भारत की परम्परागत कढ़ाई
भारत की परम्परागत कढ़ाई- भारत की परम्परागत कढ़ाई उस स्थान विशेष के नाम से जानी जाती है।
(1) कश्मीरी कढ़ाई (Kashmiri Embroidery)- कश्मीर (पृथ्वी का स्वर्ग) की कढ़ाई के नमूनों में भी प्रकृति छलकती है। कश्मीर की विशिष्ट कढ़ाई आक्मी के नाम से जानी जाती है अर्थात् प्रतिबिम्ब वस्त्र के दोनों ओर कढ़ाई एक-सी आती है जैसे प्रतिबिम्ब दीख रहा हो, इसे हम कश्मीरी टांका भी कहते हैं। कश्मीरी टांके से कपड़े के दोनों ओर एक-सी कढ़ाई दीखती है। कश्मीर की पश्मीना शालों पर इस कढ़ाई के नमूने मिलते हैं। शालों के अतिरिक्त ऊनी कोट, टोपी, जूते, मफलर, रेशमी वस्त्रों में भी यह कढ़ाई मिलती है। कश्मीरी टांके के अतिरिक्त चेन, साटिन, हेरिंगबोन टांकों का प्रयोग भी किया जाता है।
कश्मीरी अपनी कढ़ाई के डिजाइनों में फूल-पत्तियाँ, मोर, चिड़िया, शेर आदि गाढ़े रंगों से बनाते हैं। आज से 100 वर्ष पूर्व जो शाल यहाँ बनाये जाते थे उस पर यहाँ के कुशल कारीगर पूरे शहर का दृश्य काढ़ दिया करते थे।
(2) पंजाब की फुलकारी (Punjabi Phulkari) – पंजाब की कढ़ाई को फुलकारी के नाम से जाना जाता है। यह फुलकारी सादी खादी पर की जाती है। यह खादी लाल, पीले, नीले रंग की होती है जिस पर रेशमी धागों से कढ़ाई की जाती है। यह कढ़ाई कपड़े पर उल्टी ओर से की जाती है। भरवाँ टाँके से कढ़ाई की जाती है। अतः यह बुनाई घनी होती है। बुनाई में प्रायः पीले, हरे, सफेद, लाल रंग के धागों का प्रयोग किया जाता है। यह काशीदाकारी का वस्त्र ‘बाग’ के नाम से भी जाना जाता है जो विवाह के समय बहू-बेटियों को ओढ़ाया जाता था।
फुलकारी के नमूनों में केवल फूल-पत्ती ही नहीं चाँद, सूरज, मकड़ी के जाल, लहरें आदि भी बनाई जाती थीं। नमूने के बीच-बीच में काँच भी लगाये जाते हैं। बीच में यह कला लुप्तप्राय हो गई थी पर अब फिर इसका प्रचलन बढ़ रहा है पर अब भावना में अन्तर आ गया है। पहले यह माँ-बेटी के लिये प्रेम स्नेह से बनाती थी जिसमें कहीं माँ-बेटी का प्यार आपसी सौहार्द छिपा होता था। अब यह व्यावसायिक कला हो गई है।
(3) कच्छ तथा काठियावाड़ की कढ़ाई (Embroidary of Kutch and Kathiawar)- यह कढ़ाई ‘आमला भरत’ नाम से जानी जाती है। इसमें फूल-पत्तियाँ, तने, लेजीडेजी, हेरिंग बोन स्टिच से बनाते हैं। फूलों के बीच में शीशे लगाये जाते हैं। यहाँ की युवतियों के परिधान घाघरा चोली पर इसका प्रयोग होता है।
यहाँ की दूसरी प्रसिद्ध कढ़ाई कला ‘चाकला’ के नाम से जानी जाती हैं जो आजकल लुप्त हो गई है। इस कढ़ाई में महिलाएँ रेशमी कपड़े के अलग-अलग रंग के टुकड़ों को एप्लिक द्वारा जोड़कर चौकोर बड़ा रुमाल बनाती थीं जिसमें नव-विवाहिता का दहेज रखा जाता था।
इसी प्रकार यहाँ का ‘तोरण’, ‘कतब’ भी बहुत लोकप्रिय है। इनमें रेशमी रंगीन धागों .से कढ़ाई की जाती है। डिजइन में तोता, मोर, पत्ती, फूल, पक्षी व पौधे बनाये जाते हैं। आज कच्छ, काडियावाड़ कढ़ाई की माँग बढ़ रही है। घर में कमरों को सजाने के लिए इस कढ़ाई से बने कुशन कवर, टेबिल क्लॉथ, सोफ बेक चादरों की माँग बढ़ रही है।
(4) राजस्थानी कढ़ाई (Ranasthani Embroidary) – कच्छ के समान यहाँ की कढ़ाई में भी शीशे का काम होता है। लहँगे, चोली, चूनर पर इस कढ़ाई का प्रयोग होता है। यह कढ़ाई कच्छ की कढ़ाई से मिलती-जुलती है।
(5) हिमाचल का चम्बा रुमाल- इसे चम्बा का रुमाल इसलिए कहते हैं क्योंकि इस प्रकार के रुमाल पर चारों ओर फूल-पत्तियाँ तथा बीच में श्रीकृष्ण लीला के दृश्य, ढोलक, मृदंग आदि साटिन स्टिच से बनाये जाते हैं। ये रुमाल प्रायः पूजा की थाली ढाँकने के काम आते हैं। यह हिमाचल चम्बा गाँव में तैयार किये जाते हैं।
(6) उड़ीसा की कढ़ाई – उड़ीसा की कढ़ाई का मुख्य आकर्षण सफेद कपड़े के ऊपर लोक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न नमूनों को रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़ों द्वारा एप्लिक बर्क से जोड़ना है।
(7) बंगाल की कढ़ाई- बंगाल की यह विशेष कारीगरी ‘काथा’ (Kantha) के नाम से जानी जाती है जिसमें महिलाएँ पुराने वस्त्र को नया रूप दे देती हैं। पुरानी चादरें, धोती क्विल्टिग द्वारा नये रूप में बदल देती हैं। पुराने कपड़ों की तह जमा कर रनिंग स्टिच से चारों ओर बॉर्डर बनाती हैं फिर बीच के भाग में शंख, कमल, हाथी सूरज, चाँद आदि बनाती हैं। इस ‘कांथा’ का प्रयोग चौकी पर बिछाने या आसन के रूप में होता है।
(8) मणिपुरी कढ़ाई – यहाँ की महिलाएँ कढ़ाई के लिए प्रायः लाल, पीले, सफेद, काले धागों का प्रयोग सैटिन एवं रनिंग स्टिच द्वारा करती हैं तथा इनके नमूनों में प्राकृतिक दृश्य होते हैं।
(9) कर्नाटक की कढ़ाई – ऐसा माना जाता है कि यहाँ की कढ़ाई चाणक्य वंश के समय से चली आ रही है। यह कढ़ाई ‘कसूती’ (Kasuti) के नाम से जानी जाती है। यह दुसूती (मैटी क्लाथ) पर की जाती है जो प्रायः काले रंग का होता है। इस पर रनिंग, जिकजैग, क्रास स्टिच द्वारा कमल, तोता, मोर, हाथी डिजाइन गाढ़े रंगों जैसे- लाल, हरे, नारंगी, बैंगनी आदि से काढ़े जाते हैं।
(10) लखनऊ की कढ़ाई- यह कला ‘चिकन का काम’ कहलाती है। इसमें सफेद मलमल, सूती रेशम और अब संश्लेषित वस्त्रों पर भी या हल्के रंग के कपड़ों पर रंगीन, धागों का प्रयोग कर बेल-बूटे के डिजाइन उभार जाते हैं। इस कढ़ाई में फ्रेंचनाट, ओपन वर्क तथा हेरिंगबोन स्टिच का प्रयोग किया जाता है। इस कढ़ाई के बने सलवार कमीज, कुरते, टोली, साड़ियाँ उपलब्ध हैं।
(11) बनारस की कढ़ाई- यह कढ़ाई जरी कला नाम से जानी जाती है। रेशमी, सूती वस्त्रों पर जरी का काम होता है। एक समय था जब इसके लिए शुद्ध सोने-चाँदी के तारों, हीरे-जवाहरात का प्रयोग होता था पर आज जब ये चीजें महँगी होती जा रही हैं इनका स्थान अन्य धातु के चमकते तारों ने ले लिया है।
(12) बिहार की कढ़ाई- यह कढ़ाई बंगाल का ‘कांथा’ के समान होती है। ‘सुजनी’ (Sujani) के नाम से जाना जाता है। इसमें भी फटी पुरानी साड़ी की तह लगा ली जाती है, नीचे एक अच्छी मजबूत साड़ी रखी जाती है फिर चारों ओर रनिंग स्टिच से बॉर्डर बनाकर बीच में चारखाने बनाये जाते हैं। हर खाने में उसमें आकार के अनुसार रनिंग स्टिच से हाथी, मोर, तोता बनाया जाता है।
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