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लोकतान्त्रिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? | लोकतन्त्रीय व्यवस्था में शिक्षा की भूमिका

लोकतान्त्रिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं
लोकतान्त्रिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं

लोकतान्त्रिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?

अरस्तू के समय से लेकर आज तक साधारणतया शासन व्यवस्था के तीन रूप प्रचलित रहे हैं – (1) राजतन्त्र, (2) कुलीनतन्त्र और (3) लोकतन्त्र। लम्बे समय तक लोकतन्त्र का तात्पर्य एक प्रकार से ही लिया जाता था । यहाँ हम विभिन्न विद्वानों द्वारा लोकतन्त्र की अलग-अलग प्रकार की परिभाषाओं एवं व्याख्याओं को प्रस्तुत कर रहे हैं-

(1) अब्राहम लिंकन (Abraham Lincon) के अनुसार, “लोकतन्त्र शासन का वह रूप है जिसमें जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिये शासन हो।” “Democracy is a government of people, by the people and for the people.”

(2) डायसी (Dicey) के शब्दों में, “लोकतन्त्र शासन का वह प्रकार है, जिसमें शासक समुदाय सम्पूर्ण राष्ट्र का अपेक्षाकृत एक बड़ा भाग हो।” “Democracy is a form of government in which governing body is comparatively a large fraction of the entire nation.”

लोकतन्त्रीय व्यवस्था में शिक्षा की भूमिका (Role of education in democratic system)

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शिक्षा द्वारा किस प्रकार सुधार लाया जाय ? इस क्षेत्र में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है जिसे निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-

1. व्यावहारिक आदर्शों का निर्धारण (Assessment of applied ideals) – लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिये यह आवश्यक है कि समाज में ऐसे आदर्शों पर बल दिया जाय जो व्यावहारिक हों। उस समय सामाजिक व्यवस्था दुर्बल होने लगती है, जबकि आदर्शों का पालन नहीं किया जाता, केवल उनकी चर्चा होती है। इसीलिये सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का एक उपाय है- व्यावहारिक आदर्शों का निर्धारण। दूसरे शब्दों में, समाज के सदस्यों को यह सिखाया जाय कि वे सामाजिक आदर्शों के अनुकूलन के लिये किस प्रकार कार्य कर सकते हैं ? इस बात पर बल दिया जाय, जिससे लोगों का आचरण लोकतान्त्रिक आदर्शों के अनुकूल बन जाय ।

2. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific views)- सामाजिक व्यवस्था का सुचारु रूप से संचालन भी एक उपाय है, जो लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करता है। जब समाज के सदस्य अन्ध-विश्वास से ग्रस्त हो जाते हैं तो वे ऐसी बातों में विश्वास करने लगते हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है तब सामाजिक व्यवस्था बिगड़ने लगती है। इसलिये इस बात पर बल दिया गया है कि शिक्षा के द्वारा उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का वांछनीय विकास किया जाय।

3. आर्थिक सम्पन्नता में वृद्धि (Growth in economic wealth) – लोकतन्त्र में समाजवाद का नारा इस बात पर बल देता है कि समाज के सभी वर्गों को प्रगति के समान अवसर प्राप्त हों। सभी लोगों को आवश्यकतानुसार भोजन, वस्त्र तथा रहने के लिये मकान मिल सकें। फलत: सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का तीसरा उपाय आर्थिक सम्पन्नता में वृद्धि करना है। दूसरे शब्दों में, सभी लोगों के लिये काम और रोजगार की व्यवस्था करना समाज का दायित्व माना गया है। शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों में वह व्यावसायिक कुशलता उत्पन्न की जा सकती है, जो समाज की आर्थिक सम्पन्नता में सहायक होती है।

4. सामाजिक नियन्त्रण की शिक्षा (Education of social control) – सामाजिक व्यवस्था के सन्तोषजनक संचालन के लिये सामाजिक नियन्त्रण की शिक्षा निरन्तर होनी चाहिये, हमें यह ज्ञात है कि सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों के प्रति वांछनीय भावनाएँ होती हैं। इन वांछनीय भावनाओं को उत्पन्न करना शिक्षा का कार्य है। पाठ्यक्रम में इस बात की व्यवस्था होनी चाहिये कि सामाजिक दृष्टि से वांछनीय नियमों के प्रति सभी लोगों के मन में अनुकूल भावनाएँ हों।

5. बेकारी समाप्त करना (To Remove unemployment ) –आजकल भारत में शिक्षित बेकारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। शिक्षित बेरोजगार युवक बेकारी से ऊबकर हिंसा का मार्ग अपना रहे हैं। वे ऐसे कार्य कर रहे हैं, जो समाज और राष्ट्र के लिये अपमानजनक एवं हानिकारक हैं। वे अपने हिंसात्मक कार्यों के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को दुर्बल बना रहे हैं। अत: यह आवश्यक है कि बेकारी समाप्त करने के लिये प्रभावकारी कदम उठाये जायें।

6. जन्म- दर पर रोक (Control on birth-rate) – इन दिनों भारत में जनसंख्या तीव्रता से बढ़ रही है, इसके लिये परिवार नियोजन का आन्दोलन चलाया जा रहा है। अच्छी सामाजिक व्यवस्था में सभी सदस्यों के लिये भोजन, वस्त्र और मकान की सन्तोषजनक व्यवस्था होती है, लेकिन जब जन्म-दर में तीव्र गति से वृद्धि होती है तब यह सम्भव नहीं होता। इसलिये जन्म-दर पर रोक लगाना अत्यन्त आवश्यक है।

7. कर्म पर आधारित सामाजिक ढाँचा (Work based social structure ) – जब व्यक्ति को जन्म, जाति अथवा आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर ऊँचा पद न देकर कर्म के आधार पर सामाजिक सम्मान प्रदान किया जाता है तब सामाजिक व्यवस्था अच्छी मानी जाती है जिसमें सभी लोग अपनी योग्यता और शक्ति के अनुसार कार्य कर प्रतिष्ठा पाते हैं, इसलिये सामाजिक ढाँचे को कर्म पर आधारित किया जाना चाहिये ।

8. अपराधियों को सुधारना (Reformation of criminals) – समाज में कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण समाज विरोधी कार्य करने लगते हैं। वैसे तो कानून बना हुआ है कि जो अपराध करे उसे दण्ड दिया जाय, लेकिन सामाजिक दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि अपराधियों की दशा को सुधारने के लिये सभी प्रकार के उपाय काम में लाने चाहिये। ईसा ने कहा था कि “अपराध से घृणा करो, न कि अपराधी से।”

9. सामाजिक सुरक्षा के उपाय ढूँढना (To find the measures of social security) – सामाजिक सुरक्षा समाज में उस समय होती है, जबकि सभी वर्गों के लोग अपनी इच्छा और विश्वास के अनुसार कार्य कर सकते हों। प्रत्येक प्रकार के वर्ग भेद को समाप्त किया जाय, जितने भी अनैतिक कार्य हैं उन्हें रोका जाय। सामाजिक सुरक्षा का एक अच्छा उपाय है-लोगों में अच्छे विचारों का प्रसार करना। वैसे तो सरकार की ओर से भी सभी कार्य समाज के कल्याण के लिये किये जाते हैं, लेकिन समाज के सदस्यों का भी यह दायित्व है कि वे समाज के हित को ध्यान में रखकर ऐसे कार्य करें जिससे सामाजिक सुरक्षा बनी रहे।

10. भ्रष्टाचार को रोकना (To prevent curruption ) – आजकल सामान्य धारणा बनी गयी है कि प्राय: 90% लोग भ्रष्ट हैं, सभी कार्यालयों में तथा विभागों में घूसखोरी और भ्रष्टाचार व्याप्त है। भ्रष्टाचार रोकने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि लोग भली-भाँति यह समझ लें कि गलत तरीके से काम करना या कराना अनैतिक और समाज की दृष्टि से निन्दनीय है और स्वयं के लिये घातक भी

11. शिक्षा पद्धति में आवश्यकतानुसार परिवर्तन (Change in education system according to need)- शिक्षा के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को सन्तुलित रखा जा सकता है, लेकिन कभी-कभी यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा प्रणाली में ऐसे परिवर्तन किये जायें, जो कि सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। उदाहरणार्थ – यदि समाज में कुशल तकनीकी कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है तो शिक्षा में तकनीकी विषयों को उच्च स्थान देना चाहिये। इन दिनों बढ़ती हुई अनुशासनहीनता का प्रमुख कारण यह है कि शिक्षा प्रणाली आज की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती। अतः सभी लोग इसे निकम्मी शिक्षा प्रणाली कहते हैं। शिक्षा पद्धति में आवश्यकतानुसार परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था को चुस्त बनाये रखने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है।

12. सांस्कृतिक विलम्बना को दूर करना (Removal of cultural lag) – समाज – शास्त्रीय दृष्टिकोण से सांस्कृतिक विलम्बना उस समय उपस्थित होती है, जब लोगों के कार्यों और विचारों में मेल नहीं होता। आज ऐसे साधन उपलब्ध हैं, जो गरीबी, बीमारी एवं बेकारी को मिटा सकें। लेकिन उन मूल्यों का अभाव है, जो ऐसा करने के लिये प्रेरित कर सकते हैं। इसका मुख्य कारण है कि भारत में धार्मिक और आध्यात्मिक चर्चा तो अधिक होती है, लेकिन कार्यकुशलता तथा उत्पादन में वृद्धि की ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। सामाजिक व्यवस्था को उत्तम बनाये रखने के लिये सांस्कृतिक विलम्बना को दूर रखा जाय और इसे उत्पन्न होने का अवसर नहीं दिया जाय।

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shubham yadav

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