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केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिवादी कवि हैं।
केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिवादी कवि हैं। उनकी रचनाओं में उनका मार्क्सवादी चिंतन व्यक्त हुआ है। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण मार्क्सवादी है। केदार जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि जीवन की पहचान मुझे मार्क्सवाद ने करायी। मार्क्सवाद ने बताया कि जीवन क्या है ? उसका उद्देश्य क्या है ? मार्क्सवाद का पहला उद्देश्य जन-सामान्य की मंगलकामना है। अतः मार्क्सवादी केदारनाथ अग्रवाल की कविता एकमात्र लोकमंगल की भावना से अपने को जोड़कर चलती है।
कविता में लोकमंगल का अर्थ है मानव-कल्याण, जिसमें शोषित-दलित, किसान मजदूर, दीन-दुःखी सबके कल्याण की चिन्ता कवि का मुख्य लक्ष्य होता है। कवि केदारनाथ अग्रवाल प्रत्येक श्रमरत कामगार की कल्याण की कामना करते हैं। ऐसे ही वर्ग के बल पर उनकी कविता का साम्राज्य खड़ा हुआ है। लोकबल ही उन्हें और उनकी कविताओं को शक्ति सम्पन्न बनाता है। वे साफ-साफ लिखते हैं कि-
मुझे प्राप्त है जनता का बल/वह बल मेरी कविता का बल
मैं उस बल से/ शक्ति प्रबल से/एक नहीं सौ साल जिऊँगा
मैं उस स्वर से / काव्य-प्रखर से/युग-जीवन के सत्य लिखूँगा।
मानव द्वारा मानव को शोषित होता हुआ देखकर उन्हें बड़ी पीड़ा होती है। उनका यह लिखना इस बात का गवाही है कि-
वही कर्ज है/ वही सूद है/ वही जमींदारी का छल है
मानव से मानव शोषित है।
वे शोषित जन को सलाह देते हैं कि वह शोषक, आततायी और पूँजीपति का विरोध करें। शोषण और अन्याय के विरुद्ध तनकर खड़ा होने और लड़ने के लिए सामान्यजन को केदार का कवि उकसाता है। कवि द्वारा लिखित कविता की ये पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है-
(1) काटो काटो काटो करबी/मारो मारो मारो हंसिया
हिंसा और अहिंसा क्या है/जीवन से बढ़ हिंसा क्या है।
(2) पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा
वह पत्थर जो राह रोककर पड़ा हुआ है
जो न टूटने के घमंड में अड़ा हुआ है
जो न प्रार्थना और प्रेम से/एक इंच भी न डिगा है
जिसकी ठोकर खाते-खाते / इंसानों की टुकड़ी टूटी
जो केवल जीवन विरोध है/मार्ग रोक है
उस पर अपना लोहा मारो/बारम्बार तड़ातड़ मारो
जिससे वह जल्दी से टूटे/आशा उसके टुकड़े लेकर
उनसे ऊँचे भवन बनाये।
जनहित की कामना करने वाले केदारनाथ अग्रवाल शोषक का साम्राज्य खत्म करने का संकल्प लेते हैं और लिखते हैं-
हँसते-हँसते/नयी शपथ यह प्रथम करेंगे
शोषक का साम्राज्य हरेंगे/जनवादी सरकार करेंगे।
उन्हें विश्वास है कि शोषण और अत्याचार उत्पीड़न का यह क्रम एक न एक दिन अवश्य समाप्त हो जायेगा। इसीलिए समाज में व्याप्त असमानता के लिये जिम्मेदार पूँजीवादी वर्ग के नाश के लिए वे अपनी कविता को औजार के रूप में इस्तेमाल करते हैं-
मिलों के मालिकों को/अर्थ के पैशाचिकों को
भूमि को हड़पे हुए धरणीधरों को
मैं प्रलय के साम्यवादी आक्रमण से मरता हूँ।
केदारनाथ अग्रवाल की कविता श्रम को बड़ा महत्त्व देती है। वे कर्मठ और श्रम करने वाले आदमी की जिन्दगी को ही बढ़िया और सार्थक मानते हैं-
जीना वही/जीना है/ सत्कर्मी
देह का जो/निकला पसीना है/और तना सीना है।
परिश्रम से जी चुराने वाले को वे आलसी, कामचोर समझते हैं और उसके प्रति घृणा व्यक्त करते हुए उसे डाँगर कहते हैं-
ये कामचोर/आरामतलब/मोटे तोंदियल भारी-भरकम
हट्टे-कट्टे / सब डाँगर ऊँघा करते हैं
हम चौबीसों घंटे हँफते हैं।
केदारनाथ अग्रवाल की निगाह में आधुनिक चकाचौंध और सुविधाभोगी सभ्यता का आधार मजदूर है किन्तु इस मजदूर को सभ्य आदमियों के समाज ने चूस लिया है। कवि की ये पंक्तियाँ इस बात की गवाही देती हैं-
घाट, धर्मशाला, अदालतें / विद्यालय, वेश्यालय सारे
होटल, दफ्तर, बूचड़खाने / मन्दिर, मस्जिद, हाट, सिनेमा
श्रमजीवी की उस हड्डी से/टिके हुए हैं जिस हड्डी को
सभ्य आदमी के समाज ने/ टेढ़ी करके मोड़ दिया है।
लेकिन यह कामगार-मजदूर फौलाद बन गया है। आधुनिक सभ्य किन्तु पूँजीवादी शोषक इस श्रमिक मजदूर का बाल भी बाँका नहीं कर सकता है। केदारजी इस बात को जानते हैं, तभी तो वे लिखते हैं कि-
जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है
तूफानों से लड़ा और बड़ा हुआ है
वह जन मारे नहीं मरेगा / नहीं मरेगा।
केदानाथ अग्रवाल किसान संस्कृति के कवि हैं। डॉ. रामविलास शर्मा का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “केदार की चेतना मूलतः किसान की चेतना है।” वास्तव में केदार अग्रवाल की बहुसंख्यक कविताओं में किसान और उनके गाँव छाये हुए हैं। उनके अनुसार यह धरती, यह पृथ्वी, यह सब केवल किसान की है, जो उसे बोता जोतता, सींखता और काटता है-
यह धरती है उस किसान की / जो मिट्टी का पूर्ण पारखी
जो मिट्टी के संग साथ ही / तपकर गलकर जीकर मरकर
खपा रहा है जीवन अपना/देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना
यह धरती है उस किसान की।
केदारनाथ अग्रवाल के कवि में गाँव के प्रति जो प्रेम और लगाव है, जो अनायास खिंचाव है, उसका कारण है गाँव में स्वयं उनका पैदा होना। पेशे-व्यवसाय के लिए मजबूरन शहर में रहते हुए भी वे सदैव अपने गाँव की चेतना से जुड़ा हुआ ही मानते हैं, अपने को गँचई गाँव से ही जोड़ते हैं-
गाँव अब भी मुझे बुलाता है
रेडियो की तरह बज उठता हूँ मैं उसकी पुकार पर
लेकिन जा नहीं पाता/पेट में कैद हूँ।
उपर्युक्त सम्पूर्ण विवरण से स्पष्ट है कि केदार बाबू सामान्य जन के कवि हैं। ये जनकवि हैं। उनकी कविताओं का बहुत बड़ा हिस्सा किसान, श्रमिक, मजदूर, गाँव, शोषित एवं प्रताड़ित को समर्पित है।
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