राजनीति विज्ञान (Political Science)

तुलनात्मक राजनीति में मैकियावेली का योगदान | Machiavelli’s Contribution to Comparative Politics in Hindi

तुलनात्मक राजनीति में मैकियावेली का योगदान
तुलनात्मक राजनीति में मैकियावेली का योगदान

तुलनात्मक राजनीति में मैकियावेली का योगदान

अरस्तू के बाद कई शताब्दियों तक तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुईं आधुनिक युग के आरंभ में जब इतालवी राजनीति दार्शनिक निकोली मेकियावेली (1469 1527) ने शासन की कला (Art of Government) पर अपने विचार प्रस्तुत किए तो उसने तुलनात्मक राजनीति की दृष्टि से भी कुछ महत्वपूर्ण संकेत दिए। उसने यह सुझाव दिया कि किसी देश के लिए उपयुक्त शासन प्रणाली का निर्णय करते समय वहां के लोगों के चरित्र (Character) को ध्यान में रखना चाहिए। ‘डिस्कोर्सेज ऑन लिवो’ (लिवी पर वार्ताएं) (1513) के अंतर्गत मेकियावेली ने यह मान्यता रखी कि जिस देश के लोग सच्चरित्र हों, उसके लिए गणतन्त्र उपयुक्त होगा क्योंकि वही सर्वोत्तम शासन प्रणाली है। परंतु जिस देश के लोग नितांत स्वार्थी और लालची हों, उन्हें वश में रखने के लिए राजतंत्र (Monarchy) का सहारा लेना चाहिए। फिर, ‘दि प्रिंस’ (नृपति) (1513) के अंतर्गत मेकियावेली ने उन सब युक्तियों का विवरण दिया जो राजतंत्र के अंतर्गत कुशल शासक को अपनानी चाहिए।

मेकियावेली के इस विश्लेषण को तुलनात्मक राजनीति के इतिहास में विशेष महत्व दिया जाता है। संक्षेप में, मेंकियावेली ने तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में दो तरह से महत्वपूर्ण योग दिया : (क) उसने लोगों के चरित्र और उपयुक्त शासन प्रणाली में सहसंबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया, और (ख) उसने राजतंत्र के प्रबंध को अधिक कठिन मानते हुए इसकी समस्याओं पर विस्तृत विचार किया। इन्हें सुलझाने के लिए उसने विभिन्न नीतियों और युक्तियों का लागत लाभ विश्लेषण प्रस्तुत किया, और इटली के भावी नृपति को सबसे लाभदायक नीति अपनाने की सलाह दी।

मेकियावेली ने लिखा है कुशल नृपति को अपने अंदर शेर और लोमड़ी दोनों के गुण पैदा करने चाहिए। शेर बहुत बहादुर होता है, परंतु वह फंदे में फँस जाने पर बाहर नहीं निकल पाता। लोमड़ी बहुत चालाक होती है, परंतु वह भेड़ियों से अपने आपको नहीं बचा पाती। नृपति को फंदे से बाहर निकलने के लिए लोमड़ी-जैसा चतुर होना चाहिए, और भेड़ियों को भगाने के लिए शेर जैसा बहादुर होना चाहिए। यदि सब मनुष्य चरित्रवान होते तो नृपति को कोई चाल चलने की जरूरत नहीं थी। पर चूंकि मनुष्य साधारणतः कृतघ्न, सनकी, धूर्त, डरपोक और लालची होते है, इसलिए उनके मन में भय पैदा करके उन्हें वश में करना चाहिए प्रीति जगाकर नहीं। मेकियावेली के शब्दों में, ” लोग अपने पिता की मृत्यु को जितनी जल्दी भूल जाते हैं, पैतृक संपत्ति की हानि को उतनी जल्दी नहीं भूल पाते।” ऐसे लोगों के साथ व्यवहार करते समय नृपति को केवल सच्चरित्रता का ढोंग करना चाहिए। समय आने पर उसे अपना वचन तोड़ने का कोई अच्छा सा बहाना ढूंढ़ लेना चाहिए। लोमड़ी के खेल में जो खिलाड़ी सबकी आंखों में धूल झोंक सकता है, वहीं मैदान मार लेता है।

मैकियावेली के बाद शासन प्रणालियों के विश्लेषण के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण योगदान अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी दार्शनिक चार्ली द मांतेस्क्यू (1689-1759) हैं मांतेस्क्यू के जमाने तक आते-आते कई तरह की नई शासन प्रणालियां अस्तित्व में आ गई थीं जो आकार में बड़ी और जटिल थीं, और नई मूल्य प्रणालियों पर आधारित थी। पुराने नगर-राज्यों की जगह अब नए राष्ट्र राज्यों का उदय हो चुका था। इन्हीं परिवर्तित परिस्थितियों के संदर्भ में मातेस्क्यू ने अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया।

अपनी अमर कृत्ति ‘द स्पिरिट ऑफ द लॉज’ (कानून की मूल चेतना) (1748 ) के. अंतर्गत मांतेस्क्यू ने तीन प्रकार की शासन प्रणालियों का विवरण दिया है। इस वर्गीकरण के दो आधार है: (क) शासन की प्रकृति, अर्थात प्रभुसत्ता का सूत्र किस व्यक्ति या समूह के हाथों में है? और (ख) शासन का सिद्धान्त, अर्थात् शासन को सुदृढ़तम और सर्वोत्तम बनाने के लिए शासक किस भावना से अनुप्राणित होता हैं? यदि शासन सुचारू रूप से चल रहा है तो जो विधायक (अर्थात् शासक) प्रचलित शासन-सिद्धांत का उल्लंघन करता है वह क्रांति को बुलावा देता है। दूसरी ओर, यदि शासन अपने मूल सिद्धांत से हट जाने के कारण स्वयं कमजोर हो गया है तो उसे कोई श्रेष्ठ विधायक ही बचा सकता है और उसे फिर से सुदृढ़ कर सकता हैं।

शासन प्रणालियों के तीन मुख्य रूप ये है : (1) गणतंत्र, (2) राजतंत्र, और (3) निरंकुश तंत्र। इनमें पहली दो उत्कृष्ट शासन-प्रणालियां है, तीसरी निकृष्ट है। गणतंत्र में प्रभुसत्ता पूरे जन समुदाय या किन्ही परिवारों के हाथ में रहती हैं इसका मूल सिद्धांत सद्गुण या सदाचार है। मांतेस्क्यू ने इसकी दो उपश्रेणियां स्वीकार की है: (क) लोकतंत्र और (ख) अभिजाततंत्र। लोकतंत्रों के उदाहरण प्राचीन यूनान और रोम में मिलते है जहां प्रभुसत्ता संपूर्ण जन समुदाय के हाथों में रहती थी। इसके गुण है: देश-प्रेम, समानता में विश्वास और सर्व-हित के लिए व्यक्तिगत सुख के त्याग की भावना अभिजाततंत्र का उदाहारण तत्कालीन वेनिसं गणराज्य था जहां प्रभुसत्ता का सूत्र अभिजात वर्ग ने सँभाल रखा था। इसका आवश्यक गुण है: शासक वर्ग के सदस्यों के व्यवहार और आकांक्षाओं में संयम की प्रधानता।

राजतंत्र के अंतर्गत कोई राजा या नृपति प्रचलित कानूनों के अनुसार शासन चलाता है। ये कानून राजशक्ति के प्रयोग के लिए उपयुक्त प्रणाली का सृजन करते है। उदाहरण के लिए, यहां अभिजातवर्ग स्थानीय न्याय का प्रवर्तन करता है: संसद के सदन राजनीतिक कार्य संपन्न करते है पुरोहितवर्ग के अधिकारों को मान्यता दी जाती है; और नगरों की ऐतिहासिक विशेषाधिकार प्राप्त होते है। राजतंत्र का मूल सिद्धांत सम्मान है, अर्थात् इसमें इने-गिने सुयोग्य लोगों को विशेष महत्व दिया जाता है। मांतेस्क्यू के समकालीन फ्रांस और अन्य कई यूरोपीय देशों में यही प्रणाली प्रचलित थी। राजतंत्र की एक खूबी यह है कि इसमें राजमुकुट तथा सर्वसाधारण के बीच मध्यवर्ती समूह अपना काम करते है। यह भूमिका कुलीनवर्ग निभाता है । यदि यह मध्यवर्ती समूह विद्यमान न हो तो राजतंत्र राजतंत्र नहीं रहेगा, वह निरंकुशतंत्र बन जाएगा।

निरंकुशतंत्र एक व्यक्ति का शासन है जो केवल अपनी इच्छा और चंचल-वृत्ति के काम लेता है, वह किन्ही कायदे-कानूनों से नहीं बंधा होता। इसका मूल सिद्धांत भय है। इसमें कोई ऐसे गुण नहीं पाए जाते जो इसकें अवगुणों को प्रतिसंतुलित कर सकें। यह किन्हीं मध्यवर्ती शक्तियों का सहन नहीं करता। यदि कहीं कोई शक्ति इसे संगत कर सकती है तो वह धर्म की शक्ति हैं। निरंकुंशतंत्र के अतंर्गत सत्ता के प्रति कोई चुनौती सहन नहीं की जाती बल्कि चुपचाप उसके आदेशों का पालन करना अनिवार्य होता है। शिक्षा इस ढंग से दी जाती है जिससे लोग शासक के आज्ञाकारी बन सकें। ऐसी कोशिश की जाती है कि जनसाधारण जाहिल, डरपोक, कायर और दब्बू बने रहें। लोगों में परस्पर सम्मान की भावना को बढ़ावा नहीं दिया जाता बल्कि उन्हें तलवार के साए में जीना सिखाया जाता है। मांतेस्क्यू के विचार से निरंकुशतंत्र में विद्रोह की भावना इसलिए नही पनप पाती क्योंकि बड़े-बड़े साम्राज्यों के शासन को प्रभावशाली बनाने का और कोई तरीका नहीं है। निरंकुशतंत्र मनुष्य के मनोवेगों के सहारे चलता है जो कि सर्वत्र पाए जाते हैं।

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shubham yadav

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