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रोयबर द्वारा वृत्तिक विकास के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

रोयबर द्वारा वृत्तिक विकास के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त
रोयबर द्वारा वृत्तिक विकास के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त

रोयबर द्वारा वृत्तिक विकास के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त

परामर्शदाता को अपने कार्य के द्वारा समाज की सेवा के साथ अपनी वृत्तिक उन्नति की ओर भी ध्यान देना चाहिये। इस दृष्टि से रोयबर द्वारा बताये गये निम्नलिखित सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण हैं—

1. प्रभाव का उपयोग- अपनी वृत्ति के विकास में सुधार की गति को तेज करने के लिये वह अपने प्रभाव का यथाशक्ति प्रयोग करता है।

2. वृत्तिक विकास की सातत्यता- अपने सम्पूर्ण जीवन में जिसमें उसका स्वास्थ्य एवं वृत्तिक अध्ययन सम्मिलित है तथा स्थानीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाली परामर्शदाता संघों में सक्रिय भाग लेकर तथा अपने को उनसे सम्बद्ध रखकर परामर्शदाता अपने वृत्तिक विकास को वृद्धिरत रखता है।

3. विद्यालय की नीति से सहमति – जब परामर्शदाता किसी विद्यालय में कार्य करना – स्वीकार करता है तो स्वतः मान्य है कि वह विद्यालय की सामान्य नीतियों से अपेक्षित रूप से सहमत है। इसीलिये इसके वृत्तिक क्रियाकलाप भी विद्यालय के लक्ष्यों के अनुरूप होने चाहिये। यदि किसी कारण, प्रयत्न करने पर भी वह विद्यालय के नीति विषयक समझौते का पालन करने में कठिनता का अनुभव करता है तो उसे उस विद्यालय में परामर्शदाता के पद से अपने को मुक्त करा लेना चाहिये।

4. सम्बन्धित व्यक्तियों में सहयोग- परामर्शदाता सभी वृत्तिक सहयोगियों, परामर्शदाताओं, अध्यापकों, प्रशासकों तथा अन्य छात्र कर्मचारियों से सम्बन्ध रखता है। यदि उसकी जानकारी में उन लोगों के नैतिक व्यवहार से सम्बन्धित कोई सन्देहजनक बात आती है तो उसे ऐसी स्थिति के सुधार के लिये प्रयत्न करना चाहिये।

5. महिमामंडन नहीं- परामर्शदाता को अन्य वृत्तिक कर्मचारियों पर तुलनात्मक ढंग से मूल्यांकन के माध्यम से आक्षेप लगाकर उनके चरित्र को खण्डित कर अपने को ऊँचा उठाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।

6. व्यर्थ की शेखी नहीं- उसे अपनी वास्तविक अर्हता या वृत्तिक योग्यता से अधिक योग्यता का दावा नहीं करना चाहिये और न ही अपनी क्षमता से बाहर कोई कार्य, झूठी शान के लिये स्वीकार करना चाहिये। यदि उसकी योग्यता पर वृत्तिक क्षमता के सम्बन्ध में कोई गलतफहमी होती है तो उसे दूर करना उसका उत्तरदायित्व है।

7. अतिरिक्त शुल्क नहीं- जिन लोगों को विद्यालय में जिले में अथवा भौगोलिक क्षेत्र की सीमा में उसकी सेवाओं को प्राप्त करने का अधिकार है उनसे कोई निजी शुल्क अथवा किसी अन्य रूप में कोई भेंट स्वीकार नहीं करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त अपने निश्चित कर्त्तव्य में बाधा उत्पन्न करने वाले क्षेत्र से बाहर के व्यक्तियों के लिये वृत्तिक कार्य स्वीकार नहीं करना चाहिये। उसे अपनी सेवायें केवल वृत्तिक सम्बन्धों के माध्यम से ही प्रदान करनी चाहिये। परीक्षण, परामर्श अथवा डाक द्वारा निर्देश अथवा परामर्श के अन्य माध्यमों की गणना वृत्तिक सम्बन्धों के अन्तर्गत ही की जाती है।

8. स्पष्टीकरण- यदि जनसाधारण, अध्यापकों अथवा प्रशासकों को अपनी सेवाओं सम्बन्धी सूचनायें या अनुभव बताता है तो उसका यह स्पष्ट उत्तरदायित्व है कि वह यह ध्यान रखे कि सूचना की मात्रा और प्रस्तुतीकरण की विधि सही एवं स्थिति के अनुकूल है।

9. वृत्तिक सेवा का बचाव- वह ऐसा कोई भी कार्य न करे जहाँ उसकी व्यक्तिगत कमजोरियों, पूर्व-धारणाओं तथा पूर्वाग्रहों के कारण उसकी वृत्तिक सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।

10. शोधकार्य की संलग्नता- वह ऐसे शोधकार्यों में अपने को संलग्न रखता है जिनसे उसकी वृत्तिक उन्नति एवं वृत्ति के विकास में सहायता मिले। ऐसा करते समय उसे यह ध्यान रखना चाहिये कि उसका कार्य किसी अन्य व्यक्ति के कार्य से ज्यों-का-त्यों न मिलता हो अर्थात् उसके कार्य में यथासम्भव नवीनता हो। साथ ही उसके कार्य से अथवा कार्य के परिणाम से हानिकारक प्रभाव पड़ने की आशंका न हो। यदि वह अनुभव करता है कि उसकी शोध का कोई वृत्तिक अथवा वैज्ञानिक महत्त्व है तो उसे स्वीकार्य रिपोर्टिंग मानदण्डों के अनुसार अपनी वृत्ति के अन्य सदस्यों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिये।

11. अभिलेखन- परामर्श साक्षात्कारों का अभिलेखन एवं उनका दूसरे व्यक्तियों की उपस्थिति में उपयोग केवल उपबोध्य की अनुमति से किया जाये। यदि उनका शोधकार्य के लिये उपयोग किया जाये तो पहचान के सभी चिन्ह मिटा दिये जायें।

12. विद्यालय का अंग- विद्यालय के स्टॉफ-सदस्य के रूप में परामर्शदाता विद्यालय का एक अंग होता है तथा वह स्कूल के सामान्य कर्त्तव्यों में अपने भाग को स्वीकार करता है किन्तु वह ऐसे कर्त्तव्यों को स्वीकार करने से अपने को रोकता है जो उसके परामर्श कर्त्तव्यों में बाधक बनते हों अथवा परामर्श के कार्य के दौरान आते हों।

13. बिना किसी भेदभाव के सहायता- परामर्शदाता के पास जो भी लोग सहायता के लिये अभ्यर्थना करते हैं उन्हें वह बिना किसी जाति, धर्म, वर्ण अथवा सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव के अपनी सेवायें प्रदान करता है। किन्तु ऐसा करते हुये भी वह अपनी सेवाओं के उच्च मानदण्डों को बनाये रखने का प्रयत्न करता है। यदि उसका कार्यभार इतना अधिक हो जाये कि वह ठीक प्रकार से उसे सँभालने में समर्थ न हो तो उससे इसकी सूचना उचित प्रशासकीय अधिकारी को देनी चाहिये। जब तक अतिरिक्त सेवाओं की व्यवस्था नहीं हो पाती तब तक उसे अपनी सेवाओं में कुछ प्राथमिकताओं का क्रम रखना पड़ेगा।

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shubham yadav

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