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केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की विशेषताएँ अथवा केदारनाथ अग्रवाल प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं।
केदारनाथ अग्रवाल आस्था और संघर्ष के साथ प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। एक ओर जहाँ उनकी कविताओं में उनका प्रगतिवादी स्वर मुखरित हुआ है, वहीं दूसरी ओर उनमें उनके प्रेम और सौन्दर्य की भी अभिव्यंजना हुई है। वे प्रेम और सौन्दर्य के अद्वितीय कवि हैं। केदारनाथ अग्रवाल की स्वयं की मान्यता है कि ‘मेरे ऐसे प्रेम की कविताएँ हिन्दी काव्य में मिलना दुश्वार है।’
कवि केदारनाथ को प्रेम सम्बन्धी कविताएँ लिखने की प्रेरणा अपनी प्राणप्रिया पत्नी से ही मिली है। उन्हीं के शब्दों में
यह प्रेम अचानक पाया गया ब्याह में युवती लाने
प्रेम ब्याह कर संग में लाया।
केदार जी की प्रेमपरक कविताएँ बड़ी मांसल और कभी-कभी तो उत्तेजक भाव वाली हैं। उनके वर्णित स्त्री-सौन्दर्य शारीरिक दृष्टि से बड़ा आकर्षक है। एक उदाहरण देखें-
शरीर हो तुम / सिर से पैर तक दर्शनीय
चुम्बकीय हो तुम/अंग-प्रत्यंग से शारदीय
उजागर/दिक्बोध है/तुम्हारी देह का आलिंगन बोध ।
केदारनाथ अग्रवाल ने बहुत सारी स्त्रियों को आलम्बन बनाकर प्रेमपरक रचनाएँ की हैं। इतना ही नहीं प्रकृति भी उनकी कविताओं में नारी रूप में उपस्थित है, लेकिन जहाँ तक नारी प्रेम और उसके प्रति आकर्षण का प्रश्न है, केदार की नारी भावना स्वकीया-प्रेम की है। स्वयं केदार बाबू की स्वीकारोक्ति है कि, “मूलतः मैं पत्नी-प्रेमी रहा हूँ। मेरी प्रेम कविताएँ उन्हीं के प्रेम और सौन्दर्य की कविताएँ हैं।” ‘हे मेरी तुम’ तथा ‘जमुन जल तुम’ काव्य संकलनों की बहुसंख्यक कविताएँ उनके द्वारा पत्नी प्रेम को ही माध्यम बनाकर लिखी गयी हैं। इससे प्रमाणित है कि उनकी स्वीकारोक्ति खोखली नहीं है।
केदार का कवि अपनी पत्नी के प्यार को अपने जीवन की अमूल्य निधि मानता है। स्पष्ट है कि उसमें अपनी प्रेमपरक कविताएँ अपनी पत्नी को ही लक्षित करके ही लिखी हैं। एक ही उदाहरण काफी होगा-
प्यारी! मेरे जन्म गाँव में/प्यार! उसी लड़कपन वाले गाँव में
प्यार! उसी कमासिन गाँव में/अपने प्यारे गाँव में
नैनी से तुमको लाया हूँ / हम दोनों का ब्याह हुआ है
मैं पति हूँ- अब तुम पत्नी हो/ मेरे आलिंगन में आकर
मेरे अंग-अंग से मिलकर/अपनी सुख-बुध सब खो डालो
फिर न अलग हो गले लगा लो ।
कवि अपनी पत्नी में ही पर नारी का भी आनन्द प्राप्त करता है। वह अपनी पत्नी को प्रेयसी-भाव से ग्रहण करता है। एक उदाहरण देखें-
उसके अंगों के छूने की / अब विद्युत दौड़ेगी इनमें
उसके ओठों के चुम्बन की/अब मदिरा उतरेगी इनमें
उसने मेरी सेज सजाई/सेज सजाकर अंग मिलाया
ओठों का रसपान कराया
अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्रियों को आलम्बन बनाकर कवि केदारनाथ ने कविताएँ न लिखी हों, ऐसा नहीं है। उन्होंने परकीया-प्रेम को भी जहाँ वर्णन किया है। वह अविस्मरणीय और अद्भुत है-
जहाँ कुएँ की जगत पर / मेरे घर के सामने
पानी भरने को आती थी/गोरी-साँवरि नारि अनेकों
गोरी रूप कमान समान तने तन वाली
प्रबल प्रेम की करती दृढ़ टंकार थी
और जहाँ मैं रात में / सपने के संसार में
दिन में जिन्हें कुमारी कहता ओर रात में प्रेमिका
जिन्हें अकेला सोता पाकर/मैं बाहों में कस लेता था
ओठों और कपोलों पर चुम्बन लेता था
अपना नाम कुचों पर जिनके / मीठे चुम्बन से लिखता था
जिनकी छाती बड़े से धक् धक् करने लग जाती थी।
ऊपर वर्णित उदाहरणों तथा तथ्यों से स्पष्ट है कि केदारनाथ अग्रवाल सुन्दर रूप और सौन्दर्य से अभिभूत होने वाले कवि हैं। उनमें सुन्दरता और प्रेम के प्रति सहज आकर्षण एवं प्यास है।
केदार बाबू नारी के सौन्दर्य से ही आकर्षित नहीं होते, अपितु प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति भी उनमें अत्यधिक आकर्षण है। इतना ही नहीं, वे तो प्रकृति से ही जीवन जीने की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उन्हीं के शब्दों में-
धूप-छाँह खायी हरियाली/विजय पताका लिये हाथ में
फूलों और फलों की शोभा मेरे साथ में
प्रकृति-प्रेम से मतवाली है/यह हरियाली मुझको प्रिय है
यही मुझे करती है प्रमुदित/यही मुझे रखती है जीवित
प्रकृति के सहवास में ही केदारनाथ अग्रवाल को सुख और सन्तुष्टि मिलती है। इसीलिए वे अपने जीवन की सबसे प्रिय नदी केन के सौन्दर्य को प्रातः से सायंकाल तक देखते रहना चाहते हैं। उसकी बल खाती लहराती लहरों के सौन्दर्य से वे जीवन का सुख प्राप्त करते हैं
सुख तो मैंने जाना
केन किनारे उसे देखता, अरुणोदय के साथ खेलता
दोपहरी की धूप झेलता, सान्ध्य स्वर्ण-श्री दीप लेसता,
गाता निशि का गाना, सुख तो मैंने जाना।
कोई उससे नहीं बोलता, साथ न कोई कभी डोलता
लहरों में पीयूष घोलता, पुलकानिल में पंख तोलता
मिलता है मस्ताना, सुख तो मैंने जाना।
अपने निवास के पड़ोस में बहने वाली केन नदी को माध्यम बनाकर उन्होंने बहुत सारी कविताएँ लिखी हैं।
केदार जी की कविता में मनुष्य और प्रकृति का सहज आत्मीय सम्बन्ध प्रत्यक्ष दिखायी देता है। वे यह स्वीकार करते हैं कि कविताएँ वे ही ज्यादा अच्छी होती हैं जिनमें प्रकृति का सम्बन्ध मनुष्य से जुड़ा होता है। उनकी कवता में प्रकृति-ऊर्जा, उत्साह और जीवनी शक्ति बनकर उभरती है। प्रकृति से उनकी कविताओं को मानवीय स्पर्श मिलता है। यह बात एक ही उदाहरण से स्पष्ट जायेगी-
यह उजियारी रात आज सिंगार किये जो हँसती आयी
धवल चाँदनी जग में जिसकी कोमल सेज बिछाती आयी
जिसे देखते ही मैं रीझा, हुआ रूप का लोभी पागल
गीत सुनाकर गाकर मोहा थाम लिया जिसका प्रिय आँचल
सोई मेरे साथ प्रेमिका होकर मेरे सुख से सोई
खुले वक्ष अंगों से जिसके मिलकर जीवन सीमा खोई ।
स्पष्ट है कि कवि केदार को इसी प्रकार के जीवन जीते रहने में सुख और आनन्द मिलता है। इसीलिए वे ‘चिरन्तन’ प्रकृति के साथ अत्यन्त आत्मीय ढंग से सम्बद्ध होकर अपनी रचनाओं में उसे व्यक्त कर देते हैं।
कवि केदार की कविताओं में प्रकृति लोकजीवन का सौन्दर्य लेकर उपस्थित होती है। एक उदाहरण देखें-
धीरे-धीरे पाँव धरा धरती पर किरनों ने
मिट्टी पर दौड़ गया लाल रंग तलुओं का
छोटा-सा गाँव हुआ केसर की क्यारी सा
कच्चे घर डूब बये कंचन के पानी में
डालों की डोली में लज्जा के फूल खिले
ऊषा ने मस्ती से फूलों को चूम लिया
गोरी ने गीतों से सरसों की गोद भरी
भौंरों ने गोरी के गालों को चूम लिया ।
कवि केदार के लिए प्रकृति-वर्णन केवल शौक या कविता लिखने का माध्यम भर नहीं है। वह उनके जीवन का प्रेरक तत्त्व है। कहीं-कहीं तो उन्होंने प्रकृति का बड़ा उत्तेजक और शृंगारी रूप प्रस्तुत करके पाठक को चकाचौंध कर दिया है
नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है
जो एक पहाड़ से मैदान में आयी है।
जिसकी जाँघ खुली/और हंसों से भरी है
जिसने बला की सुन्दरता पायी है
पेड़ हैं कि इसके पास ही रहते हैं।
झुकते, झूमते, चूमते ही रहते हैं।
जैसे बड़े मस्त नवजवान लड़के हैं।
केदारनाथ अग्रवाल अक्सर प्रकृति में भी नारी की भाँति सुन्दरता और संयोग का अनुभव करते हैं। तभी तो वे लिखते हैं कि-
हे मेरी तुम सोई सरिता / उठो और लहरों से नाचो
तब तक, जब-तक/आलिंगन में नहीं बाँध लूँ
और चूम लूँ तुमको/मैं मिलने आया बादल हूँ।
प्रकृति के प्रति ऐसा अनुराग होने के कारण ही वे लिखते हैं कि मृत्यु के बाद भी वे इस देश से दूर नहीं हो पायेंगे। प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से ही वे इस देश में उपस्थित होकर उसकी शोभा बढ़ायेंगे। यहाँ मनुष्य का साथ मार्क्सवादी चिन्तन के अनुरूप वर्णित हुआ है-
मर जाऊँगा तब भी तुमसे दूर नहीं हो पाऊँगा
मेरे देश, तुम्हारी छाती की मिट्टी में ही जाऊँगा
मिट्टी की नाभी से निकला मैं बह्मा होकर आऊँगा
गेहूँ की मुट्ठी बाँधे मैं खेतों-खेतों छा जाऊँगा।
और तुम्हारी अनुकम्पा से पककर सोना हो जाऊँगा ।
मेरे देश, तुम्हारी शोभा मैं सोना से चमकाऊँगा ।
इस तरह प्रकृति और सामाजिक दृष्टि से संयुक्त केदार की कविता स्वाभाविक रूप से मानवतावाद की व्यापक चेतना से ओतप्रोत हो जाती है। उपर्युक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट है कि प्रकृति की अक्षय और असीम सौन्दर्यराशि में कवि को नदी, बादल, सरिता, सागर, हवा, पानी, पेड़-पौधे आदि से ज्याद लगाव है। वास्तव में कवि ने अपने जो भी विचार प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त किये हैं वे साकार रूप में पाठक के अन्तर्मन में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
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