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भारतीय संविधान | भारतीय संविधान की विशेषताएं | संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्त | नीति निदेशक तत्वों का महत्व 

भारतीय संविधान की विशेषताएं
भारतीय संविधान की विशेषताएं

भारतीय संविधान ( Indian Constitution )

संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946ई० को हुई। जिसकी अस्थायी अध्यक्षता डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा ने की। इसके बाद 11 दिसम्बर 1946ई0 को डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया और वे अन्त तक अध्यक्ष बन रहे। 13 दिसम्बर, 1946ई0 को पं० जवाहरलाल नेहरू ने एक ‘उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत कर भारतीय संविधान की आधारशीला रखी। संविधान को अन्तिम रूप देने के लिए संविधान सभा ने सात सदस्यों को एक “प्रारूप समिति” नियुक्ति की जिसके अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे।

संविधान के निर्माण में संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए। संविधान पारित होने में कुल 63 लाख 96 हजार 729 रूपये व्यय हुए और 2वर्ष 11 महीने तथा 18 दिन का समय लगा। 26 जनवरी 1950ई0 को भारत का संविधान देश में लागू किया गया। यह दिन इसलिए चुना गया क्योंकि 20 वर्ष पहले इसी तिथि अर्थात 26 जनवरी 1930ई० को महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत की जनता ने अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने का संकल्प किया था। संविधान के अनुसार डा० राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

भारतीय संविधान की ‘प्रस्तावना’ को हम संविधान की आत्मा कह सकते हैं। संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है- “हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत् 2006वि0) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” इस महत्वपूर्ण प्रस्तावना में भारतीय संविधान के जो विभिन्न दार्शनिक पहलू समाहित हैं, वे इस प्रकार हैं, 1. स्वतन्त्रता एवं सम्प्रभुता, 2. गणतन्त्रात्मक स्वरूप, 3. लोकतन्त्र की सम्पूर्ण स्वीकृति, 4. समाजवाद, 5. पंथनिरपेक्षता, 6. बन्धुत्व। संविधान में 1 से 10 अनुसूचियाँ, 395 अनुच्छेद और एक परिशिष्ट है। भारतीय संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के लिए निम्नलिखित मूल अधिकारों की व्यवस्था की गई है जिनका नागरिकों के जीवन में बड़ा महत्व है। प्रत्येक नागरिक अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है।

1. समता का अधिकार

3. शोषण के विरूद्ध अधिकार

2. स्वतन्त्रता का अधिकार

4. संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार

5. संवैधानिक उपचारों का अधिकार

भारतीय संविधान की विशेषताएं

भारतीय संविधान की अनेक निम्नलिखित विशेषताएं हैं जिनमें से मुख्य निम्नलिखित है-

1. विस्तृत तथा व्यापक प्रलेख ।

2. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना।

3. समाजवादी राज्य

4. संघात्मक शासन की स्थापना ।

5. पंथ निरपेक्ष राज्य की स्थापना।

6. संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना।

7. अपरिवर्तनशीलता तथा परिवर्तनशीलता का अपूर्ण समन्वय

8. सुदृढ़ केन्द्रयुक्त राज्य की स्थापना।

9. मूल अधिकारों की व्यवस्था ।

10. स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था |

12. लिखित तथा स्वनिर्मित संविधान ।

11. नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख ।

13. वयस्क मताधिकार ।

14. एकल नागरिकता।

15. साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की समाप्ति।

16. अल्पसंख्यकों तथा पिछड़े वर्ग के लोगों के अधिकारों की रक्षा।

17. आपातिक उपबन्ध ।

18. लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना।

19. संसद की सर्वोच्च

20. अस्पृश्यता का अन्त ।

21. ग्राम पंचायतों की स्थापना ।

22. एक राजभाषा की व्यवस्था ।

संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्त (Directive Principles of constitutions)

नीति-निदेशक तत्वों का अर्थ यह है कि हमारे संविधान ने कुछ ऐसे आधारभूत तत्व निश्चित ने कर दिये हैं, जिनके अनुसार राज्य को अपनी नीतियां निर्धारित करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का तात्पर्य उन आदर्शों से है जो इस बात की ओर संकेत करते है कि राज्य की नीतियां क्या होनी चाहिए? ये तत्व नागरिकों को ऐसी सुविधाएं दिलाते हैं, जिनकी प्राप्ति नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।

राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उल्लेख हमारे संविधान की एक नयी विशेषता है। इनका उल्लेख संविधान के चौथे भाग में अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक किया गया है। अनुच्छेद 37 में निदेशक तत्वों की प्रकृति के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “इस भाग (4) में दिये गये उपलब्ध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय न होंगे, किन्तु तो भी इनमें दिये हुए तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा। अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि “राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, राज्य न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक कार्य साधन रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की उन्नति का प्रयास करेगा। संविधान में जिन नीति- निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है, उन्हें चार वर्गों में बाँटा जा सकता है –

1. आर्थिक व्यवस्था सम्बन्धी तत्व – अनुच्छेद 39 में इन तत्वों के सम्बन्ध में राज्य से कहा गया है कि वह ऐसी नीति अपनाये जिससे – क. सभी नागरिकों को अर्थात पुरूषों और स्त्रियों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें। ख. समुदाय के भौतिक सम्पत्ति का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बंटा हो कि जिससे सामूहिक हित का सर्वोपरि रूप से साधन हो सके। ग. आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार हो कि जिससे घन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी केन्द्रीयकरण न हो। घ. स्त्री पुरुष दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो। ङ. श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों का स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो तथा आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर उन्हें ऐसे रोजगारो में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों। च. शैशव और किशोरावस्था का शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से संरक्षण प्राप्त हो। छ. आर्थिक रूप से पिछणे वर्गों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त हो सके। ज. किसी उद्योग में लगे हुए संगठनों के प्रबन्ध में कर्मचारियों को भाग मिल सके, झ. पर्यावरण की सुरक्षा तथा वन व अन्य जीवों की सुरक्षा हो सके, ञ. बेकारी, बीमारी, बुढ़ापा और अंग हानि से जीविका कमाने में असमर्थ व्यक्तियों को सरकार की ओर से सार्वजनिक सहायता मिल सके। ट. कार्य करने की यथोचित व मानवोचित दशाएं सुनिश्चित हों और स्त्रियों की प्रसूति सहायता के लिए प्रबन्ध हो (अनुच्छेद 43 )ड. कृषि और पशुपालन आधुनिक वैज्ञानिक ढंग से संगठित हो, पशुओं की नस्ल में सुधार हो तथा गाय, भैंस, बछड़ों आदि का बध बन्द हो। (अनुच्छेद 48 )

2. सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी तत्व- सामाजिक और शिक्षा सम्बन्धी क्षेत्र में – राज्य को निम्नलिखित नीति के अनुसरण करने का आदेश दिया गया है कि वह-

1. संविधान आरम्भ होने से दस वर्ष की अवधि के अन्दर चौदह वर्ष तक के सभी बालकों की निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयत्न करें। (अनुच्छेद 45 )

2. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करें और सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकारों के शोषण से उनका संरक्षण करें। – (अनुच्छेद 46)

3. लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा करने एवं लोगों के स्वास्थ्य सुधार के कर्तव्य को प्राथमिकता प्रदान करें। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों का निषेध करने का प्रयत्न करें। (अनुच्छेद 47 ),

4. राष्ट्रीय महत्व के घोषित कलात्मक या ऐतिहासिक स्मारकों या स्थानों आदि के संरक्षण की व्यवस्था करें। – (अनुच्छेद 49)

3. शासन तथा न्याय सम्बन्धी तत्व- शासन और न्याय के क्षेत्र में राज्य को निम्नलिखित नीति के अनुसरण का आदेश दिया गया है कि वह –

1. इस बात का प्रयत्न करें कि ग्राम पंचायतों का अधिक से अधिक ग्रामों में संगठन हो और उन्हें ऐसी शक्तियां प्रदान करें कि वे स्थानीय स्वायत्त शासन की इहाईया बन सकें। (अनुच्छेद 40)

2. भारत के समस्त राज्य में नागरिकों के लिए एक समान व्यवहार संहिता बनाने का प्रयत्न करें। (अनुच्छेद 44 )

3. राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका और कार्यपालिका से पृथक करने का प्रयत्न करें। (अनुच्छेद 50)

4. अर्न्तराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी तत्व- भारत सर्वदा से शन्ति का पुजारी रहा है। इसी परम्परा के तहत संविधान के अनुच्छेद 51 में प्रत्येक राज्य को यह आदेश दिया गया है कि वह – 1. अर्न्तराष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा, 2. राष्ट्रों के मध्य न्यायपूर्ण एवं सम्मानपूर्ण सम्बन्धी को बनाये रखने का प्रयत्न करेगा, 3. अर्न्तराष्ट्रीय संधियों एवं कानूनों के प्रति आदर बढ़ाने का प्रयत्न करेगा, 4. अर्न्तराष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता के द्वारा निबटाने की भावना को प्रोत्साहन देगा।

नीति निदेशक तत्वों का महत्व 

संविधान में नीति निदेशक तत्वों का अध्ययन एक प्रकार से हमारे भारतीय संविधान के अन्तःकरण का प्रहरी है। यह संविधान की आत्मा और हृदय का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। नीति निदेशक तत्वों का महत्व निम्नलिखित रूपों में दिखलाई पड़ता है

1. जनमत की शक्ति का प्रतीक – नीति निर्देशक तत्वों के पीछे जनमत की शक्ती निहित है। इन तत्वों का महत्व केवल इसलिए समाप्त नहीं हो जाता है कि इनके पीछे न्यायालय की शक्ति नहीं है। इन तत्वों का उल्लंघन भी उतना ही असंवैधानिक है जितना कि ऐसे अनुच्छेद का जिन पर न्यायालय द्वारा अमल कराया जा सकता है। यदि सरकार ऐसी नीति पर अमल करेगी जो निदेशक तत्वों का उल्लंघन करती है, तो वह नीति अवैधानिक समझी जायेगी। कोई भी मंत्रीमण्डल जो जनता के प्रति उत्तरदायी है, ऐसा करने का दुस्साहस सम्भवतः नहीं करेगा।

इस प्रकार अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर का कहना है कि “जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी मंत्रिमण्डल से संविधान के चौथे भाग के निदेशक तत्वों के विरूद्ध जाने का दुस्साहस नहीं करेगा।

2. राज्य की नीति में स्थिरता- राज्य के नीति निदेशक तत्वों से राज्य की नीति में – एक प्रकार की स्थिरता आ जाती है। किसी भी राजनीतिक दल की सरकार सत्तारूढ़ हो, उसे अपनी नीति इन तत्वों के अनुरूप ही बनानी पड़ेगी। इस सम्बन्ध में डा. एन. आर. राघवाचारी ने सत्य ही कहा है, “इनको संविधान में रखने का यह औचित्य है कि कोई भी दल राजनीतिक शक्ति प्राप्त करे, परन्तु उसे इन आदर्शों का पालन करना पड़ेगा। कोई उनकी अवहेलना नहीं कर सकेगा, क्योंकि चाहे उसे न्यायालय में कानून भंग करने के लिए उत्तरदायी न होना पड़े परन्तु उसे अगले निर्वाचन में मतदाताओं के सम्मुख उत्तर देना पड़ेगा।”

3. राज्य के कल्याणकारी उद्देश्यों को बल – नीति निदेशक तत्वों के अन्तर्गत राज्य से जितने कार्य करने को कहा गया है। वे कल्याणकारी कार्य है। वास्तव में हमारा भारत कल्याणकारी राज्य है। संविधान में कल्याणकारी कार्यों का समावेश हो जाने से संविधान सभा के कल्याणकारी उद्देश्यों को बल मिलता है। इस सम्बन्ध में डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था “संविधान का उद्देश्य केवल राजनीतिक प्रजातन्त्र की व्यवस्था नहीं वरन् ऐसे कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है जिसमें आर्थिक और सामाजिक प्रजातन्त्र भी हो। यह इस बात की आशा दिलाते हैं कि यदि इन्हें शासन का मूलभूत आधार बनाया जाय तो देश में कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सकती है।”

4. देश भर में सरकारी कार्यों में एकरूपता- नीति निदेशक तत्वों के आधार पर में केन्द्रीय सरकार और समस्त राज्य सरकारों को कार्य करना पड़ता है। इससे देश भर में सरकारी कार्यों में एकरूपता आ जाती है।

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shubham yadav

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