राजनीति विज्ञान (Political Science)

तुलनात्मक राजनीति में मोंटेस्क्यू का योगदान | Montesquieu’s Contribution to Comparative Politics in Hindi

तुलनात्मक राजनीति में मोंटेस्क्यू का योगदान
तुलनात्मक राजनीति में मोंटेस्क्यू का योगदान

तुलनात्मक राजनीति में मोंटेस्क्यू का योगदान

संविधानवाद के क्षेत्र में मोंटेस्क्यू का योगदान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उसने लिखा है कि मनुष्य सब जगह मनोवेगों के वश में हो जाते है जिससे निरंकुशतंत्र की स्थापना की संभावनाएं बढ़ जाती है। अतः निरंकुशतंत्र के विकल्प स्थापित करना सचमुच कठिन है। ‘स्वतंत्र’ शासन प्रणाली स्थापित करने के लिए विलक्षण प्रतिभा और निपुणता अपेक्षित हैं। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि राजनीतिक शक्तियों को संयुक्त कैसे किया जाए, उन्हें नियमों के अधीन कैसे रखा जाए उन्हें संयत कैसे किया जाए? मांतेस्क्यू को तत्कालीन इंग्लैण्ड की शासन प्रणाली में से सारी विशेषताएं दिखाई दीं। अतः उसने इसे एक आदर्श प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया।

मोंटेस्क्यू से पहले अंग्रेज दार्शनिक जॉन लॉक ने शासन की कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शक्तियों में अन्तर स्पष्ट किया था। मांतेस्क्यू ने इससे आगे बढ़कर इन शक्तियों के पार्थक्य को स्वतंत्रता की जरूरी शर्त के रूप में सामने रखा। उसने तर्क दिया कि जब विधायी शक्ति कार्यकारी शक्ति के साथ मिला दी जाती है, या न्यायिक शक्ति विधायी शक्ति के साथ मिला दी जाती है, तब स्वतंत्रता लुप्त हो जाती है। अतः उसने यह मांग की कि” (एक) शक्ति को (दूसरी) शक्ति पर रोक लगानी चाहिए।” इस तरह मांतेस्क्यू ने सीमित शासन के सिद्धांत की नींव रखी।

मोंटेस्क्यू के आलोचकों ने संकेत किया है कि उसने इंग्लैण्ड के संविधान को समझने में भूल की क्योंकि उपर्युक्त बातें इंग्लैण्ड के (अलिखित) संविधान की विशेषताएं भी ही नहीं। परंतु यह बात महत्वपूर्ण है कि 1787 में जब संयुक्त राज्य अमरीका में पहला-पीला लिखित संविधान बनाया गया, तब वहां नागरिकों की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए ‘शक्ति पार्थक्य’ के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप देने का प्रयत्न किया गया जो मांतेस्क्यू की देन था। यही कारण है कि अमरीकी संविधान का मूल ढांचा ब्रिटिश संविधान के ढांचे से भिन्न है हालांकि दोनों का ध्येय नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना है। देखा जाए जो इग्लैण्ड के संविधान के संदर्भ में मांतेस्क्यू ने ‘शक्ति पार्थक्य’ का जो सिद्धांत प्रस्तुत किया है, वह समाजवैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक सार्थक था; शासन के ढांचे के विवरण के लिए वह उतना सार्थक नहीं था। इंग्लैण्ड में ‘राजतंत्र’ और ‘जनसाधारण’ के बीच एक प्रभावशाली मध्यवर्ती समूह ‘कुलीनवर्ग’ के रूप में विद्यमान था जो अनने हितों पर आंच आते देखकर शासन की इच्छा का विरोध करने या उससे बातचीत चलाने में संघर्ष था। जहां कुलीनवर्ग के प्रतिनिधित्व के लिए लार्ड सभा संगठित थी, वहां जनसाधारण के प्रतिनिधित्व के लिए कॉमन्स -सभा विद्यमान थी। लगता है, समाज के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के साथ मिला दिया।

देखा जाए तो मोंटेस्क्यू ने यह पता लगाने की कोशिश की कि किसी समाज में प्रचलित शासन-प्रणाली उस समाज के चरित्र के साथ किस तरह जुड़ी रहती है? इस प्रयास से तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण का पूर्व संकेत मिलता है। परंतु परवर्ती लेखक मांतेस्क्यू के प्रयास को तर्कसंगत परिणाम तक पहुँचाने में विफल रहे। उन्होंने अपना ध्यान शासन के विभिन्न अंगों की शक्तियों और उनके परस्पर कानूनी संबंधों के विश्लेषण तक सीमित रखा। यह प्रवृत्ति तुलनात्मकं राजनीति के कानूनी-औपचारिक उपागम के रूप में अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँची। उदाहरण के लिए, जब हम शासन प्रणालियों के एकात्मक और संघात्मक तथा संसदीय और अध्यक्षीय रूपों में अंतर करते है, तब हम यही उपागम अपनाते है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जेम्स ब्राइस और के.सी.ह्वीयर ने उस उपागम के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। आज के युग में तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के लिए इस उपागम को अपर्याप्त समझा जाता हैं, परंतु कानूनी, सांविधानिक और संस्थात्मक अध्ययनों में आज भी इसका विस्तृत प्रयोग किया जाता है।

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shubham yadav

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