पारिवारिक विघटन तथा सामाजिक विघटन के सम्बन्ध
पारिवारिक विघटन की विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि परिवारों का विघटन, सामाजिक विघटन के कारण तथा परिणाम दोनों ही एक जैसे हैं। इस दृष्टिकोण से पारिवारिक विघटन तथा सामाजिक विघटन के सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। यद्यपि यह सच है कि पारिवारिक विघटन की अपेक्षा सामाजिक विघटन का क्षेत्र अधिक व्यापक है. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि परिवार समाज की केन्द्रीय इकाई है। इस दृष्टिकोण से अधिकांश समाजों का विघटन परिवारों के विघटन से ही आरम्भ होता है लेकिन यह प्रभाव एकपक्षीय नहीं होता। समाज में जब कभी सामाजिक परिवर्तन की गति बहुत तेज हो जाती है तथा सामाजिक संरचना नया रूप ग्रहण करने लगती है तो अक्सर बदलती हुयी दशाओं से अनुकूलन कर सकने के कारण परिवार टूटने लगते हैं। सम्भवतः इसी कारण पार्सन्स ने लिखा है कि “परिवारों का विघटन सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों में सबसे अधिक घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है।” सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप जब सामाजिक विघटन की प्रक्रिया आरम्भ होती है तो इसके तीन परिणाम तुरन्त सामने आने लगते हैं –
1. व्यक्ति की भूमिकाओं में अधिकता
2. भूमिका के प्रति वैयक्तिक तथा सामूहिक असंतोष
3. विभिन्न प्रस्थितियों से अनुकूलन करने में कठिनाई
इन नई परिस्थितियों से व्यक्ति शीघ्र ही अनुकूलन नहीं कर पाते। यह असामंजस्य पारस्परिक अविश्वासों में वृद्धि करके तरह-तरह के तनावों को जन्म देता है जिसके फलस्वरूप परिवार विघटित होने लगते हैं। किसी विशेष अवधि में इन अधिकांश परिवारों में विघटन की प्रक्रिया क्रियाशील हो जाती है, तब स्वाभाविक रूप से सम्पूर्ण समाज का विघटन हो जाता है।
इलियट और मैरिल ने यह स्पष्ट किया है कि नये अविष्कार जीवनयापन के नये ढंग तथा नवीन मूल्य व्यक्ति से यह माँग करते हैं कि वह अपनी मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन कर ले। व्यक्ति इस माँग के अनुसार मनोवृत्तियों में परिवर्तन करने में चाहे सफल हो अथवा असफल, लेकिन इस दशा में पुराने सामाजिक मूल्यों के प्रभाव में कमी अवश्य होने लगती है। यदि इसे रोकने का प्रयत्न किया जाता है तो पुराने और नये सामाजिक मूल्यों के बीच संघर्ष की दशा आरंभ हो जाती है। यह स्थिति सामाजिक विघटन को भी जन्म देती है और पारिवारिक विघटन को भी पहले से स्थापित मूल्यों का प्रभाव कम हो जाने से वैयक्तिक व्यवहार मनमाने हो जाते हैं, परिवार की परम्पराओं को तोड़ा जाने लगता है, परिवार के सभी सदस्य अपनी परम्परागत स्थिति से संतुष्ट होकर अधिक से अधिक अधिकारों की माँग करने लगते हैं, नैतिकता का स्तर गिर जाता है तथा व्यक्ति की भूमिका उसकी स्थिति के अनुरूप नहीं रह जाती। यही से पारिवारिक विघटन की समस्या उत्पन्न होती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि परिवार ही संस्कृति के वाहक होते हैं। जब परिवार ही विघटन की प्रक्रिया में आ जाते हैं तो आगामी पीढ़ियों दिग्भ्रमित हो जाती हैं उन्हें संस्कृति की सीख नहीं मिल पाती। उनके व्यक्तित्व को संगठित रखने वाला कोई आधार शेष नहीं रह जाता, वैयक्तिक मनोवृत्तियों समयानुकूल नहीं रह जाती तथा समाज में अव्यवस्था और संघर्ष बढ़ने लगते है। यही स्थिति सामाजिक विघटन की स्थिति है।
उपरोक्त चित्र से स्पष्ट होता है कि साधारणतया सामाजिक विघटन तथा पारिवारिक विघटन की प्रक्रियायें साथ-साथ चलती हैं परिवार समाज की आधारशिला है तथा पारिवारिक व्यवस्था में समायोजन की विफलता ही सामाजिक तथा पारिवारिक विघटन का कारण है। परिवारों का विघटन इस बात का प्रमाण है कि विघटन इस तथ्य का सूचक है कि सामाजिक व्यवस्था परिवार और व्यक्ति की प्रत्याशाओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य करने में असफल सिद्ध हुयी है। इस दृष्टिकोण से सामाजिक विघटन तथा पारिवारिक विघटन को एक-दूसरे के कारण तथा परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए।
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