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प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।

प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन
प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन

प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन

मार्क्स प्रजातन्त्र, धर्म और राष्ट्रवाद तीनों की ही आलोचना करते हुए उन्हें अस्वीकार करता है। यह प्रजातन्त्रात्मक संस्थाओं को ‘धनिकों की संस्थाएँ’ कहकर उनका उपहास करता है और उसका विचार है कि प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली से श्रमिक के हितों की रक्षा कदापि नहीं हो सकती। अतः प्रजातन्त्रात्मक संस्थाओं को नष्ट कर दिया जाना चाहिए। मार्क्स प्रजातन्त्र को किसी भी महत्वपूर्ण परिवर्तन के लिए नितान्त प्रभावहीन मानता है और इस कारण उसके द्वारा अन्तरिम काल में भी प्रजातन्त्र के स्थान पर ‘श्रमिकों के अधिनायकत्व’ की स्थापना का ही प्रस्ताव किया गया है।

मार्क्स ने धर्म को भी जनता के शोषण का एक साधन ही माना है और उसका विचार है कि वर्तमान समय की शोचनीय दशा के लिए बहुत कुछ सीमा तक धर्म ही उत्तरदायी है। इतिहास में एक नहीं, कितने ही लुई और जार पैदा हुए हैं, किन्तु जनता ने अपने धार्मिक अन्धविश्वास के कारण उनके अन्याय और शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठायी है। मार्क्स धर्म के भाग्यवादी दर्शन को बहुत अधिक शरारतपूर्ण मानता है, जिसने इतिहास और सभ्यता के नैसर्गिक विकास को रोका है। एक अन्य स्थान पर मार्क्स धर्म को ‘जनता की अफीम’ की संज्ञा देता है, जिसे खाकर जनता विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने के बजाय पतन के गर्त में पड़ती ऊँघती रहती है।

मार्क्स राष्ट्रवाद को भी अस्वीकार करता है और उसका विचार है कि ‘मजदूरों का कोई देश नहीं होता।’ यही कारण है कि उसने ‘विश्व के श्रमिको एक हो जाओ’ का नारा लगाया था। उसका विश्वास था कि जब व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण समाप्त हो जायेगा तो एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण का भी अन्त हो जायेगा। वर्ग संघर्ष और वर्ग शत्रुता के कम होने पर राष्ट्रों की पारस्परिक शत्रुता का भी कोई कारण नहीं रहेगा, युद्ध सदैव के लिए समाप्त हो जायेंगे और स्थायी शान्ति की स्थापना होगा।

आलोचना- इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्न प्रकार हैं-

1. प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में धारणा त्रुटिपूर्ण- प्रजातन्त्र के सम्बन्ध में मार्क्सवादी विचारधरा त्रुटिपूर्ण है और उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रजातन्त्र के अपने कुछ दोष हो सकते हैं, लेकिन मानवीय इतिहास में अब तक स्थापित शासन-व्यवस्थाओं की तुलना में प्रजातन्त्र निःसन्देह एक श्रेष्ठ शासन-व्यवस्था है। अधिनायकवाद के आधार पर कुछ क्षणिक लाभ भले ही प्राप्त किये जा सकें, लेकिन ये लाभ स्थायी होंगे, इस बात की सम्भावना बहुत कम है।

2. धर्म की आलोना अनुचित- धर्म को भाग्यवाद का रूप समझकर मार्क्स के द्वारा भीषण गलती की गयी है। वास्तविक धर्म तो भाग्यवाद के स्थानपपर कर्मवाद का ही पाठ पढ़ाता है। मार्क्सवादी दर्शन में धर्म और नैतिकता का जो उपहास उड़ाया गया है, उसका मार्क्स के दर्शन से प्रभावित व्यक्तियों पर अस्वस्थ प्रभाव पड़ना नितान्त स्वाभाविक है। वस्तुतः मनुष्य एक भौतिक प्रणाली होने के साथ-साथ नैतिक और आध्यात्मिक प्राणी है और धर्म या इस चिन्तन को ‘मानवीय आत्मा का भोजन’ कहा जा सकता है।

3. राष्ट्रवाद वर्तमान जीवन की महानतम शक्ति- अन्तर्राष्ट्रीयता की धारणा आगे जाने वाले समय के लिए चाहे कितनी भी स्वाभाविक और वांछनीय क्यों न हो, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वर्तमान जीवन की तो महानतम शक्ति राष्ट्रवाद ही है। वर्गीयता से राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती है, इसका प्रमाण यह है कि राष्ट्रीय संकट के अवसर पर एक राष्ट्र के मजदूर और पूँजीपति एक साथ मिलकर दूसरे राष्ट्र के मजदूर पूँजीपतियों का विरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में ‘विश्व के श्रमिको एक हो जाओ’, इस आह्वान का कोई औचित्य नहीं है।

मार्क्सवाद के द्वारा धर्मकी जो आलोचना की गयी है, उसके सम्बन्ध में एक विशेष बात कही जा सकती है। मार्क्सवाद की विडम्बना यह है कि एक ओर तो वह धर्म पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करता है, दूसरी और स्वयं मानव जाति का एक धर्म बनने की भरसक चेष्टा करता है। आज के प्रसिद्ध समाजवादी विचारक इग्लस जे ने अपनी पुस्तक ‘Sicialism in the New Society’ (1970) में मार्क्सवाद की ऐसी ही कुछ विसंगतियों की ओर संकेत किया है।

इस सम्बन्ध में हैलोवेल भी लिखते हैं, “मार्क्सवाद सिद्धान्ततः धर्म को अस्वीकार करता है। पर व्यवहारतः जो तीव्र भावना मार्क्सवाद के पीछे काम करती है, उसकी प्रकृति धार्मिक ही है।” एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं, “मार्क्सवाद न तो दर्शन, न आर्थिक सिद्धान्त, न आर्थिक कार्यक्रम, वरन् धर्म के रूप में श्रमिकों को आकर्षित करता है। मार्क्स ईश्वर के बदले ऐतिहासिक आवश्यकता को, धर्मप्रिय लोगों के स्थान पर सर्वहारा वर्ग को और धर्म राज्य के स्थान पर साम्यवादी राज्य को स्थानापन्न करता है।”

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shubham yadav

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