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राष्ट्रीय नीति व भाषाओं के विकास पर प्रकाश डालें। (Throw light on the national policy and development of languages)
‘शिक्षा की राष्ट्रीय नीति’ के अन्तर्गत भाषाओं के विकास पर बल दिया गया है और विभिन्न भाषाओं के विषय में निम्नलिखित विचार अक्षरबद्ध किये गये हैं-
(अ) हिन्दी – ‘शिक्षा की राष्ट्रीय नीति’ में हिन्दी के विकास से सम्बन्धित विचार इस प्रकार हैं-
(i) हिन्दी का विकास करने के लिये प्रत्येक प्रकार का सम्भव प्रयास किया जाए। (ii) सम्पर्क भाषा (Link Language) के रूप में हिन्दी का विकास करते समय इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाए कि वह भारत की मिश्रित संस्कृति के सब व्यक्तियों के लिये अपने विचारों को व्यक्त करने का उचित माध्यम बन जाए। (iii) अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के माध्यम से शिक्षा देने वाले कॉलेजों और उच्च शिक्षा की संस्थाओं की स्थापना को प्रोत्साहन दिया जाए।
(ब) संस्कृत – ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ में संस्कृत सम्बन्धी विचार निम्नलिखित हैं-
(i) संस्कृत भारतीय भाषाओं की वृद्धि और विकास के लिये विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। साथ ही इसने देश की सांस्कृतिक एकता को सुरक्षित रखने में अपूर्व योगदान दिया है। अतः इसके अध्ययन को प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।
(ii) विद्यालय और विश्वविद्यालय, दोनों स्तर पर संस्कृत के अध्ययन की सुविधाएँ अधिक उदार रूप से दी जायें।
(iii) संस्कृत के शिक्षण के लिये नवीन शिक्षण विधियों का विकास किया जाए।
(iv) प्रथम और द्वितीय डिग्री कोर्सों के उन पाठ्यक्रमों में, जिनमें आधुनिक भारतीय भाषाएँ, प्राचीन भारतीय इतिहास, भारतीय दर्शन आदि विषय होते हैं, संस्कृत का अध्ययन विशेष रूप से लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। अतः इन दोनों कोसों में इसके शिक्षण की सम्भावनाओं की खोज की जाए।
(स) क्षेत्रीय भाषाएँ – क्षेत्रीय भाषाओं (Regional Languages) में समस्त भारतीय भाषाओं को स्थान देकर, निम्नलिखित बातें कही गई हैं-
(i) भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य का विकास करके ही शैक्षिक एवं सांस्कृतिक उन्नति सम्भव है । अतः अदम्य उत्साह से उनका विकास किया जाना चाहिए।
(ii) भारतीय भाषाओं का विकास करके ही भारतीयों की रचनात्मक शक्तियों को क्रियाशील बनाया जा सकता है, शिक्षा के स्तरों में सुधार किया जा सकता है। जन साधारण तक ज्ञान को पहुँचाया जा सकता है और लोगों के बीच की खाई को समाप्त किया जा सकता है। अतः भारतीय भाषाओं के विकास के लिये उत्साह से कार्य किया जाए।
(iii) भारतीय भाषाएँ पहले से ही प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम हैं अब आवश्यकता इस बात की है, कि विश्वविद्यालय स्तर पर भी इनको शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए द्रुत गति से कार्य किया जाए।
(द) अन्तर्राष्ट्रीय भाषाएँ – भारतवासियों के लिये अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के ज्ञान की आवश्यकता का अनुभव करके, ‘शिक्षा नीति’ में निम्नांकित बातों का उल्लेख किया गया है- (i) अंग्रेजी और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के अध्ययन पर विशेष बल दिया (ii) विज्ञान और टैक्नोलॉजी के ज्ञान की संसार में अति तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। भारतवासियों को इस ज्ञान को न केवल प्राप्त करना है, वरन् उसमें अपना योगदान भी सुरक्षित रखना है। अतः उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं और विशेष रूप से अंग्रेजी का अध्ययन करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1979) तथा भाषाओं का अध्ययन (National Education Policy (1979) and Study of Languages)
तत्कालीन भारत सरकार ने फरवरी 1979 को अपनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की। इस नीति में भाषा-समस्या के समाधान के लिये निम्नलिखित बातों पर बल दिया गया है-
(i) प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम रखा जाए। (ii) शिक्षा के अंतर स्तरों पर क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। (iii) माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र को लागू किया जाए । यह सूत्र हिन्दी तथा अहिन्दी में निम्न प्रकार होगा-
(अ) हिन्दी क्षेत्रों के लिये त्रिभाषा सूत्र – हिन्दी तथा अंग्रेजी के साथ एक आधुनिक भारतीय भाषा । आधुनिक भारतीय भाषा के अन्तर्गत किसी दक्षिण भाषा को वरीयता प्रदान की जाए ।
(ब) अहिन्दी क्षेत्रों के लिये त्रिभाषा सूत्र- क्षेत्रीय भाषा तथा अंग्रेजी के साथ हिन्दी – को स्थान प्रदान किया जाए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) तथा भाषाओं का अध्ययन (National Education Policy (1986) and Study of Languages)
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में भाषाओं के सम्बन्ध में उस नीति को दोहराया गया है, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति सन् 1968 में स्पष्ट की गई थी। संक्षेप में इस नीति में निम्न बातों पर बल दिया गया-
(अ) विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा का माध्यम- इस नीति में विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में आधुनिक भाषाएँ अपनाने पर बल दिया गया है तथापि, मातृभाषा, जो आठवीं अनुसूची में शामिल किसी आधुनिक भारतीय भाषा से भिन्न हो सकती है, के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता को मान्यता दी गई।
(ब) त्रिभाषा सूत्र का कार्यान्वयन – त्रिभाषा सूत्र में हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के अतिरिक्त आधुनिक भारतीय भाषा अधिमानतः दक्षिणी भाषाओं में एक के अध्ययन का और अहिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ हिन्दी के अध्ययन का प्रावधान है, सन् 1986 की कार्य योजना को तैयार करते समय यह अनुभव किया गया कि निम्नलिखित कारणों से त्रिभाषा सूत्र का कार्यान्वयन संतोषजनक ढंग से न हो सका-
(i) माध्यमिक स्तर पर सभी भाषाएँ अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ायी जा रही हैं। (ii) कुछ राज्यों में आधुनिक भारतीय भाषा के स्थान पर एक प्राचीन भाषा को प्रतिस्थापित किया गया है। (iii) हिन्दी भाषी राज्यों में दक्षिण भारतीय भाषाओं के शिक्षण के लिये कोई उपयुक्त प्रावधान नहीं किया गया। (iv) तीन भाषाओं के अनिवार्य अध्ययन की अवधि भिन्न-भिन्न है। (v) प्रत्येक भाषा के छात्रों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले सक्षमता के स्तर स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं किये गये हैं।
सन् 1992 की कार्य-योजना में अपेक्षित कार्यवाही में निम्नलिखित शामिल होंगे- (i) केन्द्रीय सरकार हिन्दी शिक्षकों की नियुक्ति के लिये और हिन्दी भाषी राज्यों/संघ शासित प्रशासकों को सहायता प्रदान करना जारी रखेगी। (ii) त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की बाधाओं को दूर करने के लिए सरकार कदम उठायेगी।
(स) छात्रों की भाषा-दक्षताओं में सुधार – शिक्षा विभाग के अधीन सभी भाषा संस्थानों को स्कूल स्तर पर छात्रों की भाषा दक्षता में सुधार के लिए शामिल किया गया है 1 ये संस्थान भाषा शिक्षकों का प्रशिक्षण, शिक्षक सामग्री को तैयार करना, भाषा दक्षता जाँच (टेस्ट) तथा क्षेत्र सर्वे आदि कार्यक्रमों को चला रहे हैं। केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान 13 आधुनिक भारतीय भाषाओं में 10 महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहा है। केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान आधुनिक भारतीय भाषाओं में भाषा प्रवीणता परीक्षणों को तैयार कर रहा है। अब तक वह छः भाषाओं के लिये परीक्षण बना चुका है।
भाषा समस्या के कारण (Causes of Language Problem)
इस समस्या के अनेक कारण हैं- (i) हमारे देश में अनेक भाषाएँ हैं। यूँ तो इस समय देश में लगभग 850 भाषाओं का प्रयोग होता है, लेकिन उनमें से 22 भाषाओं को राष्ट्रीय महत्व की भाषाओं के रूप में मान्यता प्राप्त है।
(ii) सामान्य व्यक्तियों के लिये प्रान्तीय भाषा का ज्ञान ही आवश्यक है। उन्हें जब प्रान्त से बाहर ही नहीं जाना है और न सरकारी नौकरियाँ करनी हैं तो उनके लिये प्रान्तीय भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का जानना अनावश्यक है, व्यर्थ है।
(iii) देश में अंग्रेजी का वर्चस्व निरंतर बढ़ रहा है। आज हमारे देश में यह स्थिति है कि उच्च वर्ग के साथ-साथ मध्यम एवं निम्नवर्ग के लोग भी बच्चों को अंग्रेजी अवश्य पढ़ाना चाहते हैं।
(iv) फिर यह त्रिभाषा सूत्र तुष्टीकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और हमारे अथवा किसी अन्य यूरोपीय भाषा के अध्ययन की बात मानसिक दासता की प्रतीत है। इसका अध्ययन तो कुछ मेधावी छात्रों के लिए ही लाभकारी हो सकता है।
(v) हमारे देश में राष्ट्रीय भावना का अभाव है। इसके अभाव में अहिन्दी लोग राष्ट्रभाषा हिन्दी का अध्ययन करने को तैयार नहीं हैं और एकमात्र हिन्दी को संघीय भाषा मानने के लिये भी तैयार नहीं है।
(vi) वोट की राजनीति भाषायी समस्या का सबसे बड़ा कारण है, जब तक सीमित हित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सोचना शुरू नहीं होगा, भाषायी समस्या हल नहीं हो सकती।
समस्या का समाधान
सरकार इस समस्या के लिये जो समाधान खोजती है, उनका विरोध होने लगता है परंतु शिक्षाविदों को इस ओर ध्यान देना चाहिये-
(i) वर्तमान में जो त्रिभाषा सूत्र है उसे अस्वीकार किया जाए, क्योंकि इसमें इतने सुधार होने के बावजूद भी यह अभी तक अपनाने योग्य नहीं बन सका।
(ii) प्रत्येक प्रान्त में प्रान्तीय भाषा की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी ही जाती है, उसे यथावत् बनाए रखा जाए।
(iii) प्राथमिक स्तर से ही प्रादेशिक भाषा के अतिरिक्त अन्य राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था की जाए परंतु इनका अध्ययन अनिवार्य न हो, मेधावी छात्रों को इनके अध्ययन की सुविधा हो, वे किन्हीं एक या दो भाषाओं को ले सकते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य बच्चों की भाषाओं के अध्ययन का बोझ नहीं बढ़ेगा और साथ ही मंधावी छात्रों की आगे बढ़ने के लिये राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भाषाएँ सीखने के अवसर प्राप्त होंगे, वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने योग्य, बनेंगे, राष्ट्र के विभिन्न विशिष्ट क्षेत्रों में कार्य करने योग्य बनेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में कार्य करने योग्य बनेंगे।
(iv) सभी प्रान्तों में प्राथमिक स्तर से ही राष्ट्र भाषा हिन्दी और अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी को ऐच्छिक भाषाओं के रूप में पढ़ाने की व्यवस्था अवश्य की जाए। शेष भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था सुविधा एवं आवश्यकतानुसार की जाए।