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पुनर्बलन का क्या अर्थ है ? इसके प्रकार बताइये।
पुनर्बलन का अर्थ
स्किनर के प्रयोग में खाद्य पदार्थ ने चूहे को वांछित क्रिया करने हेतु बार-बार अभिप्रेरित करता है। यहाँ चूहे को खाना तभी प्राप्त होता है जब वह खटका दबाता है। अतः इस प्रयोग के आधार पर पुनर्बलन अनुक्रिया के उपरान्त ही उत्पन्न होता है तथा यह प्राणी के व्यवहार को बल प्रदान करता है।
डब्ल्यू. एफ. हिल के शब्दों में – “पुनर्बलन अनुक्रिया का वह परिणाम है, जिससे भविष्य में उस अनुक्रिया के होने की सम्भावना में वृद्धि होती है।’
पुनर्बलन के प्रकार
स्किनर के अनुसार पुनर्बलन दो प्रकार का होता है –
(1) सकारात्मक पुनर्बलन – यह पुनर्बलन सक्रिय प्रतिक्रिया की सम्भावना में वृद्धि करने में सहायक होता है।
(2) नकारात्मक पुनर्बलन – इस पुनर्बलन का प्रमुख उदाहरण दण्ड है। इस प्रकार के पुनर्बलन से प्राणी बचना चाहता है।
पुनर्बलन की सारणियाँ वर्गीकृत कीजिए।
पुनर्बलन की सारणियाँ
स्किनर के अनुसार पुनर्बलन की सारणी का अर्थ है कि अनुक्रिया के उपरान्त के पुनर्बलन किस क्रम एवं कितने समय में प्रदान किया जायें। इसे सही क्रम में प्रस्तुत कने हेतु स्किनर ने चार सारणियों पर प्रकाश डाला है –
1. निश्चित अनुपात पुनर्बलन – इसमें एक निश्चित अनुपात में ही पुनर्बलन प्रदान किया जाता है।
2. निश्चित समय अवधि पुनर्बलन – इस सारणी के अन्तर्गत एक निश्चित समय के अन्तर से पुनर्बलन प्रदान किया जाता है। स्किनर ने अपने प्रयोग में 30 सैकिण्ड से 10 मिनट तक के पुनर्बलन का उपयोग किया।
3. शत-प्रतिशत पुनर्बलन – प्रत्येक बार वांछित अनुक्रिया होने पर ही इस प्रकार का पुनर्बलन प्रदान किया जाता है। स्किनर के अनुसार, इस पुनर्बलन से प्राणी किसी अनुक्रिया को अति शीघ्र सीख लेता. है, लेकिन पुनर्बलन समाप्त कर देने पर अनुक्रिया शीघ्र लुप्त हो जाती है।
4. आंशिक पुनर्बलन – इसके अन्तर्गत संयम या शुद्ध अनुक्रिया को महत्व नहीं दिया जाता, वरन् अनिश्चित रूप से ही पुनर्बलन दिया जाता है।
सक्रिय अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धान्त अथवा पुर्नबलन का शिक्षा में प्रयोग बताइये।
स्किनर के सक्रिय अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धान्त का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में निम्न कारण मत्वपूर्ण हैं –
(1) पुनर्बलन का शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख महत्व है। अधिगम की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने के लिए पुनर्बलन का प्रयोग शिक्षक को करना चाहिये।
(2) शिक्षक को छात्रों के समक्ष विषय-वस्तु को छोटे-छोटे भागों के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि इससे छात्र अत्यन्त शीघ्रता एवं सरलता से सीख सकता है।
(3) शिक्षक इस सिद्धान्त के द्वारा अधिगम में सक्रियता पर बल दे सकता है।
(4) इस सिद्धान्त के आधार पर अध्यापक वैयक्तिक भिन्नताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान कर सकता है।
(5) पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धतियों व विषय-वस्तु को छात्रों की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाकर शिक्षक शिक्षण प्रदान कर छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।
(6) छात्रों ने कितना सीख लिया है ? इसकी जानकारी छात्रों को दी जानी चाहिए, क्योंकि परिणाम की जानकारी अधिगम में सहायक सिद्ध होती है।
(7) बालकों को जटिल कार्य सीखने में इस सिद्धान्त का प्रयोग किया जा सकता है। शिक्षक को, छात्रों को वर्तनी सिखाने हेतु अपेक्षित अनुक्रिया का संयोजन करना चाहिये, जिससे बालक शब्द का शुद्ध उच्चारण करने के साथ ही उसे लिखना भी सीख जायें।
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