प्रसार दर्शन की विशेषताएँ
डी. टी. एस सोहल ने प्रसार दर्शन की 7 विशेषताएं बताई हैं-
(1) मानवता- प्रसार कार्यक्रम का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है। जहां मनुष्य है वहां मानवता अवश्य होगी। प्रसार उन क्रियाओं शिक्षाओं पर जोर देता है जो मानवता पर आधारित है। मानवता सिखाती है। प्रसार मनुष्य की मनोवृत्ति, सोच, कार्य करने की तकनीक में परिवर्तन कर उसमें आत्मविश्वास पैदा करता है उसे आत्मनिर्भर बनाता है। मनुष्य के आर्थिक भौतिक विकास के साथ-साथ उसका ध्यान अपने आस-पास के समाज में फैली कुरीतियों की ओर आकर्षित करता है। कुरीतियां दूर करने के उपाय सुझाता है। देश समाज की समस्याओं के प्रति जागरूकता पैदा करता है। उसे एक अच्छा इन्सान बनने की प्रेरणा देता है। प्रसार के कार्यक्रमों में सहयोग जनसमुदाय की भलाई के विचार पर जोर दिया जाता है। प्रसार मनुष्य के सर्वांगीण विकास पर जोर देता है। सर्वांगीण विकास बिना मानवीय गुणों के नहीं हो सकता है। इसलिये प्रसार कार्यक्रम की सबसे बड़ी विशेषता उसका मानवता का दृष्टिकोण है। मनुष्य मात्र का विकास ही नहीं मनुष्य के साथ समुदाय, समाज, राष्ट्र का विकास जुड़ा है।
(2) फलवादी- प्रसार शिक्षा फलवादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। प्रसार कार्यक्रम का परिणाम चाहिये क्योंकि यदि वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होता तो लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा। यही कारण है कि प्रसार शिक्षा व्यक्तियों द्वारा व्यक्तियों के लिये व्यक्तियों तक पहुंचाई जाने वाली लचीली अनौपचारिक शिक्षा है। इसके लिये कठोर नियम नहीं है। कार्यक्रम जिस उद्देश्य से चलाया जा रहा है उस परिणाम या फल को प्राप्त करने के लिये आवश्यकता तथा परिस्थिति के अनुसार कार्यक्रम की रूपरेखा तथा शैली में परिवर्तन किया जा सकता है। प्रसार कार्यक्रम की सफलता के लिये प्रसार कार्यक्रम कर्ता को इस बात की पूरी स्वतन्त्रता दी जाती है। कि वह जहां जिस परिवेश में जिस स्तर के लोगों के बीच कार्यक्रम चला रहा है वहां उनकी सफलता के लिये उस स्थान की आवश्यकता सुविधा तथा मांग के अनुसार प्रसार शिक्षा माध्यम तथा प्रणाली का चुनाव करे, नियमों में बंधकर नहीं क्योंकि यहां इस शिक्षा का उद्देश्य वांछित फल (परिणाम) पाना है। केन्द्र बिन्दु वह शिक्षार्थी है जिसे शिक्षा दी जा रही है उसका विकास ही वांछित परिणाम है शिक्षा देने का माध्यम या पद्धति नहीं।
(3) तात्विक – प्रसार शिक्षा कार्यक्रम लचीला कार्यक्रम है इसलिये तात्विक है अर्थात् यह कार्यक्रम ऊपरी मंजिल से नहीं जमीनी सतह से प्राम्भ किया जाता है अर्थात् सीधा सरल आसान कार्यक्रम मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से प्रारम्भ किया जाता है। प्रसार शिक्षा का सम्बन्ध गांवों से है अतः इसका उद्देश्य गांववासियों की कृषि तथा उनके उद्योग धन्धों से जुड़ी समसयाओं हेतु उन्हें नई जानकारियां, नई तकनीकों से परिचित कराना है ताकि उनसे लाभ उठाकर वह अपनी रोज की समस्याएं समझकर उन्हें दूर कर सकें। क्योंकि जब उनकी मूलभूत आवश्यकताएं आसानी से पूरी होंगी उनकी रोजी रोटी से जुड़ी समस्याएं सुलझेंगी तब वह अपने दायरे से बाहर निकल कर अन्य समस्याओं पर विचार करेंगे।
(4) आदर्शवाद – प्रसार शिक्षा का यह दर्शन इस बात पर आधारित है कि प्रसार कार्यक्रम से जुड़ा प्रसार कार्यकर्ताओं का काम तथा उद्देश्य आदर्शमय होना चाहिये ताकि उन आदर्शों से प्रेरित होकर ग्रामवासी उनका अनुसरण कर सकें अन्यथा फल प्राप्ति नहीं हो पायेगी। इस आदर्शवाद के आधार पर ही ग्रामवासी अपनी वास्तविक स्थिति तथा आदर्शों द्वारा प्राप्त बेहतर स्थिति की तुलना कर चुनाव करने के लिये प्रेरित होते हैं। प्रसार कार्यक्रम के कार्यकर्ताओं को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आदर्श केवल कहने सुनने या स्वप्नों तक ही सीमित न हों वे उनकी क्रियाओं, उनके आचरण में भी झलकने चाहिये तभी ग्रामवासियों पर उनका प्रभाव पड़ेगा। इसलिये आदर्शवाद प्रसार कार्यक्रम से जुड़े अधिकारी और कार्यकर्ताओं के लिये एक चुनौती होती है।
(5) यथार्थवादी – यथार्थ अर्थात् वास्तविकता हमें ग्रामवासियों को आदर्श देने हैं सपने नहीं दिखाने हैं इसलिये कार्यकर्ता कार्यक्रम प्रारम्भ करने से पूर्व उस परिवेश स्थान तथा वहां लोगों के व्यवहार विचार के यथार्थ से परिचित हो लें तभी उसे वहां की समस्याओं की वास्तविकता का ज्ञान होगा। वह वहां किन साधनों का प्रयोग करे जो सफल हों इसकी जानकारी प्राप्त हो सकेगी तथा वास्तविकता जानकर वह उनकी समस्याएं भी सही ढंग से हल करने में उनकी मदद कर सकेगा।
(6) प्रयोगवादी- प्रसार शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रमों की सफलता के लिए वैज्ञानिक सोच, नई खोज, नई तकनीक आवश्यक है। प्रसार शिक्षा कार्यक्रमों तथा इन तीनों का गहरा सम्बन्ध हैं इनके बिना मनुष्य के व्यवहार तथा विचारों में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। विज्ञान प्रयोगों पर निर्भर है। प्रयोगों द्वारा ही नये शोध कार्य नई तकनीक खोजी जाती है। अतः प्रसार शिक्षा सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा व्यावहारिकता पर अधिक बल देती है। यह स्वयं करके सीखने का मौका देती है। विज्ञान की प्रयोगशालाओं में जो खोज की जाती है उसे गांवों तक पहुंचाया जाता है वहां उसका प्रयोग कर उसकी सफलता असफलता का विश्लेषण करने के लिये उन्हें पुनः विज्ञान की प्रयोगशालाओं तक वापस लाया जाता है। यही कारण है कि यह प्रक्रिया प्रसार के प्रयोगवादी दर्शन को सामने लाती है।
(7) पुनःनिर्माण- समाजशास्त्री शिक्षाशास्त्री यह मानते हैं कि समाज में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है उसकी गति कभी धीमी कभी तेज हो जाती है। समाज का यह परिवर्तन शायद प्रकृति में परिवर्तनशील स्वभाव की देन है। समाज में होने वाले परिवर्तनों से समाज मनुष्य का स्वभाव, व्यवहार क्रियाएं प्रभावित होती हैं अतः प्रसार कार्यक्रम के कार्यकर्ताओं के लिये यह आवश्यक है कि अपने कार्यक्रम की सफलता के लिये इन परिवर्तनों या पुनःनिर्माण प्रक्रिया को ध्यान में रखकर कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करें ताकि कार्यक्रम सफल होकर फलवादी दर्शन भी पूरा कर सके। यही कारण है कि प्रसार कार्यक्रम लचीला है ताकि समाज के परिवेश में परिवर्तन के अनुरूप समय की मांग के अनुरूप इसमें बदलाव लाया जा सके। क्योंकि मनुष्य तथा समाज के विकास के लिये पुनर्निर्माण पुनर्संगठन प्रक्रिया के प्रति विश्वास होना आवश्यक है अन्यथा विकास की प्रक्रिया रुक जायेगी। परिवर्तन तथा पुनर्निर्माण प्रकृति का नियम है।
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