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विश्व पत्रकारिता के उदय तथा भारत में पत्रकारिता की शुरुआत
विश्व पत्रकारिता के उदय के सम्बन्ध में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि क्या पत्रकारिता का उदय आकस्मिक है या इसका विकास शनैः शनैः हुआ है। सच तो यह है कि किसी का भी विकास अचानक नहीं होता, बल्कि उसकी विकासशीलता का एक क्रम होता है। विश्व पत्रकारिता का विकास भी एक दिन का परिणाम नहीं है। इस क्रमिक विकास का इतिहास अत्यन्त रोचक है। आज जो स्वरूप हमें पत्रकारिता का दृष्टिगोचर होता है। तथा समाचार पत्रों का जो रूप आज हमारे सामने है, वह मानक की जिज्ञासा, ज्ञान पिपासा और सर्वदेशीय जानकारी की अपेक्षा का परिणाम है।
प्राचीनकाल में केवल राजकीय घोषणाएँ होती थीं, जिन्हें डोंडी या डुग्गी पिटवाकर जनता तक पहुँचाने का प्रयास किया जाता था। कुछ उद्घोषणाएँ भावगीतों और समाचार-पत्रकों के रूप में भी होती थीं। कभी प्रचारात्मक सामग्री पत्रकों के माध्यम तैयार की जाती है, जिसमें किसी युद्ध, विकट स्थिति, चमत्कार या राज्यारोहण जैसे समारोहों का वर्णन किया जाता था। कई राजकीय घोषणाएँ शिलाखण्डों स्तंभों या मंदिर की दीवारों पर खुदवा दी जाती थीं। अशोक धर्म प्रचार के यही यही मार्ग अपनाया था। अशोक के शिलालेख तो इतिहास प्रसिद्ध हैं। ये घोषणाएँ इसी कोटि की हैं। पुरातन मुद्राओं में भी विभिन्न प्रकार की जानकारी उत्कीर्ण रहती थी। कहने का आशय यह है कि प्राचीनकाल में पत्थरों पर खुदी घोषणाएँ, डोंडी पीटने वालों द्वारा दी गई सूचनाएँ, मत-मतान्तरों के गुटके, धर्मशालाओं में लगे सूचना पत्रक आदि के द्वारा ही समाचारों का प्रसार किया जाता था। विश्व पत्रकारिता के उदय की दृष्टि से इन्हें ही आज के छपे हुए समाचार पत्रों के पूर्वज के रूप में माना जा सकता है।
धीरे-धीरे मानक सभ्यता और शिक्षा के विकास के साथ ही पत्रकारिता का भी विभिन्न रूपों में विकास हुआ। ईशा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में रोम में राजधानी से दूर स्थित नागरिकों तक समाचार पहुँचाने का कार्य संवाद लेखक किया करते थे। मुद्रण कला का आविष्कार होने के पश्चात् भी व्यापारी वर्ग और राजनीतिज्ञों को इस प्रकार लिखे पत्रों द्वारा ही समाचार प्रेषित किए जाते थे।
60 ई.पू. में जूलियस सीजर ने रोम साम्राज्य में ‘एक्ट डायना’ नामक दैनिक समाचार बुलिटेन का श्रीगणेश कराया, किन्तु यह बुलेटिन शासकीय घोषणाओं को ही प्रचारित करता था। इसे रोज नगर के सार्वजनिक स्थलों पर चस्पा किया जाता था। पत्रकारिता के विकास के अगले चरणों में 16वीं शताब्दी में दुकानों पर या मेलों में समाचार-पर्चियों के विक्रय की व्यवस्था थी। ये पर्चियाँ सामान्य जनता में बहुत लोकप्रिय थी, क्योंकि इनमें दुर्घटनाओं की हृदय विदारक जानकारियाँ, युद्धों के सजीव चित्रण व खबरें, आश्चर्य में डालने वाले प्रसंग तथा राजदरबारों के रोचक कथावृत्त प्रकाशित किए जाते थे।
हिन्दुस्तान में पत्रकारिता के क्षेत्र में नये युग की शुरुआत मुगल साम्राज्य की स्थापना से मानी जा सकती है। मुगलों ने अपनी सासन व्यवस्था को सुदृद्ध बनाने के लिए संचार सेवाओं को बेहतर बनाने का प्रयास किया तथा पूरे देश में सूचनाधिकारियों की नियक्तियों कीं। ये सूचनाधिकारी राजधानी में मुख्य कार्यालय में सुदूर प्रान्तों में रहने वाले सेना के उच्चाधिकारियों तक सूचनाएँ मिजयाते थे। मुगलों ने ‘वाक्यानवीसों’ की नियुक्तियाँ भी कीं, जिन्हें ‘संवाद लेखक’ भी कहा जा सकता है। इन वाक्यानवीसों का मुख्य कार्य था घटनाओं के समाचारों का संग्रहण तथ्य उन्हें हस्तलिखित पत्र निकालने वालों के पास भेजना। इस काल में समाचार धावकों, कारवाओं और सरदारों द्वारा प्रेषित किए जाते थे। इन ‘वाक्यनवीसों’ द्वारा प्रेषित पत्रों का सार दिल्ली के बादशाह को पढ़कर सुनाया जाता था। ‘निकोला मनूकी’ जो मूलतः वेनिस का निवासी था, एक यात्री था, औरंगजेब के दरबार में वह कुछ समय रहा था, वह लिखता है कि “मुगलों का यह अटल नियम था कि वाक्यानवीस और कैफियतनवीस अर्थात् साम्राज्य सम्बन्धी सार्वजनिक और गुप्त समाचारों का लेखक, सप्ताह में एक बार अपनी पुस्तक में यह जरूर दर्ज करता था कि क्या वाकया गुजरा है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह एक तरह का गजट अथवा सारांश तैयार करता था, जिसमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख होता था। इन समाचार वाले पत्रों को बादशाह के सामने रात्रि को नौ बजे हरम की बेगमें पढ़ती थीं, जिसमे बादशाह को पता रहता था कि उसके राज्य में क्या-क्या हो रहा है? इसके अतिरिक्त गुप्तचर में तैनात रहते थे, जो महत्त्वपूर्ण विषयों पर साप्ताहिक ब्यौरा भेजा करते थे।” उनके ब्यौरा का मुख्य विषय यह होता था कि शाहजादे क्या कर रहे हैं? अपना यह कर्तव्य वे लिखित ब्यौरा भेजकर पूर करते थे। बादशाह आधी रात तक जागकर तन्मयता से उपर्युक्त बातों में व्यस्त रहता था।
बहादुरशाह के काल में हस्तलिखित ‘सिराज-उल-अखबार’ प्रसिद्ध था। उस समय दरबारों के अमीर उमरा भी हस्तलिखित अखबार निकालते थे। ये ‘अखबारनवीस’ कहलाते थे अवध के सुल्तान ने 660 ‘अखबारनवीस’ नियुक्त कर रखे थे और प्रत्येक को चार या पाँच रुपये मासिक वेतन दिया जाता था। ये छपते नहीं थे तथा इनका प्रकाशन भी नियमित नहीं था और जो चाहे इन्हें खरीद भी नहीं सकता था। इसलिए सही अर्थों में इन्हें समाचार पत्र नहीं कहा जा सकता।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी समाचार पत्रों के प्रति बहुत ही शंकित थे, वे किसी भी तरह की आलोचना बर्दाश्त नहीं करते थे। मुनाफाखोरी, पक्षपात और माल हथियाने के वातावरण में विचार प्रकट करने की आजादी तो दूर की बात, समाचार भेजने तक की स्वतन्त्रता नहीं थी। यहां तक कि अंग्रेजों द्वारा उन्हीं की रक्षा करने वाले पत्रों के प्रति भी उन्हें भय बना रहता था। यद्यपि कम्पनी ने मुम्बई (बम्बई), चेन्नई (मद्रास) और कोलकाता (कलकत्ता) में छापेखाने लगवा रखे थे और उनके लिए टाइप व कागज की भी व्यवस्था कर रखी थी, परन्तु उन दिनों अंग्रेजी भाषा का कोई भी समाचार पत्रक्ष नहीं छपता था। फिर भी इंग्लैण्ड के प्रेस से प्रेरणा लेकर भारत में पत्रकारिता का सिलसिला आरम्भ हुआ। भारत में सबसे पहले समाचार पत्र उन लोगों ने शुरू किये जिन्हें कम्पनी के विरुद्ध शिकायतें थीं। उन्होंने अपनी शिकायतों को प्रकट करके कम्पनी की नौकरी छोड़कर समाचार-पत्र निकालना शुरू किया।
समाचार-पत्र निकालने का पहला प्रयास 1778 ई. में, सितम्बर, 1778 में (कलकत्ता) कोलकता के कौंसिल हाल एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों में एक. नोटिस लगा हुआ पाया गया जो इस प्रकार था-
“जन-साधारण से”
श्री वोल्टाज जनता को सूचना प्रदान करने के लिए यह तरीका अपनाते हैं। इस नगर में छापाखाना न होने से व्यापारी वर्ग को बहुत नुकसान रहता है और समाज को वे समाचार दिये जाने अत्यन्त कठिन हैं, जिनमें हर ब्रिटिश प्रजा की दिलचस्पी है। इसलिए श्री वोल्टाज उस या उन व्यक्तियों को सर्वाधिक प्रोत्साहन प्रदान करने को तैयार है, जो मुद्रण का काम जानते हैं, प्रेस टाइपों तथा अन्य का प्रबन्ध कर सकते हैं। इसके साथ ही वह जनता को सूचित करना चाहते हैं कि उनके पास लिखित रूप में ऐसी जानकारी हैं, जिसमें हर व्यक्ति की गहरी दिलचस्पी होगी। जो जिज्ञासु व्यक्ति चाहे, उन्हें वोल्टाज के घर में वह सामग्री पढ़ने एवं नकल करने की अनुमति होगी। एक व्यक्ति प्रातः दस से बारह बजे तक इच्छुक व्यक्तियों को इसमें सहायता प्रदान करने के लिए रहेगा।
यही पत्रकारिता की शुरुआत थी ।
इस नोटिस से दफ्तरी हलकों में भय और असंतोष फैल गया तथा अंग्रेज अधिकारियों में खलबली मच गई। गुप्तचरों को इसमें खतरे की सम्भावनाएँ नजर आयीं। इसी कारण वोल्टाज को कोर्ट ऑफ डायरेक्टरों ने कम्पनी के नाम से अपना व्यापार करने का दोषी ठहराया जिसके कारण उसे कम्पनी की नौकरी से त्याग-पत्र देना पड़ा। अंग्रेज सौदागरों द्वारा नियन्त्रित बंगाल सरकार ने मिस्टर वोल्टाज को बंगाल छोड़कर यूरोप लौट जाने को कह दिया। नहीं जाने पर वोल्टाज को जबरदस्ती एक जहाज में डालकर भारत से बाहर ले जाया गया जहाँ उसे ‘कंसीडरेशन ऑन इण्डिया अफेयर्स’ नामक पुस्तक लिखकर भारत में स्थापित कम्पनी प्रशासन का भण्डाफोड़ किया।
वोल्टाज के पश्चात् 12 वर्षों तक इस काम को आगे बढ़ाने का किसी ने भी प्रयास नहीं किया। भारत में रहने वाले यूरोपीय समाज को समाचार पत्रों के लिए पूरी तरह इंग्लैण्ड पर निर्भर रहना पड़ता था, क्योंकि पत्र प्रकाशित होने के लगभग नौ महीनों या एक वर्ष बाद भारत में मिलते थे।
भारत में समाचार-पत्र
देश में सबसे पहला समाचार पत्र अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी भाषा में और उनकी अपनी आर्थिक प्रतिद्वन्द्वता के कारण निकला। इस सम्बन्ध में सम्पादकाचार्य पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि उस समय कम्पनी के सिवाय भारत के व्यापार से मालामाल होने के लिए बहुत से अंग्रेज स्वतन्त्र रूप से व्यापार करने बंगाल में आये थे। इन्होंने देखा कि कम्पनी के कर्मचारी अपना स्वतन्त्र व्यापार चलाते हैं और अन्य लोगों के व्यापार में बाधा डालते हैं। इस बाधा का निवारण करने के दो उपाय थे— एक दो इस देश में शिक्षा का प्रसार करके लोकमत को जागृत करना और दूसरा सब स्वतन्त्र अंग्रेज व्यापारियों का ऐसा संगठन बनाना, जिससे अन्याय यदि पूर्णरूप से बन्द न हो जाए तो कम तो अवश्य ही हो जाए। पहला उपाय समय व श्रम-साध्य था, इसलिए दूसरे उपाय की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया।
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