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राजनीतिक संस्कृति का अर्थ तथा परिभाषाएँ
राजनीतिक संस्कृति, जिसे निश्चितता की दृष्टि से उपसंस्कृति कहाँ जाता है, राजनीतिक के आवश्यकता के परिणामस्वरूप बनती है। राजनीतिक संस्कृति के आचरण का सम्बन्ध समाज में उन नियमों, धारणाओं और विश्वासों के निर्माण से है जो सत्ता पर आधारित होते हैं। मानव समाज के अत्यन्त प्राचीन समय से मानव को समाज के किसी निश्चित स्थान से निकली हुई शक्ति के नियमन की जरूरत रही है। उस शक्ति को मान्यता देकर उसके निर्वाह के लिए उसके अनुकूल धारणायें प्राप्त की हैं। राजनीतिक संस्कृति की गत्यात्मकता अन्य सामान्य संस्कृतियों की तुलना में अति तीव्र होती है क्योंकि नियमन के कारण व्यक्ति के आचरण पर आघात होता है जिससे वह इसके प्रतिकूल प्रत्याघात करता है और नियमन केन्द्र की दिशा को बदलने का प्रयास करता है। राजनीतिक संस्कृति की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं—
ऑमण्ड और पॉवेल के अनुसार, “राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों की राजनीति के प्रति वैयक्तिक अभिवृत्तियाँ व अभिमुखीकरणों के प्रतिमान हैं।”
सिडनी वर्बा के अनुसार,, “राजनीतिक संस्कृति के आनुभविक विश्वासों, अभिव्यक्तात्मक और मूल्यों की वह व्यवस्था सन्निहित है जो उस परिस्थिति अथवा दशा को परिभाषित करती है जिसमें राजनीतिक क्रिया सम्पन्न होती है।”
ल्यूशियनपाई के अनुसार, “राजनीतिक संस्कृति अभिवृत्तियों, विश्वासों तथा मनोभावों का ऐसा पुंज है जो राजनीतिक क्रिया को अर्थ एवं व्यवस्था प्रदान करता है तथा राजनीतिक व्यवस्था में व्यवहार को नियन्त्रित करने वाली अन्तर्निहित पूर्व धारणाओं तथा नियमों को बनाता है। “
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राजनीतिक संस्कृति व्यवस्था के सदस्यों में राजनीति के प्रति वैयक्तिक अभिवृत्तियों और अभिमुखीकरण का प्रतिमान है।
राजनीतिक संस्कृति के लक्षण तथा तत्व
मोटे रूप से राजनीतिक संस्कृति के तीन प्रमुख तत्व या लक्षण बताये जा सकते हैं। ये हैं-
1. आनुभविक विश्वास, 2. मूल्य अभिरुचियाँ, और 3. प्रभावी अनुक्रियाएँ। यथा
1. आनुभविक विश्वास (Empirical Beliefs) – आनुभविक विश्वास का सम्बन्ध व्यक्ति की राजनीतिक विश्व के बारे में समझ से है। इससे राजनीतिक व्यवस्था में लोगों की दिलचस्पी या उसके प्रति रूखेपन का ज्ञान होता है। राजनीतिक संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण राजनीतिक समाज के व्यक्तियों की आस्थाओं और विश्वासों का है। इसी के आधार पर शासकों और शासितों के पारस्परिक सम्बन्धों का नियमन होता है। व्यक्ति यह विश्वास राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया में स्वयं ही के अनुभव से प्राप्त करता है। यह विश्वास चाहे गलत हो या सही, किन्तु राजनीतिक संस्कृति के प्रमुख लक्षण के रूप में हर समाज में पाए जाते हैं। विभिन्न राजनीतिक संस्कृतियों में मात्रात्मक अन्तर भी इसी कारण पाये जाते हैं क्योंकि राजनीतिक समाज के व्यक्तियों के विश्वास अपनी राजनीति के बारे में कई कारणों से भिन्न हो सकते हैं। इन विश्वासों में इतना अन्तर हो सकता है कि राजनीतिक संस्कृतियों की प्रकृति में मौलिक अन्तर आने की स्थिति उत्पन्न हो जाए। अतः राजनीतिक संस्कृति का यह लक्षण महत्वपूर्ण है।
2. मूल्य अभिरुचियाँ (Value Preference) — मूल्य अभिरुचियाँ, उन व्यक्तिगत सद्गुणों, जिनमें वृद्धि करना है तथा वे सार्वजनिक लक्ष्य, जिन्हें राजनीतिक समाज के लिये प्राप्त करना है, से सम्बद्ध आस्थाएँ और विश्वास हैं। इन्हीं के आधार पर राजनीतिक व्यवस्थाओं में अस्थिरताएं, संघर्ष और असन्तोष प्रकट होते हैं। जब नागरिकों की मूल्य-व्यवस्था और शासकों की मूल्य अभिरुचियाँ अलग-अलग हो जाती हैं तो राजनीतिक व्यवस्था संकट के फंदे में फंस जाती है। ऐसी व्यवस्थाओं से आए दिन उथल-पुथल और परिवर्तन होते रहते हैं। विकासशील राज्यों में ऐसी मूल्य अभिरुचियों का स्थायीकरण नहीं होने के कारण उनमें सांस्कृतिक विविधताएँ पाई जाती हैं जिनके आधार पर उनके अन्दर होने वाले अनेक घटनाक्रमों को समझा जा सकता है।
3. प्रभावी अनुक्रियाएँ – प्रभावी अनुक्रियाएँ ज्ञात राजनीतिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के प्रति अनुकूल मनोभावों को कहा जाता है। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक समाज के व्यक्तियों को अपने राष्ट्र, देश या व्यवस्था पर गर्व हो सकता है। राजनीति पर लोगों की धारणाएँ राजनीतिक संस्कृति को नया रंग देने में समर्थ होती हैं।
ये लक्षण हर राजनीतिक संस्कृति में समान रूप से नहीं पाये जाते हैं। हर राजनीतिक संस्कृति में इन लक्षणों में मात्रात्मक अन्तर पाए जाते हैं और इस कारण, राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा एक-सी होते हुए भी हर व्यवस्था में उसकी मात्रा या अंश अलग-अलग पाया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हर, राजनीतिक व्यवस्था की राजनीतिक संस्कृति में मात्रात्मक अन्तर हो सकते हैं।
राजनीतिक संस्कृति उपागम की तुलनात्मक राजनीति में उपयोगिता एवं महत्व
व्यक्ति की राजनीतिक चिन्तन में महत्ता बढ़ जाने से चिन्तन व्यावहारिक होता गया। इसके साथ ही राज्य व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने की आवश्यकता बढ़ी व राजनीति के प्रति उनका रुझान जानने की आवश्यकता भी तीव्रता से बढ़ी क्योंकि-
(i) राजनीतिक व्यवस्था व व्यक्ति के सम्बन्धों, उनके कार्यों में एक निश्चित सम्बन्ध है। राजनीतिक व्यवस्था की कार्य विधि का वहाँ की राजनीतिक चेतना का अध्ययन करने पर आसानी से अध्ययन किया जा सकता है। परन्तु इस प्रकार की विधि से राजनीतिक व्यवस्था की कुछ हद तक ही सही जानकारी मिलती है।
(ii) राजनीतिक संस्कृति के अध्ययन से छोटे समूहों व व्यक्तियों का वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकते हैं इसमें सूक्ष्म विश्लेषण विधि अपनाई जाती है।
पीटर मार्कल ने अपनी पुस्तक Modern Comparative Politics में राजनीतिक संस्कृति उपागम के निम्नलिखित लाभ बताये हैं-
1. राजनीतिक संस्कृति का सत्यापन सम्भव- मर्कल की मान्यता है कि राजनीतिक संस्कृति अवधारणा से सम्बन्धित आस्थाओं और विश्वासों का माप व आनुभविक सत्यापन सम्भव है। अन्य किसी उपागम के विश्वासों को मापना इतना सरल नहीं।
2. एक कालअवधि में आने वाले परिवर्तनों का संकेत सम्भव- इस उपागम के द्वारा लोकप्रिय धारणाओं में एक काल अवधि में आने वाले परिवर्तनों का स्पष्ट संकेत किया जा सकता है, इससे भावी दिशा का संकेत दिया जा सकता है।
3. प्रति राष्ट्रीय तुलनाएँ तटस्थ तथा परिमाणात्मक आधार पर सम्भव- इस उपागम के द्वारा अब प्रति राष्ट्रीय तुलनाएँ भी तटस्थ और परिमाणात्मक आधार पर की जा सकती हैं जबकि इससे पूर्व यह तुलनाएँ प्रकार्यात्मक आधार पर ही सम्भव थी।
4. पृथक्-पृथक् तत्वों को एकीकृत करने में सहयोगी- राजनीतिक संस्कृति विविध व पृथक्-पृथक् प्रत्ययों को राजनीतिक व्यवस्था की अपनी अवधारणायें एकीकृत करने का अवसर प्रदान करती है।
प्रो. एस. सी. वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘माडर्न पॉलिटिकल थ्योरी’ में राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा की आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण देन मानी है! उन्होंने अपनी निम्न उपयोगिताएँ बतायी हैं-
1. गत्यात्मक सांस्कृतिक इकाई के रूप में सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित – डॉ० एस० पी० वर्मा का मत है कि राजनीतिक संस्कृति के प्रत्यय से राजनीतिक समुदाय या समाज पर एक गत्यात्मक सामूहिक सत्ता के रूप में अध्ययन करने के लिए ध्यान आकर्षित हुआ है। इससे व्यक्ति के स्थान पर सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अध्ययन का केन्द्र बना है।
2. व्यष्टि और समष्टि उपागमों को संयुक्त किया – डॉ० एस० पी० वर्मा के मतानुसार राजनीतिक संस्कृति दृष्टिकोण ने इस बात पर बल दिया कि सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन व निरन्तरता की गत्यात्मकताओं का अध्ययन किया जाए। इसी आधार पर इसमें व्यष्टि और समष्टि अध्ययनों को मिलाना आवश्यक गया। अतः स्पष्ट है कि इस उपागम ने तुलनात्मक राजनीति के व्यष्टि और समष्टि उपागमों को संयुक्त किया है।
3. विषय क्षेत्र को व्यापक किया है- राजनीतिक संस्कृति उपागम ने राजनीति “शास्त्रियों को उन सामाजिक और आर्थिक कारकों का भी अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया, जिनसे किसी देश की राजनीतिक संस्कृति का रूप निर्धारित होता है।
4. राजनीतिक विकास की विभिन्न दिशाओं को समझने में सहायक – इस उपागम ने यह समझने में भी सहायता की क्यों विभिन्न राजनीतिक समाज राजनीतिक विकास की विभिन्न दिशाओं में जाने लगे हैं आदि।
अतः स्पष्ट है कि व्यवहारवादी विश्लेषणों में जनमत चुनाव, नेताओं ने भाषण आदि का अध्ययन किया जाता है, परन्तु इस प्रकार का विश्लेषण तब तक सही नहीं हो सकता जब तक कि उसके पीछे क्या राजनीतिक संस्कृति है— व्यक्तियों की क्या राजनीति है आदि का अध्ययन नहीं किया जाये। इस प्रकार राजनीतिक संस्कृति राजनीतिक व्यवहारवाद में सहयोग देती है।
राजनीतिक व्यवस्था में राजनीति संस्कृति का मिश्रण होता है— व्यक्तियों का राजनीतिक सम्मान भी बदलता रहता है जैसे संक्रमणकालीन राजनीतिक व्यवस्था पहले Parochial से Subjective में बदलती है फिर Participant हो जाती है। इस प्रकार राजनीतिक संस्कृति का वर्गीकरण बहुमत बहुत से आधार पर कर सकते हैं जिनमें तीनों राजनीतिक संस्कृतियों का सम्मिश्रण व हो।
विकासशील देशों में पाश्चात्य संविधानवाद समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ है। विकासशील देशों में समस्याओं का समाधान न होने के कारण अव्यवस्था तथा अराजकता की स्थिति पैदा हो गई है। इसलिए संविधानवाद के सिद्धान्तों को सही तथा आदर्श रूप में लागू करने पर ही विकासशील देशों में संविधानवाद सच्चे अर्थों में प्राप्त कर सकते हैं।
राजनीतिक संस्कृति उपागम की आलोचना या सीमाएँ
राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा की यद्यपि अत्यधिक उपयोगिता सिद्ध हुई है। तथापि विद्वानों ने इसकी निम्न सीमाएँ या कमियाँ बतायी हैं-
1. पुराने विचारों का ही नया नाम- कुछ राजनीतिशास्त्रियों की मान्यता है कि राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा पुराने विचारों को ही नया नाम देने का प्रयास है। इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए क्योंकि इसमें रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रिया के कीटाणु विद्यमान हैं।
2. सर्वमानयता का अभाव – यह सिद्धान्त पुराने विचारों पर आधारित है जिनमें न तो कोई सर्वमान्य सांस्कृतिक तत्व निर्धारित हो पाए हैं और न पद्धतियों पर ही मतैक्य है। राजनीतिक संस्कृति निरन्तर अधिक संश्लिष्ट हो जाती है, उसकी संरचनाओं तथा संस्थाओं का निरन्तर विकास होता है, ऐसी अवस्था में सिद्धान्त निर्माण का कार्य कठिन ही है।
3. तार्किक दुर्बलता- प्रायः राजनीतिक संस्कृति को राजनीतिक संरचनाओं का निर्दिष्ट तथा निर्धारक तत्व माना जाता है और दूसरी तरफ इसे सांस्कृतिक मूल्यों का परिणाम भी बताया जाता है। इस धारणा में तार्किक दुर्बलता स्पष्ट झलकती है।
4. संस्कृति तथा राजनैतिक संस्कृति के तत्वों में भेद कठिन- राजनीतिक संस्कृति की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि यह अवधारणा संस्कृति से अपना पृथक स्वरूप लेकर चलती है, लेकिन संस्कृति तथा राजनीतिक संस्कृति के तत्वों में भेद करना बहुत कठिन तथा समस्याजनक कार्य है।
निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण समाज को राजनीतिक इकाई के रूप में अध्ययन करने का यह एक महत्वपूर्ण उपागम है। इसने राजनीतिक व्यवस्था के सामाजिक मनोवैज्ञानिक पर्यावरण के व्यापक तथा व्यवस्थित विश्लेषण में, सूक्ष्म तथा वृहद को जोड़कर अध्ययन करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
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