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क्या निष्पादन न्यायालय डिक्री की पुनः परीक्षा कर सकता है?
क्या निष्पादन न्यायालय किसी डिक्री की वैधता या शुद्धता के प्रश्न का निर्धारण कर सकता है? दूसरे शब्दों में क्या वह डिक्री की गुण-दोष के आधार पर जाँच कर सकता है? यह निष्पादन करने वाले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। वह डिक्री की गुण-दोष के आधार पर जाँच नहीं कर सकता। निष्पादन न्यायालय को डिक्री उसी भाँति लेना चाहिये जिस प्रकार वह उसके सामने प्रस्तुत की गई है। क्योंकि धारा 47 यह मान कर चलती है कि एक वैध डिक्री विद्यमान है। तोपन मल बनाम कुन्डोमल गंगा राम नामक बाद में उच्चतम न्यायलय के निर्णय के अनुसार निष्पादन न्यायालय डिक्री की छानबीन नहीं कर सकता है वह उसकी जाँच नहीं कर सकता।
दूसरे शब्दों में, उसके ऊपर भी सीमायें आरोपित हैं। उसका अधिकार डिक्री में दिये गये निर्देशों तक सीमित है। वह डिक्री की वैधानिकता या सत्यता की जाँच पड़ताल नहीं कर सकता। यह नियम उस सिद्धान्त पर आधारित है कि निर्णय के प्रवर्तन की कार्यवाही निर्णय की एक सम्पाश्विक कार्यवाही है और ऐसे कार्य में निर्णय के नियमितता या सत्यता की जाँच की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अतः निष्पादन न्यायालय को डिक्री का निष्पादन जैसे वह डिक्री है उसी तरह और उसकी शर्तों के अनुसार करना चाहिये। इस धारा के अधीन न्यायालय की शक्तियाँ बिल्कुल भिन्न और अधिक संकुचित हैं वनिस्पत इसकी अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विलोकन की शक्तियों के।
कोई भी निष्पादन न्यायालय पक्षकारों के बाद में विवादग्रस्त अधिकारों पर निर्णय नहीं कर सकेगा क्योंकि इस बात का (पक्षकारों के अधिकारों पर) निर्णय करने का कार्य विचारण न्यायालय का है। ऐसा न्यायालय डिक्री की आलोचना भी नहीं कर सकता और न ही डिक्री की कठोरता के विरुद्ध राहत दे सकता है।
ऐसा न्यायालय पारित डिक्री में न तो कोई चीज जोड़ सकता है न तो उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है। न्यायालय ऐसा कोई अनुतोष प्रदान नहीं कर सकता है जो डिक्री में आसन्न नहीं है। निर्णीत ऋणी के कहने पर निष्पादन न्यायालय डिक्री की तथ्यतः सकता, डिक्री को अवृत्त और शून्य करने के लिये।
लेकिन कोई निष्पादन- न्यायालय डिक्री की निष्पादकता (executability) के प्रश्न की छानबीन कर सकता है और इस बात पर विचार कर सकता है कि क्या पश्चातवर्ती घटनाओं
के नाते डिक्री अपनी शर्तों के अनुसार निष्पादन योग्य नहीं रह गई है। धारा 47 के अन्तर्गत एक आवेदन के माध्यम से यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि एक डिक्री अकृत होने के नाते निष्पादन योग्य नहीं है और न्यायालय ऐसे प्रश्न का विनिश्चय कर सकता है। एक डिक्री जो विधि की दृष्टि में अकृत है वह डिक्री है ही नहीं। अतः पक्षकारों की सहमति के द्वारा भी ऐसी डिक्री का निष्पादन न्यायालय नहीं कर सकता।
क्षेत्राधिकार के विरुद्ध आक्षेप निष्पादन न्यायालय का क्षेत्राधिकार / वैधता के विरुद्ध क्षेत्रीय अधिकारिता का आक्षेप निष्पादन न्यायालय के समक्ष नहीं लाया जा सकता। जहाँ एक डिक्री विधि में परिवर्तन के कारण निष्पादन योग्य नहीं रह गई है और पुनः विधि के परिवर्तन के कारण डिक्री निष्पादन योग्य हो गई है, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने दुलारे लोध बनाम थर्ड एडिसनल जज, कानपुर नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि वहाँ ग्रसन का सिद्धान्त (doctrine of Eclipse) लागू होगा और ऐसी डिक्री का निष्पादन किया जा सकता है।
कोई भी निष्पादन-न्यायालय डिक्री की वैधता को चुनौती नहीं दे सकता, वहीं तक ठीक है जहाँ यह प्रश्न डिक्री के पक्षकारों के बची उठे। परन्तु जहाँ तक तीसरा पक्षकार जिसे निष्पादन के सम्बन्ध में तामील किया गया है वह न्यायालय के समक्ष डिक्री की वैधता का प्रश्न उठाता है, वहाँ निष्पादन न्यायालय के पास अन्तर्निहित (inherent) अधिकारिता प्राप्त है कि वह डिक्री की वैधता के प्रश्न पर निर्णय दे सके। निष्पादन न्यायालय इस प्रश्न पर भी विचार कर सकता है कि क्या कोई डिक्री पारित है भी कि नहीं? हर डिक्री के समर्थन में निर्णय का होना आवश्यक है। अतः जहाँ डिक्री पूर्ण रूप से अकृत (nullity) या शून्य है वहां निष्पादन न्यायालय उसकी अवहेलना कर सकता है।
अपवाद (Exceptions)
उपरोक्त नियम के कुछ अपवाद भी हैं। अतः निम्नलिखित परिस्थितियों में कोई भी निष्पादन न्यायालय डिक्री की शुद्धता या वैधता के प्रश्न पर विचार करने के लिये उस डिक्री की पुनः परीक्षा कर सकता है-
(1) जहाँ कि डिक्री शून्य प्रभावी हो या डिक्री प्रारम्भ से ही शून्य और अकृत हो। निर्णीत ऋणी की यह आपत्ति की डिक्री एक शून्यता है क्योंकि यह एक मृत व्यक्ति के विरुद्ध पारित की गई है, और उसे पारित करने मेंउसका विधिक प्रतिनिधि अभिलेख पर नहीं लाया गया था मानने योग्य आपत्ति है और अगर इसे प्रमाणित कर दिया जाता है तो निष्पादन योग्य कोई डिक्री नहीं रह जाती।
परन्तु जहाँ डिक्री मृत वादी के पक्ष में है (मृत्यु का ज्ञान न होने के कारण) और प्रतिवादी डिक़ी को चुनौती नहीं देता, वहाँ निष्पादन न्यायालय डिक्री का निष्पादन इस आधार पर नहीं अस्वीकार कर सकता है कि डिक्री मृत व्यक्ति के पक्ष में है। ऐसा निर्णय मुद्राम न्यायालय ने अब्दुल अजीज बनाम ध्यानावगियाम्मल नामक बाद में दिया।
(2) जहाँ डिक्री अस्पष्ट या संदिग्ध है या जहाँ डिक्री की बातों का एक से अधिक अर्थ लगाया जा सके। ऐसी अवस्था में डिक्री की जाँच करना और निर्णय तथा अभिवचनों में डिक्री के वास्तविक अर्थ का अभिनिश्चित करना, निष्पादक न्यायालय का कर्त्तव्य है।
(3) जब डिक्री एक ऐसे न्यायालय द्वारा पारित की गई है जिसे डिक्री पारित करने की अधिकारिता नहीं प्राप्त थी। जैसे स्थानीय अधिकारिता ( territorial jurisdiction) या वन सम्बन्धी अधिकारिता (pecuniary jurisdiction)। क्षेत्राधिकार के आधार पर की गई आपत्ति (आक्षेप) भी न्यायलय द्वारा ग्रहणीय होती है, क्योंकि बिना अधिकारिता के पारित की गई कोई भी डिक्री अकृत या शून्य है।
“यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि जो डिक्री बिना अधिकारिता के पारित की जाती हैं, वह अकृत है और ऐसी डिक्री की अविधिमान्यता का प्रश्न कहीं भी और कभी भी उठाया जा सकता है, जहाँ ऐसी डिक्री को प्रवर्तित करने की बात उठायी जाती है या ऐसी डिक्री पर निर्भर हुआ जाता है, यहाँ तक कि निष्पादन के प्रक्रम पर और साम्पाश्विक कार्यवाइयों (collateral proceedings) में भी।
अधिकारिता की त्रुटि चाहे वह धन सम्बन्धी, क्षेत्र सम्बन्धी या विषय-वस्तु सम्बन्धी हो न्यायालय की डिक्री पारित करने की अधिकारिता की जड़ को ही काटती है और ऐसी त्रुटि को पक्षकारों की सहमति से भी ठीक (cure) नहीं किया जा सकता। विधि का यह सिद्धान्त उच्चतम न्यायालय ने किरन सिंह बनाम चमन पासवान नामक वाद में अभिनिर्धारित किया।
(4) जहाँ दो परस्पर विरोधी डिक्री दो सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालयों द्वारा उसी विषय-वस्तु को लेकर पारित की गई है, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि पूर्ववर्ती डिक्री पक्षकारों के बीच के विवाद को पूर्ण रूप से निपटा देती है (decides) और ऐसी डिक्री प्राङ्गन्याय के रूप में प्रयुक्त होगी। पश्चात्वर्ती डिक्री शून्य (nullity) है। उसका विधि में कोई महत्व नहीं है। अतः ऐसी डिक्री निष्पादन योग्य नहीं है और न्यायालय ऐसी डिक्री का पुनः परीक्षण कर सकता है यह निश्चित करने के लिए कि क्या ऐसी डिक्री निष्पादन योग्य है।
यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि जहाँ डिक्री अकृत या शून्य है, वहाँ ऐसी डिक्री प्रलक्षित प्राङ्गन्याय के रूप में लागू नहीं होगी। ऐसा प्रश्न तब उठ सकता है जब डिक्री के निष्पादन सम्बन्धित प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत उठता हो।
यहाँ इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि सभी अनियमित या गलत डिक्री या आदेश अनिवार्य रूप से शून्य और अकृत नहीं होते। एक गलत या अवैध निर्णय जो शून्य नहीं है उसके विरुद्ध निष्पादन या साम्पाश्विक कार्यवाहियों में आक्षेप नहीं उठाया जा सकता। जहाँ निष्पादन समझौते की डिक्री का है, वहाँ पश्चात्वर्ती घटनाओं को नोट किया जा सकता है। उस डिक्री को अनिष्पादन योग्य बनाया जा सकता है और वह भी तब, जब बड़ी लोक हित की घटना अर्न्तवलित हो।
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