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गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष और आधुनिक युग में इसकी प्रासंगिकता

गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष

गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष और आधुनिक युग में इसकी प्रासंगिकता (Merit and Demerit of Gurukul Education System and its Relevance in Modern Age)

प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के अपने कतिपय गुण थे परन्तु इसके साथ ही आधुनिक युग में उसके कुछ दोषों का भी उल्लेख कर देना आवश्यक है। प्राचीन गुरुकुल प्रकृति के स्वच्छन्द्र वातावरण में होते थे। गुरु और शिष्य के सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ थे कि किसी तरह की अनुशासनहीनता की भावना उत्पन्न नहीं होती थी। शिक्षा का सार्वभौमिक रूप देखने को मिलता था। उसका स्वरूप धर्म से अनुप्राणित था। गुरु और शिष्य के जो आदर्श थे, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। विद्यार्थी जीवन में स्वाध्याय पर अधिक बल दिया जाता था शिक्षा बाह्य नियन्त्रण से पूरी तरह से मुक्त थी। शिक्षा में मानवीय गुणों के सर्वांगीण विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था और इस दृष्टि से गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था एक आदर्श शिक्षा व्यवस्था थी।

उपर्युक्त गुणों के बावजूद यह स्वीकार करने में किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं है कि जिस धार्मिक भावना से युक्त यह शिक्षा व्यवस्था थी उसे अपनाना अत्यन्त कठिन था। गुरु-शिष्य के प्रगाढ़ सम्ब धों की बात तो की जा सकती है परन्तु जिस आदर्शमय जीवन की परिकल्पना गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत की गयी है, उसकी सम्भावना आधुनिक युग में तो बिल्कुल नहीं है। शिक्षा पद्धति का जो रूप प्रचलित था, यदि उसी को अपना लिया जाय तो ज्ञान-विज्ञान का जो विस्फोट हो रहा है वह कठिन हो जाएगा। आधुनिक भौतिकवादी युग में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को पूर्णतः अपना लेना भी समीचीन नहीं होगा।

इन दोषों के बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि गुरुकुल शिक्षा, शिक्षा व्यवस्था की एक आदर्श शिक्षा व्यवस्था थी। यही कारण है कि आधुनिक भारत में भी गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था का रूप गुरुकुल कांगड़ी, गुरुकुल वृंदावन, कन्या गुरुकुल आदि में देखने को मिलता है। गुरुकुल कांगड़ी आधुनिक युग में एक आदर्श विद्यालय बना हुआ है

यहाँ हम आधुनिक युग में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता की विवेचना कर रहे हैं। प्राचीन गुरुकुल शिक्षा के अनेक तत्त्व, जिन्हें सिद्धान्त और व्यवहार दोनों दृष्टियों से आधुनिक शिक्षा में स्थान दिया जा सकता, उनका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है-

(1) धार्मिक भावना का विकास- प्राचीन गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य ईश्वर-भक्ति और धार्मिक भावना का विकास था। गुरुकुलों का सम्पूर्ण वातावरण धर्म-प्रधान था और विद्यार्थी धर्मानुकूल आचरण करते थे। प्रातःकाल और सायंकाल अग्निहोत्र एवं ईश प्रार्थना करते थे, धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते थे और व्रतों का पालन करते थे। इस प्रकार गुरुकुल शिक्षा धार्मिक भावना के विकास में पूर्ण रूप से सफल रही।

(2) चरित्र निर्माण- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों और उनके माध्यम से सम्पूर्ण समाज का चरित्र निर्माण करने में सफल रही। विद्यार्थी- ब्रह्मचर्य, संयमित और स्वानुशासित जीवन व्यतीत करते थे। उनका आदर्श सादा जीवन और उच्च विचार था। इन्द्रिय निग्रह, सहिष्णुता, परोपकार, आज्ञा पालन, विनम्रता, स्वावलम्बन और अध्यवसाय एवं कर्त्तव्य पालन के गुणों से उन्हें अभिभूत किया जाता था।

(3) आदर्शवादिता- आधुनिक युग में भी अपने पूर्वजों से जो सभ्यता और संस्कृति विरासत में मिली है, उस पर हमें गर्व है। हम आज भी धर्म, ईश्वर भक्ति और निष्काम कर्म को महत्त्व प्रदान करते हैं। आज भी धन की अपेक्षा चरित्र को, भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को और विज्ञान की अपेक्षा दर्शन को श्रेष्ठ माना जाता है। आज जब सम्पूर्ण संसार, धन, शक्ति, हिंसा, कूटनीति में आस्था रखता है हम प्रेम, सत्य, अहिंसा, त्याग और तपस्या के सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि हम आज भी अपने आदर्शवादिता को नहीं भूले हैं, जिसका ऋषियों ने हमारे मन-मस्तिष्क में किया था। इस प्राचीन आदर्शवादिता को आधुनिक शिक्षा में स्थान दिया जा सकता है और दिया भी जाना चाहिए। डॉ० महेशचन्द्र सिंघल ने अपनी पुस्तक “भारतीय शिक्षा की वर्तमान समस्याएँ’ में लिखा है- “हम प्राचीन गुरुकुल शिक्षा की आदर्शवादिता को आधुनिक शिक्षा के एक मूल सिद्धान्त के रूप में ग्रहण कर सकते हैं और जीवन निर्माण, चरित्र-निर्माण एवं सादा-जीवन उच्च विचार को शिक्षा के महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों में स्थान दे सकते हैं।”

(4) शान्त वातावरण- प्राचीन गुरुकुल, नगर के कोलाहल एवं विषाक्त वातावरण से दूर किसी शान्त एवं रमणीय स्थान पर होते थे। आधुनिक युग में नगरीकरण के प्रभाव के फलस्वरूप सभी लोगों में नगरों में निवास करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और इस स्थिति में शिक्षण संस्थाओं की नगरों से पृथकता सम्भव नहीं है, किन्तु फिर भी विद्यालयों का निर्माण नगरों के कोलाहल एवं गंदगी से दूर किसी शान्त, स्वच्छ एवं प्राकृतिक विकास में योगदान देंगी बल्कि उनकी नगरों के दिन-प्रतिदिन के झगड़ों, राजनीतिक कुचक्रों एवं अवांछित प्रवृत्तियों से रक्षा भी करेंगी।

(5) अध्ययन के विषय- आधुनिक भारतीय शिक्षा में अनेक विषयों को स्थान दिया गया है किन्तु संस्कृत की प्रायः उपेक्षा की गयी है। वास्तव में संस्कृत भाषा एवं साहित्य में शान्ति, मानवता एवं विश्व कल्याण की ऐसी अमूल्य निधियाँ विद्यमान हैं जिन्हें केवल भारत के ही पाठ्यक्रम में ही नहीं बल्कि विश्व के समस्त देशों के पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था से ऐसे अनेक तत्त्व ग्रहण किये जा सकते हैं जो आधुनिक भारत के नैतिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उत्कर्ष में विशेष योगदान दे सकते हैं। डॉ० महेशचन्द्र सिंघल ने लिखा है- “यदि इन बातों की उपेक्षा की जाती है तो भारतीय शिक्षा पाश्चात्य शिक्षा का थोथा अनुकरण मात्र रह जायेगी जिसमें मौलिकता की झलक नहीं मिल सकेगी।”

(6) शिक्षण विधि एवं शिक्षा सिद्धान्त- गुरुकुल व्यवस्था की शिक्षण विधि के अन्तर्गत श्रवण, मनन, चिन्तन, स्मरण, प्रवचन, प्रश्नोत्तर, व्याख्यान, वाद-विवाद आदि का प्रयोग होता था। ये शिक्षण विधियाँ आधुनिक युग में भी विभिन्न विषयों के पठन-पाठन में प्रासंगिक हैं और अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

(7) अनुशासन तथा गुरु-शिष्य सम्बन्ध- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में अनुशासन एवं गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर विशेष बल दिया जाता था। आधुनिक युग में भी इन बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि शैक्षिक वातावरण अत्यन्त दूषित हो चुका है और चारों ओर अनुशासनहीनता का साम्राज्य व्याप्त है। छात्रों में अनुशासन की भावना तथा गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था द्वारा गुरु-शिष्य सम्बन्धों की पुनर्स्थापना के द्वारा ही दूषित वातावरण से मुक्ति प्राप्त जा सकती है।

(8) छात्रों का सरल जीवन- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में छात्र सादा, सरल एवं संयमित जीवन व्यतीत करते थे। आधुनिक युग भारत में उनका जीवन भले ही पूरी तरह से अनुकरणीय न हो किन्तु वह ग्रहणीय अवश्य है। आधुनिक युग में छात्रों के जीवन में आमूल परिवर्तन हो चुका है। उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य शिक्षा प्राप्त करना नहीं बल्कि हड़ताल करना, सिनेमा देखना, अश्लील साहित्य पढ़ना, विलासिता की सामग्री का प्रयोग करना और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करना हो गया है। इन परिस्थितियों में प्राचीन गुरुकुल के छात्र जीवन के उदाहरण को आज भी छात्रों के सम्मुख रखकर उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जा सकता है। डॉ० महेशचन्द्र सिंघल ने लिखा है- “सिद्धान्त रूप में हमें इतना तो मानना ही चाहिए – कि आज भले ही सिर मुँड़ाने, लँगोटी बाँधने और स्त्री जाति के सदस्यों के दर्शन मात्र से बचकर रहने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु सादा और संयमित जीवन, नियमित दिनचर्या और दुर्व्यसनों से बचकर रहना वांछनीय है।”

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक युग में भी गुरुकुल व्यवस्था की प्रासंगिकता बनी हुई है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या आज के भौतिकवादी युग में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता बनी हुई है और आज के समय में वह उपयोगी भी है।

यह ठीक है कि आधुनिक युग में शिक्षा का स्वरूप इतना अधिक भौतिकवादी हो गया है कि गुरुकुल शिक्षा की सभी बातों को अपनाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, परन्तु गुरुकुलों की प्रासंगिकता की अवहेलना नहीं की जा सकती। आज भले ही गुरुकुल की उतनी उपयोगिता न हो या उस ढंग के गुरुकुलों की स्थापना सम्भव न हो जिस प्रकार के प्राचीन काल में थे, किन्तु उनकी मौलिक अवधारणा आज भी प्रासंगिक और उपयुक्त है। इस बात से कोई भी इन्कार नहीं करता कि छात्रों को एक साथ रखकर उमें सामूहिकता और सहयोग की भावना का विकास किया जाना चाहिए, उनको नियमित कार्यक्रम के आधार पर पढ़ाया जाना चाहिए, उनका शारीरिक विकास किया जाना चाहिए। ऐसे विद्यालयों में ऐसा सम्भव नहीं है जो 10 बजे आरम्भ होते हैं और 4 बजे समाप्त हो जाते हैं, अथवा प्रातःकाल 7 या 8 बजे आरम्भ होते हैं और अपराह्न 1 या 2 बजे समाप्त हो जाते है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सघन शारीरिक, मानसिक और भौतिक शिक्षा केवल गुरुकुल में अथवा वैदिक विद्यालयों में ही सम्भव है। यह अलग बात है कि इस प्रकार के विद्यालय सभी विद्यार्थियों के लिए स्थापित किए जा सकते हैं अथवा नहीं ? दूसरी ओर इस दर्शन अथवा विचारधारा की उपयोगिता और प्रासंगिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

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shubham yadav

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