अनुक्रम (Contents)
पारिवारिक विघटन के कारणों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
पारिवारिक विघटन के कारण- पारिवारिक विघटन का कोई एक कारण न होकर अनेक कारण होते हैं। इस सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने पारिवारिक विघटन के अनेक कारण बताए हैं –
ई.टी. क्रूगर ने पारिवारिक विघटन के निम्नलिखित कारण बताये हैं –
1. सामान्य उद्देश्य का विलीन होना, पारिवारिक उद्देश्यों का स्थान, व्यक्तिगत उद्देश्य द्वारा दिया जाना।
2. सभी सहयोगात्मक प्रयासों का रुक जाना।
3. पारिवारिक सेवाओं का रुक जाना।
4. पति-पत्नी की घनिष्ठता में हास होना।
5. अन्य सामाजिक समूहों के साथ परिवार के बाह्य सम्बन्धों में परिवर्तन होना।
6. पति-पत्नी के भावात्मक मनोभावों का विरोधात्मक होना या उदासीनता के मनोभाव द्वारा परिवर्तित हो जाना।
मावरर ने तनाव को पारिवारिक विघटन का कारण माना है। इनके अनुसार निम्नलिखित चार प्रकार के तनाव पारिवारिक विघटन को उत्पन्न करते हैं –
1. आर्थिक तनाव, 2, सांस्कृतिक तनाव, 3. जीवन-यापन से सम्बंधित तनाव, 4. स्नेह तथा यौन संबंधी तनाव।
मावरर की तरह ई. डब्लू बर्जेस ने भी सात प्रकार के तनाव बताए हैं जिनसे पारिवारिक विघटन उत्पन्न होते हैं-
1. आर्थिक तनाव, 2, यौन सम्बन्धी तनाव, 3. स्वास्थ्य सम्बन्धी तनाव, 4. आदर सम्बन्धी तनाव 5. सांस्कृतिक तनाव, 6. स्वास्थ्य संबंधी तनाव 7 जीवन-यापन के ढंग सम्बन्धी तनाव।
जे. के कोल्सम ने पारिवारिक विघटन को चार मुख्य भागों में विभाजित किया है –
1. परिस्थिति सम्बन्धी अथवा अव्यक्तित्व सम्बन्धी कारक जैसे बुरा स्वास्थ्य, आर्थिक परिस्थितियाँ, सम्बन्धियों का हस्तक्षेप अनचाही संतान का जन्म।
2. व्यक्तित्व सम्बन्धी दोष पति और पत्नी दोनों में हो सकते हैं, जैसे मानसिक विकास, मद्यसेवन, नपसुकता, बाँझपन, अस्वाभाविक यौन प्रवृत्तियाँ अथवा व्यक्तित्व सम्बन्धी बुराइयाँ जो किसी भी समय विवाह की असफलता के कारण हो सकते हैं।
3. व्यक्तित्व सम्बन्धी विभिन्नताएँ- बौद्धिक, सामाजिक, धार्मिक एवं कलापृष्ठभूमि एवं संवेदनाओं में भिन्नता। इन विभिन्नताओं के फलस्वरूप भी पारिवादिक विघटन घटित होते हैं।
4. असंगत कार्य ऐसे कार्य जिससे पति-पत्नी की इच्छाओं की पूर्ति में बाधा पड़ना तथा इस बाधा से परस्पर नैराश्य का जन्म होना। यह नैराश्य किसी विशेष इच्छा अथवा आशा पूर्ति न होने पर उत्पन्न होता है।
इलियट तथा मेरिल ने पारिवारिक तनावों को दो भागों में विभाजित किया है
1. प्राथमिक तनाव, 2. द्वितीय तनाव।
प्राथमिक तनाव के अन्तर्गत मतभेद के ऐसे सामान्य कारण हैं जो व्यक्ति की सामान्य विशेषताएँ हैं। जैसे स्वभाव, मूल्यों में मतभेद, व्यक्तिगत व्यवहार के ढंग तथा मानसिक विकार वाला व्यक्तित्व द्वितीय तनाव के अन्तर्गत आर्थिक तथा व्यावसायिक स्थिति, सांस्कृतिक विभिन्नताओं में सामाजिक पद से अन्तर, बुरा स्वास्थ्य, माता-पिता, बच्चे के मध्य का सम्बन्ध तथा सास-ससुर के हस्तक्षेप आते हैं। राबर्ट एवं मैकाइवर दो कारणों पर अधिक बल देते हैं –
1. पितृसत्तात्मक परिवारों पर बहुत से आदर्श जबरदस्ती लादे जाते हैं। अस्तु पारिवारिक एकता नष्ट हो रही है।
2. स्त्रियों की बढ़ती हुई शक्ति एवं स्वतंत्रता पितृसत्तात्मक परिवारों के बिल्कुल विपरीत है। अस्तु परिवार विघटित हो रहे हैं।
सामाजिक ढाँचा और पारिवारिक विघटन
सामाजिक ढाँचा और पारिवारिक विघटन में घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन के फलस्वरूप ही पारिवारिक विघटन उत्पन्न होता है। परम्परात्मक सामाजिक ढाँचे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता था, साथ ही परिवर्तन की संरचना में भी कोई विशेष अन्तर नहीं होता था। पति और पत्नी दोनो अपने पूर्व निर्धारित अधिकारों और कर्तव्यों के आधार पर अपनी भूमिकायें अदा करते थे। इसीलिए पारिवारिक विघटन की गति तीव्र नहीं हो पाती थी। किन्तु आज जब विवाह होता है तो पति-पत्नी दोनों के विचार पूर्णतया परम्परात्मक आदर्शों और मूल्यों के द्वारा नहीं गढ़े होते हैं। उनके विचारों में काफी अन्तर होता है फिर भी वे अपने को एक-दूसरे के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु विवाह के पश्चात पति एवं पत्नी को नवीन भूमिकाएँ एवं स्थितियाँ प्राप्त होती हैं। ये भूमिकाएँ एवं स्थितियों पहले से पूर्णतया भिन्न होती हैं। लेकिन परिवार के सदस्य यही चाहते हैं कि वह पहले की भाँति ही सबसे व्यवहार करे। ऐसा न करने पर उनके मध्य तनाव और मतभेद उत्पन्न होते हैं। यह मतभेद पारिवारिक विघटन को जन्म देते हैं।
सामाजिक मूल्य और सामाजिक विघटन
समय के अनुसार सामाजिक मूल्यों में अन्तर पाया जाता है। किसी समय यह विश्वास किया जाता था कि पति-पत्नी किसी संयोग से प्राप्त नहीं होते वरन् इनका जन्म-जन्मांतर का सम्बन्ध होता है। इसी विश्वास को लेकर मुख्यतः स्त्री अपना सम्पूर्ण जीवन इस संसार में व्यतीत कर लेती थी। वह अनेक कष्टो को सहकर भी परिवार में रहती थी। पति धर्म का पालन करना उनका पुनीत कर्तव्य होता था। पितृ सत्तात्मक परिवार में पुरुष का आधिपत्य भी था और परम्पराओं का दबाव भी शायद इसीलिए परिवार संगठित रहते थे। आधुनिक युग में पति-पत्नी का सम्बन्ध जन्म-जन्मांतर के आधार पर नहीं मापा जाता है। वरन इसे एक समझौता समझा जाता है। इसे किसी भी समय तलाक द्वारा समाप्त किया जा सकता है। आधुनिक स्त्री केवल घर में कैद होकर नहीं रहना चाहती वह स्वयं अपने पैरों में खड़ा होना चाहती है, समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाना चाहती है। वह आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहती है। समाज के परिवर्तित होते हुए मूल्यों ने स्त्री की भूमिका एवं पद में गंभीर परिवर्तन कर दिया है। इन मूल्यों के परिणामस्वरूप स्त्री परिवार और बाह्य कार्यों के उत्तरदायित्वों को समान रूप से वहन नहीं कर पाती है। इसमें पति-पत्नी, बच्चे एवं परिवार के सदस्यों के मध्य कटुता, द्वेष, अलगाव, तनाव आदि उत्पन्न होते हैं। यह अन्ततः परिवार को अशान्तिमय बनाते हैं। अस्तु परिवर्तित होते हुए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक मूल्य परिवार को विघटित करते हैं।
पारिवारिक विघटन के सामान्य कारक
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ सामान्य कारण आज भी काफी तीव्रता से गतिशील हैं जिनके कारण परिवार विघटित हो रहा है। ये निम्नलिखित हैं-
1. आर्थिक कारण
सामाजिक संरचना, सामाजिक प्रक्रिया आदि को परिवर्तित करने में आर्थिक कारक की महत्वपूर्ण भूमिका है। समाज के ढाँचे में जैसे-जैसे आर्थिक उन्नति एवं प्रगति होती जाती है वैसे-वैसे समाज के अनेक परम्परागत कार्य एवं इससे सम्बन्धित अनेक समस्याओं का स्वरूप परिवर्तित होने लगता है।
(अ) उद्योगों का विकास- वे देश जो औद्योगिक क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं वहाँ गंभीर प्रकार के परिवर्तनों को देखा जा सकता है। औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व परिवार के सभी सदस्य साथ-साथ रहते, खाते-पीते एवं कार्य करते थे। इस समय तक बहुत कुछ परिवार आत्म निर्भर थे। जनसंख्या में वृद्धि होने से परिवार के सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति होने में कठिनाई होने लगी। उद्योगों एवं मशीनों के विकास ने व्यक्तियों के सम्मुख जीविकोपार्जन को अर्जित करने के लिए अनेक विकल्प प्रस्तुत किए। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति परिवार छोड़कर औद्योगिक नगरों में कार्य की खोज में जाने लगा।
(ब) भौतिकवादी सभ्यता और व्यक्तिवाद- उद्योगों के विकास एवं प्रगति ने भौतिकवादी सभ्यता एवं संस्कृति को पनपने का अवसर दिया। सभ्यता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि व्यक्ति को अपनी समस्त प्रकार की आवश्यकताओं व महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति धन से करना पड़ता है। वह अपने स्वार्थों की पूर्ति में प्रातः से सायंकाल तक लीन तथा व्यस्त रहता है। उसे केवल अपनी चिन्ता है। वह अपने सुख के लिए परिवार को त्याग सकता है।
(स) निवास समस्या- औद्योगिक नगरों की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है किन्तु उसके अनुपात में रहने को मकान नहीं है। इसके कई परिणाम सामने आते हैं। वे व्यक्ति जो विवाहित हैं अपने परिवार को नगर में नहीं ला पाते हैं और जो अविवाहित हैं वे विवाह नहीं करते क्योंकि उनके सम्मुख निवास समस्या है। दूसरी तरफ व्यक्ति नगर की अनेक गन्दी आदतों में फँस जाता है जैसे शराब, जुओं, वेश्यावृत्ति आदि। इन सबका प्रभाव परिवार पर पड़ता है।
(द) निर्धनता- निर्धनता एक अभिशाप है। वे परिवार जो निर्धन हैं, वे दुःखी पीड़ित रहते हुए तनाव के मध्य जीवन यापन करते हैं। निर्धन परिवार के व्यक्तियों में न तो सद्भावना होती है और न सहयोग। वहाँ कलह और तनाव ही जीवित रहता है। इसका मूल कारण है व्यक्ति की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति न होना।
(य) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन- कुछ समय पूर्व एक स्त्री केवल घर की शोभा समझी जाती थी। यह शोभा किसी शो-रूम की नहीं होती थी। यह शोभा उसके कार्य करने से बढ़ती थी। वह स्त्री जो प्रातःकाल से लेकर अर्ध-रात्रि तक घर का सम्पूर्ण कार्य करती थी. अच्छी समझी जाती थी। उसका आर्थिक मूल्य न के समान था। औद्योगीकरण के पश्चात स्त्रियों में जागृति और चेतना आई। वे भी धनोपार्जन करने लगी, वे भी आत्मनिर्भर होने लगी। अपनी सामाजिक स्थिति का निर्माण करने लगी। आज स्त्री की स्थिति वह नहीं है जो आज से दो सौ वर्ष पूर्व थी। वह पति की संगिनी, सहभागी, सहयोगिनी है पर गुलाम अथवा परिवार की सेविका नहीं है। आर्थिक स्वतंत्रता ने उसमें आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना को उत्पन्न किया। कभी-कभी स्त्री की आत्मसम्मान की भावना से परिवार के व्यक्ति दुःखी होने लगते हैं, ईर्ष्या करते हैं। यह लड़ाई-झगड़े, तनाव, कलह आदि के रूप में परिवार में प्रस्फुटित होता है।
(र) बेरोजगारी- बेकार व्यक्ति की न तो परिवार में इज्जत होती है और न परिवार के बाहर ही रोजगार की खोज में यह इधर-उधर भटकता रहता है। एक नगर से दूसरे नगर में घूमता रहता है पर फिर भी उसे स्थाई जीविका कहीं उपलब्ध नहीं हो पाती है। इस प्रकार की परिस्थिति में सम्पूर्ण परिवार अन्दर ही अन्दर टूटने लगता है। परिवार के सारे व्यक्ति तितर-बितर हो जाते हैं। पति कहीं नौकरी करता और पत्नी कहीं और बच्चे कहीं और पढ़ते-लिखते हैं।
(ल) व्यापार में उतार-चढ़ाव- औद्योगिक नगरों में वस्तुओं की कीमतों में किस समय क्या हो जाए कोई नहीं जानता। रात ही रात भाव चढ़ते और उतरते रहते हैं। कभी-कभी भाव इतना अधिक जाता है कि बड़े-बड़े सेठों का दिवाला निकल जाता है। इसके आश्रित पलने वाले व्यक्तियों को नौकरी से निकाल दिया जाता है। ये सारी चीजें परिवार के व्यक्तियों में तनाव और अलगाव उत्पन्न करते हैं।
2. सामाजिक कारण
यह निम्नलिखित है-
(अ) स्त्रियों की शिक्षा और राजनीतिक अधिकार- एक युग ऐसा था जब स्त्री शिक्षा पर अंकुर था। मनु जैसे विचारक ने स्त्री शिक्षा को महत्व नहीं दिया और स्त्री को परिवार के क्षेत्र तक ही सीमित रखा किन्तु 20 शताब्दी में स्त्री-संसार में भी आंदोलन प्रारम्भ हुआ। वह पुरुषों की केवल दासी बनकर नहीं रहना चाहती थी। वह भोजन बनाने की महाराजिन तथा बच्च्चों को पालने वाली आया होकर परिवार में नहीं रहना चाहती। उसने ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त की। विभिन्न प्रकार के पदों को ग्रहण किया और घर से बाहर निकली। पितृसत्तात्मक परिवारों का वह दबदबा जो पुरुष जाति को प्राप्त था, ढीला पड़ने लग क्योंकि स्त्री अब केवल परिवार की सेविका नहीं थी वरन सम्पूर्ण परिवार के लिए भी उसके उत्तरदायित्व थे। स्त्रियों की शिक्षा ने उनमें जाग्रति और चेतना को जन्म दिया। असंख्य स्त्रियों आज राजनीतिक क्षेत्र में काम कर रही हैं। वहाँ पारिवारिक कार्यों में उनकी उदासीनता और उपेक्षा की भावना परिवार को विघटित भी कर रही है।
(ब) नगरीकरण- औद्योगीकरण के विकास और प्रगति ने नवीन नगरों को जन्म दिया है। प्राचीन नगरों को नवीन स्वरूप प्रदान किया है। नगरों के आकर्षण और जीविका के विकल्पों ने व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित किया। परिणामस्वरूप छोटे कस्बे और गाँवों में असंख्य व्यक्ति नगर के रंग-ढंग से रँगने लगे। नगर के गुणों को अपनाने लगे। किन्तु नगर में केवल सुविधाएँ ही सुविधाएँ नहीं है यहाँ अथाह बुराइयों और कष्ट भी हैं। आवास और बेकारी की समस्या एक तरफ है तो दूसरी तरफ जुओं, शराब अपराध, वेश्यावृत्ति तथा अन्य अनैतिक कार्यों का चक्र है जिससे व्यक्ति अपने परिवार को नष्ट कर लेता है।
(स) मनोरंजन का प्रभाव- नगरों में मनोरंजन का परम्परात्मक रूप नहीं है। यहाँ मनोरंजन क व्यापीकरण हो गया है। व्यक्ति जितना पैसा व्यय कर सकता है उसको उसी श्रेणी का मनोरंजन प्राप्त होता है। फिर भी इस मनोरंजन का प्रभाव स्वस्थ न होकर अस्वस्थ होता है। सिनेमा में फैशन और प्रेम विवाह की लीलाओं ने परिवार की सादगी के स्थान पर दिखावा को जन्म दिया है। सिनेमा की तडक-भड़क और अवास्तविक भूमिका को अभिनीत करने वाले नायक और नायिकाओं का प्रेम वास्तविक जीवना में सफल नहीं हो पाता है। दूसरी तरफ वे व्यक्ति जो बड़े-बड़े क्लबों और होटलों में रात्रि गुजारते हैं। उनका परिवार भी टूट-फूट रहा है। पति-पत्नी और बच्चों के रास्ते अलग-अलग होते जा रहे हैं। सभी अनियन्त्रित होते जा रहे हैं।
(द) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन – समय के अनुसार सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहे हैं। प्राचीन मूल्यों के स्थान पर नवीन मूल्य बनते हैं। व्यक्ति उन्हीं का अनुकरण करता है। उन्हीं के अनुसार अपने जीवन को संचालित करता है किन्तु यह आदर्श नवीन मूल्यों में परिवर्तित हो रहे हैं। प्रेम-विवाह तलाक, विधवा, पुनर्विवाह आदि पारिवारिक विघटन के कारक है।
3. वैयक्तिक कारण
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कारण हैं जो इस प्रकार हैं-
(अ) विचारों एवं दृष्टिकोण में अन्तर-आधुनिक युग विचारों एवं दृष्टिकोण के अन्तर का युग है। शायद ही ऐसे व्यक्ति मिले जिनके विचार प्रत्येक मामले में समान हो, फिर पति और पत्नी एक विचार कैसे हो सकते हैं। एक परिवार में अगर पति धार्मिक है तो पत्नी प्रगतिवादी। एक फैशनपरस्त तो दूसर परम्परावादी। एक होटल और रेस्ट्रों में मौज का जीवन व्यतीत करने वाला तो दूसरा घर का प्रेमी। एक किसी राजनैतिक दल का समर्थक है तो दूसरा किसी दूसरे दल का। इस विभिन्नता से विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं, एकता नहीं। अस्तु विचार और दृष्टिकोण के अन्तर से परिवार में तनाव और मतभेद उत्पन्न होते
(ब) सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में अन्तर – अगर पति और पत्नी भिन्न-भिन्न विचारों के हैं तो उनके व्यावहारिक जीवन में अन्तर और मतभेद उत्पन्न होते हैं। दोनों अपनी-अपनी संस्कृति को महत्व देते हैं। अगर दोनों में सामंजस्य करने की शक्ति नहीं है तो वे अपनी संस्कृति को लेकर परस्पर लड़ते हैं। उनमें सम्बन्ध विच्छेद की नौबत आ जाती है अथवा अलग-अलग रहने लगते हैं।
(स) पेशापद – वे व्यक्ति जिनका पेशा ऐसा है कि उन्हें अधिकतर घर के बाहर रहना पड़ता है। उनका परिवार भी विघटित होता नजर आता है।
(द) आयु में अन्तर – शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति तक ही पति एवं पत्नी के सम्बन्ध स्थापित नहीं रहते हैं बल्कि अगर विचारों में सामंजस्य, एकता, प्रेम, दृष्टिकोण आदि में समानता नहीं है तो इस प्रकार के परिवार अन्दर ही अन्दर विघटित होते जाते हैं।
(य) वैयक्तिक दोष – वे व्यक्ति जिनमें अनेक बुराइयाँ हैं। उनके परिवार भी विघटित होते हैं। जैसे नियमित मादक पदार्थों का सेवन, जुआँ खेलना, वेश्यागमन, बुरे व्यक्तियों का साथ करना, देर से रात में घर को लौटना आदि ऐसी आदते हैं जो परिवार में कलह करवाती हैं। संकट उत्पन्न करती हैं। अनेक प्रकार के कष्टों और कठिनाइयों को जन्म देती हैं।
अन्य कारक – उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त पारिवारिक विघटन के अन्य कारक भी हो सकते है जैसे
1. परिवार के कर्ता की मृत्यु हो जाने से,
2. बच्चों को लेकर पति-पत्नी में झगड़ा होने से,
3. देवर- देवरानी, जेठ-जेठानी, सास-ससुर के हस्तक्षेप करने से,
4. पति के अपराधी बनने से,
5. यौन अनैतिकता में स्वतंत्रता,
6. काम करने वाली स्त्रियों की समस्या
7. निर्धनता और बच्चों के पालन-पोषण की समस्या ।
इसी भी पढ़ें…
इसी भी पढ़ें…
- सांख्यिकी का अर्थ एवं परिभाषा | Meaning and Definition of Statistics in Hindi
- सांख्यिकी की विशेषताएँ | Characteristics of Statistics in Hindi
- सांख्यिकी की सीमाएं | Statistic limits in Hindi
- सांख्यिकी की समाजशास्त्रीय उपयोगिता
- आनुभविक अनुसन्धान का अर्थ, प्रकार, उपयोगिता या महत्व तथा दोष | Empirical Research in Hindi
- व्यावहारिक अनुसन्धान की परिभाषा | व्यावहारिक अनुसन्धान प्रकार | Applied Research in Hindi
- मौलिक अनुसन्धान का अर्थ, परिभाषा, विशेषतायें एवं उपयोगिता
- उपकल्पना या परिकल्पना का अर्थ, परिभाषाएँ, प्रकार तथा प्रमुख स्रोत
- सामाजिक सर्वेक्षण का क्षेत्र एवं विषय-वस्तु
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अनुप्रयोग
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का क्षेत्र
- विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अर्थ
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का प्रारम्भ