढ़े जाते हैं। कसूती कढ़ाई की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि कढ़ाई करते समय धागे में गाँठें नहीं लगाई जाती हैं साथ ही नमूने काढ़ने के लिए नमूनों को वस्त्रों पर नहीं छापा जाता बल्कि ताने एवं बाने के धागों को गिनकर कढ़ाई की जाती है। ताने एवं बाने के धागों का रंग चटक होता है। जैसे लाल, नारंगी, हरा, पीला, जामुनी – आदि रंगों के धागों का प्रयोग किया जाता है।

कसूती कढ़ाई में विशेषकर पौराणिक कथाओं से सम्बन्धित नमूनों का प्रयोग किया जाता है। जैसे -देवताओं, नदियाँ, झरने, पशु-पक्षी, सूर्य, शंख, पालकी, आसन, फूल आदि। कसूती कढ़ाई में रंग बिरंगे धागों का संयोजन इतना सुन्दर होता है कि बराबर ध्यान आकर्षित हो जाता है। कर्नाटक की इस प्राचीन कला में ईकाल साड़ी इतनी लोकप्रिय होती थी कि लोग दूर-दूर से खरीदने आते थे।

इसमें कढ़ाई से पल्लूपर भारी कसीदा निकाला जाता था बाकी साड़ी में बार्डर । चौड़े बार्डर को टोप टेनी कहा जाता था। नेगी एवं मुरगी टाँकों से साड़ी के बार्डर बनाए जाते थे। साड़ी की चोली जिसे वहाँ खान कहा जाता था।

कसूती कढ़ाई कला में मुख्यतः चार प्रकार के टाँकों का प्रयोग किया जाता था जिनमें (1) गवन्थी (2) मुर्गी (3) नेगी (4) मेंथी

(1) गवन्थी- गवन्थी शब्द कन्नड़ भाषा के ‘गन्टु’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है गाँठ गवन्थी टाँके के प्रयोग से नमूने को रूपरेखा बनाई जाती है इस टाँके के उपयोग से अन्नानास, हाथी, कमल, पत्तियाँ, फूल आदि नमूने उकेरे जाते हैं। ‘गवन्थी’ में साधारणतः दोहरा कच्चा टाँका होती है तथा बीच-बीच में छोटी-छोटी बिन्दियाँ के समान टाँके बनाए जाते हैं।

(2) नेगी- ‘नेगी’ कन्नड़ भाषा में ‘नेगी’ शब्द का अर्थ होता है बुनाई अतः नेगी टाँकों से बने नमूने बुनाई की तरह ही दिखाई देते हैं।

नेगी टाँका साधारण टाँके अथवा डारनिंग टाँके के समान दिखाई देता है। नेगी टाँकों से  खूबसूरत नमूने उकेरे जाते हैं जैसे फूल, मोर, हाथी, पत्तियाँ, बेल-बूटे आदि। नेगी टाँकों से नमूने बड़े नहीं बल्कि छोटे-छोटे ही बनाए जाते हैं।

(3) मुर्गी – गन्वथी की भाँति दिखने वाला यह टाँका सुन्दर कढ़ाई के लिए विख्यात है। मुर्गी कला में कच्चे ट्राँकों से जिकजैक आकृति का बनाया जाता है। यह टाँका सीढ़ी के समान दिखाई देता है। टाँका वस्त्र पर आने के पश्चात् दोनों तरफ से एक समान दिखाई देता है।

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shubham yadav

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