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रूसो का शिक्षा संबंधी विचार | Rousseau’s Views on Education in Hindi

रूसो का शिक्षा संबंधी विचार
रूसो का शिक्षा संबंधी विचार

रूसो का शिक्षा संबंधी विचार (Rousseau’s Views on Education)

रूसो ने अपनी पुस्तक ‘सोशल कान्ट्रेक्ट’ में इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि मनुष्य की स्वतन्त्रता के महत्त्व के कारण सामाजिक व्यवस्था की समस्या जटिल हो जाती है। वह तो यहाँ तक कहता है कि मानव व्यक्ति तब तक मानव नहीं है जब तक कि वह स्वतन्त्र न हो। यदि वह बन्धन में है, तो उसे मानव से कम समझना चाहिए। फिर भी अनियन्त्रित स्वतन्त्रता से न तो व्यक्ति का अपना ही कल्याण होता है और न समाज का ही अस्तु, स्पष्ट है कि किसी न किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था आवश्यक होती है, परन्तु वह मानव की स्वतन्त्रता की सुरक्षा करने वाली हो। यह कुछ बड़ी व्यवस्था होती है, परन्तु ऐसी होती है कि उसको जनतंत्र द्वारा अधिक सन्तोषपूर्ण ढंग से पूरा किया जा सकता है। यद्यपि इसमें मानव व्यक्ति को राज्य की इच्छा का अनुसरण करने में अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता का बलिदान करना पड़ता है तथापि वह राज्य की इच्छा का निर्धारण करने वाले निर्णयों में भाग लेकर अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखता है।

उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रकृतिवाद के अनुसार सामाजिक मूल्य संश्लेषणात्मक होते हैं, जिनका परिणाम वे समझौते होते हैं, जिनमें मानव व्यक्ति अपने आपको एक सूत्र में बाँध लेते हैं। वे गौण श्रेय होते हैं और उनको वैयक्तिक श्रेयों की भाँति वरीयता नहीं प्रदान की जाती। वे उनके अप्रत्यक्ष परिणाम अराजकता से उत्पन्न होने वाले महान अमंगलों के निवारण की कामना के रूप में होते हैं। वे ऐसे ऐन्द्रिक मूल्य नहीं होते, जिनका निर्धारण समाज की प्रकृति द्वारा किया जाय और जिनको मानव व्यक्ति अलग-अलग न प्राप्त कर सकें । यह बात उस दशा में भी लागू होती है, जबकि उन मूल्यों की अव्यवस्था और संघर्ष से रक्षा करने के लिये किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता न प्रतीत हो। मनुष्य का अस्तित्व समाजरूपी अंगों पर निर्भर है। यद्यपि मनुष्य प्रकृति के आश्रित होता है, तथापि जहाँ तक उसके सामाजिक सम्बन्धों का प्रश्न है वह न्यूनाधिक रूप में आत्म-निर्भर होता है। उसकी कुछ निश्चित आवश्यकतायें ऐसी नहीं होतीं कि उनका उद्भव समाज से हुआ हो। वे ऐसी घटनायें या आवश्यकतायें होती हैं, जिनका निवारण उनके संशोधन के हित में की गयी सामाजिक व्यवस्था के द्वारा होता है। शिक्षा द्वारा इसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।

मानव शक्ति स्वयं अपने से भी संघर्ष करता है। वह प्रतिष्ठा और सम्मान की प्रतिस्पर्द्धा रखता है । वह आपत्तिजनक होता है और उसमें अधिकार तथा शक्ति की पिपासा होती है । मानव व्यक्तियों ने अपने आपको ऐसी नियंत्रणहीन स्थिति में रख छोड़ा है जो अव्यवस्था और स्वार्थपूर्ण संघर्ष की अराजकता में उनका विनाश ही कर डालेगी। ‘मानव सामाजिक रूप में अपने से अपनी रक्षा कर सके इसका एकमात्र उपाय यही है कि मानव व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता किसी ऐसी श्रेष्ठ सामाजिक शक्ति अथवा व्यवस्था को सौंप दें, जिसकी आज्ञा का पूर्णतः पालन वह उसको मर्त्य देवता मानकर करता रहे।

ठीक इसी प्रकार रूसो के प्रकृतिवाद ने मनुष्य का उद्भव समाज से कहीं अधिक प्रकृति में माना। उसने मनुष्य को प्रकृति को बच्चा यहाँ तक माना है और समाज को उसके इतना प्रतिकूल समझा है कि उसने अपने “एमील” नामक ग्रंथ में एमील को “बालक को किशोरावस्था” के आगमन तक समाज के प्रभाव से दूर रखने का सुझाव प्रस्तुत किया। रूसो ने मानव समाज की पुनर्रचना के लिए प्रकृतिवाद शिक्षा को उपयुक्त साधन माना है।

रूसो की एमील तथा शिक्षा- रूसो के अनुसार शिक्षा के दो रूप हैं—

(1) सार्वभौमिक शिक्षा, (2) घरेलू शिक्षा।

सार्वभौमिक शिक्षा राज्य सरकार द्वारा नियन्त्रित होती है तथा घरेलू शिक्षा घर पर ही दी जाती है। पहले प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था तो प्लेटो ने अपनी ‘रिपब्लिक’ नामक पुस्तक में दी है तथा दूसरे प्रकार की व्यवस्था का वह स्वयं वर्णन करता है। शिक्षा के सूत्रों से युक्त ‘एमील’ एक कहानी के रूप में प्रस्तुत है। रूसो ने अन्य शिक्षा सम्बन्धी बातें लिखी हैं, पर वह एमील के आधार पर ही परखा जाता रहेगा।

एमील परस्पर विरोधी बातों से भरपूर है। रूसो के मतानुसार समाज का चरित्र इतना अधिक गिर चुका है कि उसके पुनरुत्थान के सभी मार्ग अवरुद्ध हो चुके हैं। फिर भी समाज को योग्य बनाने के लिए ही वह एमील की शिक्षा समाज से दूर-प्रकृति के क्रोड़ में देना चाहता है। नवीन समाज की रचना के लिए वर्तमान समाज पर विविध ढंग से वह रोष प्रकट करता है। रूसो की शिक्षा निषेधात्मक है और वह विशेषकर 12 वर्ष की अवस्था तक किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं देना चाहता। उसका प्रकृति की ओर लौटने का अर्थ बर्बरता अथवा पाशविकता की ओर लौटने का नहीं था वरन् उसके द्वारा बालक के सम-विकास के लिए उचित अवसर देना था। प्रज्ञा संवेदना तथा स्वभाव से ऊपर नहीं होना चाहिए।

रूसो का विचार है कि शिक्षा निहित योग्यता, सामाजिक वातावरण तथा भौतिक वातावरण पर ही आधारित है। शिक्षा हमें प्रकृति, मनुष्य तथा वस्तुओं से मिलती है। इन “तीनों की समता ही अच्छी शिक्षा की परिचायक है। परन्तु मनुष्य तथा प्रकृति में सदैव ही नहीं बनती । इसलिए मनुष्य को मनुष्य अथवा नागरिक बनने के लिए किसी एक का चुनाव करना होगा। रूसो का चुनाव मनुष्य है और इसीलिए वह प्राकृतिक शिक्षा को सामाजिक शिक्षा से अच्छी मानता है।

रूसो द्वारा शिक्षा के लिए चुना गया व्यक्ति केवल भाववाचक संज्ञा है। मनुष्य के सार्वभौमिक गुणों की व्याख्या पर रूसो का अधिक महत्त्व है, इसलिये रूसो प्रजातान्त्रिक शिक्षा का स्रोत है। कुछ कारणवश उसे एमील को एक निश्चित व्यक्तित्व देना पड़ा है, अन्यथा वह तो शिक्षा के सिद्धान्तों का एक व्यापक रूप से वर्णन करता है। रूसो की शिक्षा जनसाधारण के लिए है तथा सार्वभौमिक है, किन्तु उसने शिक्षा प्रणाली का वर्णन ठीक उसके विपरीत किया है।

उसकी प्रसिद्ध पुस्तक एमील का एक उद्देश्य शिक्षा को कृत्रिमता से बचाना भी था। इसीलिए उसने ओजपूर्ण भाषा में शिक्षा के प्रति उत्तेजनात्मक शब्दों का प्रयोग किया है। एमील के प्रथम तीन भाग पुरुष की शिक्षा तथा अन्तिम एक स्त्री की शिक्षा से सम्बन्धित है। उसका कथन है कि वह साधारण योग्यता वाले बालक को ही शिक्षा देना चाहता है। साधाण व्यक्ति की शिक्षा सर्व-साधारण की शिक्षा हो सकती है। रूसो मनोविज्ञान के पण्डित की भाँति उचित समय तथा रुचि के अनुकूल शिक्षा देना चाहता है। प्रारम्भ में केवल शारीरिक विकास, तत्पश्चात् 12 वर्ष की आयु पर अधिक ठोस रूप से शिक्षा देना उचित है उसने शिक्षा को ‘शैशव, बाल्यावस्था, कैशोर्य तथा प्रौढ़ता की ओर’ – चार भागों में बाँट दिया है।

रूसो प्लेटो की भाँति शिक्षा का प्रारम्भ जन्म से ही मानता है। उसके मत से शिशु काल की शिक्षा शिशु को स्वतन्त्रता के योग्य बनाती है।

प्रायः रूसो की बातें एक-दूसरे की विरोधी हैं। रूसो इसका कारण पुस्तक का बड़ा होना मानता है फिर वह स्वयं भी शब्दों की व्याख्या ठीक से नहीं करता जैसे ‘प्रकृति’ शब्द अस्पष्ट रूप से प्रयुक्त किया गया है। यह अस्पष्टता भी परस्पर विरोध का कारण है, पर इन बातों से उस पुस्तक का महत्त्व घटता नहीं।

रूसो को स्वतन्त्रता बहुत प्रिय अधिकारों से स्वतन्त्रता अधिक मान्य है “वही व्यक्ति स्वतन्त्र है जो उसी बात की कामना करता है जो करना चाहता है, और वही करता है जो चाहता है।”

‘सुव्यवस्थित स्वतन्त्रता’ उनकी प्रारम्भिक शिक्षा का उद्देश्य है। यह उद्देश्य मान्टेसरी के उद्देश्य से मिलता-जुलता है। स्वतन्त्रता निषेधात्मक शिक्षा द्वारा ही मिलती है । यह शिक्षा बालक को “स्वतन्त्रता आवश्यकता का वास्तविक रूप है।” तथा ‘प्रकृति पर अधिकार उसके आदेश मानने से ही सम्भव है’ इत्यादि समझाती है। समाज में प्राकृतिक नियमों की निरन्तरता का अभाव है, इसलिए प्रकृति के नियम बालक को स्वयं सीखने चाहिये ।

रूसो की शिक्षा का मूल उद्देश्य भौतिक है। इसलिए वह बालक को व्यक्तियों की बजाय वस्तुओं पर निर्भर रखना चाहता है। वस्तुओं की निर्भरता, नैतिकता तथा अनैतिकता की मध्यावस्था है निषेधात्मक शिक्षा में वस्तुओं की निर्भरता मुख्य है। इसमें मनुष्य अथवा शिक्षा द्वारा दिये गये ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। 5 से 12 वर्ष तक की अवस्था के लिए इस प्रकार की शिक्षा ही उचित है। इन दिनों बालक केवल ‘बुद्धि सुषुप्त’ रहता है, ताकि भविष्य के प्रयोगों के वह योग्य हो जाये। ये वर्ष बड़े ही काल के वर्ष हैं। इसमें भविष्य के जीवन की तैयारी की जाती है। कहानियों का पठन-पाठन नहीं चाहता। शाब्दिक ज्ञान के विपरीत अनुभवों पर रूसो बल देता है। मनोविज्ञान के शास्त्रों की भाँति वह कहता है कि ऐसे पाठक से हम कुछ नहीं सीख सकते जिससे हम घृणा करते हैं ।

“प्रकृति की इच्छा है कि. बालक को बालक ही समझा जाय जब तक वह पूर्ण पुरुष न हो जाय”। ऐसे बालक रूसो के प्रकृति प्रेम तथा वस्तुस्थिति के निरीक्षण तथा अध्ययन पर आधारित होते हैं। रूसो भाषा को बोझ, भूगोल को देशों, जलवायु तथा नक्शों का व्यर्थ ज्ञान बताता है|

12 वर्ष तक शिक्षा केवल इन्द्रिय-शिक्षा है। प्लेटो से प्रभावित रूसो ‘दुर्बल शरीर को नैतिकता’ का कारण मानता है तथा दुर्बलता के कारण दुर्गणों का प्रवेश मानता है। अचानक अपने समय के समाज का विरोधी रूसो इस प्रकार के वाक्य लिख डालता है-” प्रत्येक वस्तु उस समय तक अच्छी होती है जब तक वह कर्त्ता के हाथों से निकली है, पर मनुष्य के हाथों में आते ही वह पतित हो जाती है ।”

रूसो हमारे प्रथम शिक्षक हाथ-पैर मानता है, इसलिए मान्टेसरी पद्धति के अनुरूप ही रूसो स्पर्शेन्द्रीय की शिक्षा देगा। इसी रूप में एक निश्चित शिक्षा-विधि को रूसो 12 वर्ष तक मान सकता है । श्रवण, स्वाद, सुगन्ध तथा दृष्टि इनकी शिक्षा के विषय में भी रूसो का ध्यान आकर्षित हुआ। प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा प्राप्त अनुभव का अनुमोदन उसी इन्द्रिय द्वारा होना चाहिए, न कि किसी अन्य इन्द्रिय द्वारा ।

‘एमील’ शिक्षा की तैयारी में संलग्न है। उसे अनुभव के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्रकार के ज्ञान से परिचय नहीं है। उसने अभी तक रट कर नामों को याद भी नहीं किया है।

12 से 15 वर्ष की अवस्था को यह कैशोर्य कहता है तथा उसे जीवन का बड़ा ही खतरनाक समय मानता है। बालकपन की निषेधात्मक शिक्षा के पश्चात् एमील को निश्चित शिक्षा देनी है। वह विषयों का ज्ञान नहीं, उनकी विधि का ज्ञान तथा रुचि की वृद्धि करना चाहता है । स्वयं-बोध पद्धति का वह पुजारी है। “बालक को ज्ञान इसलिए नहीं होना चाहिए. कि वह किसी के द्वारा कराया गया है वरन् इसलिए कि वह ज्ञान उसने स्वयं अर्जित किया है।”

व्यवसाय की शिक्षा तथा हाथों का प्रयोग उसे प्रिय है। पुस्तकों में संलग्नता इतनी अच्छी नहीं जितना हाथों का काम। इस व्यवस्था के लिए ‘योजना पद्धति’ का एक रूप रूसो ने दिया है। वह ‘एमील’ को कारखाने में काम करते देखना चाहता है। ‘करके सीखना’ ‘योजना पद्धति का वर्णन’ व्यावहारिकतावाद से पूर्व ही रूसो ने कर दिया है। केवल भाषण अथवा आदेशात्मक शिक्षा के वह विरुद्ध है। ‘रॉबिन्सन क्रूसो’ नाम की पुस्तक को अवश्य वह सबसे पहले पढ़ने को दे सकता है क्योंकि उसमें स्वावलम्बन तथा आत्म-विश्वास का सुन्दर चित्रण है। इसलिए रूसो की दृष्टि में वह विश्व की सर्वोत्तम पुस्तक है।

मनुष्यों के ऊपर निर्भरता का पाठ वह एकाएक नहीं दे सकता। इसीलिए वह मशीनों के काम की कला तथा व्यावसायिक शिक्षा, सहकारिता सिखाने के लिए दे सकता है। प्रत्येक मनुष्य की योग्यता तथा आवश्यकताओं में अन्तर है, इसलिए वह भिन्न-भिन्न कार्य करता है पर वह एक-दूसरे पर निर्भर रहता है। यही समाज का आधार है। रूसो को कतिपय विद्वान व्यक्तिवादी मानते हैं किन्तु वह वास्तव में समाज केन्द्रित दृष्टि वाला है। आर्थिक निर्भरता के कारण स्पष्ट करके रूसो मनुष्यों की एक-दूसरे पर निर्भरता का वर्णन करता है। इस काल में ही वह नैतिक, ऐतिहासिक तथा दार्शनिक बातों का ज्ञान देना चाहता है।

किशोरावस्था द्वितीय जन्म है और इसमें वस्तुओं के परिचय से ऊपर उठकर छात्र को मनुष्य के ज्ञान की आवश्यकता है। मनुष्यों के ज्ञान से प्रयोजन सामाजिक ज्ञान से है। शरीर तथा इन्द्रियों के विकास के पश्चात् प्रज्ञा तथा तर्क का विकास आवश्यक है। नैतिकता के स्तर पर पहुँचकर अब हम इतिहास का ज्ञान भी देना चाहेंगे। मनुष्य को इतिहास केवल महान् व्यक्तियों के कार्यों तथा उनकी जीवनी का ज्ञान दिलाने के लिए नहीं है वरन् समाज का ज्ञान कराने के लिए है, ताकि वह अपने को एक अजनबी न समझने लगे । भौतिक विज्ञान तथा व्यवसाय की शिक्षा — जिनमें रुचि हो, रूसो का मत है, देनी चाहिए ।

15 वर्ष की अवस्था में वह धर्म की शिक्षा देगा। वैसे, रूसो सहज-ज्ञानवादी है। उसके धर्म का आधार आत्मा की आवाज तथा प्रकृति है। कदाचित इस कारण रूसो को आत्मवादी या विचारवाद की संज्ञा रस्क ने दी है। देकार्ते की जीव तथा पुद्गल में गति को जोड़ कर रूसो महान दार्शनिक होने का परिचय भी देता है। देकार्ते का द्वितत्ववाद त्रुटिपूर्ण है । भनस् तथा पुल का सम्बन्ध केवल गति द्वारा’ ही सम्भव है अन्यथा इन विरोधी तत्त्वों में सम्बन्ध कैसा ? इस प्रकार रूसो एक ईश्वर का परिचय है। “यदि पुद्गलज में गति मुझे किसी इच्छा की ओर इंगित करती है तो पुद्गल का नियन्त्रित रूप किसी बुद्धि की ओर इंगित करता है।” तथा मनुष्य कर्म के लिए स्वतन्त्र है और इस प्रकार वह किसी अभौतिक तत्त्व द्वारा ही प्रेरित है।” इस प्रकार गति, ईश्वर तथा कर्म की स्वतन्त्रता – उसके प्रमुख विश्वास हैं 

एमील की शिक्षा में रूसो अब नीति और धर्म तथा कला तीनों को ही स्थान देता है। रूसो का विश्वास है कि सच्चरित्रता के लिए एमील को बाध्य करना चाहिए और उसे जननेन्द्रियों तथा लिंग-भेद सम्बन्धी ज्ञान देना चाहिए। इस प्रवृत्ति का शोधन करके किसी अच्छे कार्य में लगाना चाहिए। एमील को सोफी से विवाह करना है। जिस प्रकार एमील उत्कृष्ट पुरुष है, उसी प्रकार सोफी श्रेष्ठ स्त्री है। युग की परम्पराओं के अनुरूप ही एमील को विवाह से पूर्व यात्रा से निपट लेना चाहिए ।

‘एमील’ में स्त्री शिक्षा- एमील के अन्तिम भाग में एमील के लिए योग्य पत्नी की शिक्षा का वर्णन है। ग्रीक दर्शन का अनुकरण करके रूसो ने स्त्री-पुरुष की भिन्न-भिन्न शिक्षा का वर्णन किया है। यदि एमील की शिक्षा प्रकृति के अनुसार है तो सोफी की शिक्षा परम्परागत तथा रूढ़िवादी । यह बात भी रूसो के परस्पर विरोधी बातें कहने की परिचायक है।

यह शिक्षा की भिन्नता लिंग-भेद के कारण है, न कि निहित योग्यता के अनुसार । लड़के की स्वतन्त्रता पर बल था किन्तु यहाँ नियन्त्रण पर । डॉ० जानसन ने मिल्टन के विषय में कहा था कि “वह स्त्रियों को आज्ञा मानने और पुरुष को विद्रोह के लिए उत्पन्न मानता था।” यह बात रूसो पर भी लागू होती है। इस भिन्नता का अर्थ और है कि स्त्री-शिक्षा पुरुष की शिक्षा की पूरक हो । “स्त्रियाँ स्वभाव से चालाक होती है।” रूसो को उनके इस गुण के अत्यधिक प्रयोग पर एतराज है। रूसो स्त्री को पुरुष के आनन्द की वस्तु समझता है। लिखने-पढ़ने की शिक्षा स्त्री को केवल आवश्यकता अनुभव करने पर देनी चाहिए । सिलाई, कढ़ाई, वस्त्रों की परख इत्यादि का ज्ञान उसे देना आवश्यक है। स्त्री को धर्म की शिक्षा देनी चाहिए, जब वह समझने लगे । उसे कम उम्र में धार्मि

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shubham yadav

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