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पन्त की काव्ययात्रा के सोपान
छायावादी कवियों में विकास के सोपान जितने स्पष्ट रूप से पन्त जी की कविताओं में दृष्टिगत होते हैं उतने अन्य कवियों में नहीं। इसका कारण विकासमान कवि के विचारों में होने वाला परिवर्तन है जो समय-समय पर उनकी रचनाओं को गहरे स्तर पर प्रभावित करता है। इस दृष्टि से पंत जी की रचनाओं को निम्नांकित क्रम में रखा जा सकता है।
(1) पहला सोपान- पंत जी ने अपनी प्रथम कविता सन् 1907 में लिखी थी। 1907 से 1917 तक इनकी कविताओं का प्रथम सोपान है। इसी बीच इन्होंने एक छोटा सा उपन्यास ‘हार’ लिखा जो साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित हुआ
(2) दूसरा सोपान- 1918 से 1922 ई० तक का समय दूसरे सोपान के अंतर्गत आता है। इसमें ग्रंथ, उच्छ्वास, वीणा, छायण, स्वप्न आदि कविताओं का प्रणयन हुआ। डॉ० रामदेव शुक्ल लिखते हैं-“इस काल के पंत अत्यन्त भावुक, प्रकृति के प्रति अतिरिक्त मोह से ग्रस्त, वयः सन्धि की वायवी प्रेमाकुलता और अप्रकट पीड़ा से छटपटाते कवि के रूप में सामने आते हैं। इसी काल की कविताओं ने सबसे पहले छायावाद के समर्थकों और विरोधियों का ध्यान आकृष्ट किया। इस काल की रचनाओं में प्रकृति के भावुक किशेर के समर्पण का प्रमाण अनेक कविताएँ हैं।” इसी काल की ‘मोह’ कविता में पंत जी लिखते हैं :
“छोड़ दुमो की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया,
बोले, तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूं लोचन,
भूल अभी से इस जग को।”
(3) तीसरा सोपान- पंत जी की रचनाओं का तीसरा सोपान 1922 से 1928 ई० तक है कवि के लिए यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल है। इसी काल में ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ था। डॉ० शुक्ल का कथन है- “1926 ई० में ‘पल्लव’ प्रकाशित हुआ जिसकी लम्बी भूमिका में पंत जी ने प्राचीन ब्रजभाषा – कविता, उनकी भाषा, उसकी अलंकरणप्रियता, छन्दप्रियता और स्त्री-सौंदर्य के प्रति उनकी आसक्ति की भर्त्सना की। उन्होंने भाषा के स्थान पर राष्ट्रभाषा का आह्वान किया। उनकी सबसे बड़ी देन है खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए उसे अधिक अभिव्यंजनात्मक, संकेतात्मक, ध्वन्यात्मक, संगीतपूर्ण और श्रुति मधुर बनाना। इसी बीच ‘पल्लव’ की सभी और ‘गुंजन’ की अधिकांश कविताओं की रचना हुई। पंत जी की प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ प्रतिफलन इन्हीं दोनों संग्रहों की रचनाओं में देखा जा सकता है।
(4) चौथा सोपान- यहाँ तक आते-आते पन्त प्रगतिवादी हो गए हैं। ‘युगान्त’ का प्रकाशन सन् 1936 ई० में हुआ। यह विचित्र बात है कि पन्त के इस रूप को प्रगतिवादी कवियों ने स्वीकार नहीं किया। फिर भी प्रगतिवाद की सुन्दर अभिव्यक्ति इस काल की रचनाओं में हुई है।
(5) अन्तिम सोपान- यहाँ पहुँच कर पन्तजी को योगवादी, दार्शनिक एवं नयी कविता से प्रभावित देखा जा सकता है किन्तु इतना होने पर भी पन्त जी कभी छायावादी काव्यधारा से अलग नहीं हुए। हाँ, इतना अवश्य है कि अन्तिम सोपान में पन्त जी गम्भीर दार्शनिक भावों के कवि-रूप में स्मरणीय हैं। विद्वानों का ऐसा विचार है कि इस क्रम में अरविन्द दर्शन का प्रभाव उन पर सर्वाधिक गहरा है। 1961 में आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
पन्त जी के काव्य-ग्रन्थ निम्नांकित हैं-
वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुन्जन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि मधुज्वाल, युगपथ, उत्तरा, अतिमा, वाणी, कला और बूढ़ा चाँद, अभिषेकिता; लोकायतन, गीतहंस, चित्रांगदा, संयोजिता, पतझर, एक भाव क्रांति, पुरुषोत्तम राम आदि ।
पन्त जी की अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं- (1) हार (उपन्यास), (2) ज्योत्स्ना, रजतशिखर, शिल्पी, उत्तरशती (काव्य-रूपक), (3) मैं और मेरा जीवन, साठ वर्ष : एक रेखांकन (जीवन-चरित्), (4) पांच कहानियाँ (कहानी), (5) शिल्प-दर्शन (कला-समीक्षा), (6) छायावाद : पुनर्मूल्यांकन (साहित्य समीक्षा), (7) कला और संस्कृति, गद्य-पथ (विविध)।
पन्त जी की कविताओं के अनेक संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं। ‘लोकायतन’ के सम्बन्ध में डॉ० शुक्ल लिखते हैं- ‘लोकायतन’ पन्त जी का महाकाव्य जो ‘कविर्मनीषी की अप्रतिम प्रतिभा की प्रतिष्ठा के लिए लिखा गया है। जीवन भर पन्त जी कवि कर्म द्वारा मानवीय कल्याण की चेष्टा में लगे रहे। लोकायतन में कवि के कर्त्तव्य का संकेत देते हुए वे लिखतें हैं-
“कविर्मनिषी का कर्त्तव्य सनातन
जीवन-मंगल का करना सुख-सर्जन।”
लोकायतन में पन्त ने कवि-कर्म को अत्यन्त उच्च भूमिका पर प्रतिष्ठित किया है लोकायतन में दो मुख्य पात्र हैं माधो गुरु और युग कवि वंशी । माधो गुरु वंशी को शिष्यवत् स्वीकार करते हैं, किन्तु शिष्य वंशी को यह लगता रहता है कि-
‘मोहते गुरु रख शत छल वेश/असत् का होता गूढ़ स्वभाव
सरल था वंशी सहृदय प्राण/न मन में था भय द्वेष दुराव
आत्मतन्मयता कवि की शक्ति/ध्यान दल कौशल से कर भंग,
पिलाते उसे अचित-तम घूँट/कपट कर गुरु वंशी के संग ।
माधे गुरु को यह लगता था कि -/”छीनकर उनका कीर्ति-किरीट,
घूमता वंशी बन सम्राट । “
डॉ० रामविलास शर्मा मानते हैं, माधो गुरु निराला हैं और पन्त हैं शिष्य वंशी ।
उपसंहार – प्रस्तुत विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पन्त जी का काव्य-विकास एक निश्चित दिशा में हुआ है तथा उनके काव्य में छायावाद की समस्त विशेषताएं अपने पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित हैं।
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