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विश्व बन्धुत्व की परिभाषा | विश्व बन्धुत्ववाद को विकसित करने वाले सिद्धान्त

विश्व बन्धुत्व की परिभाषा
विश्व बन्धुत्व की परिभाषा

विश्व बन्धुत्व की परिभाषा

विश्व बन्धुत्व की परिभाषा – डॉ. वाल्टर एच.सी. लेव्स के अनुसार “अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना इस ओर ध्यान दिये बिना कि व्यक्ति किस राष्ट्रीयता या संस्कृति से है एक-दूसरे के प्रति सब जगह उनके व्यवहार का आलोचनात्मक और निष्पक्ष रूप से निरीक्षण करने और आंकने की योग्यता है। ऐसा करने के लिए व्यक्ति को इस योग्य होना चाहिए कि वह सब राष्ट्रीयताओं, संस्कृतियों तथा प्रजातियों को इस भूमंडल पर रहने वाले लोगों की समान रूप से महत्वपूर्ण विभिन्नताओं के यप में निरीक्षण कर सकें।”

ओलिवर गोल्डस्मिथ के अनुसार – “विश्व बन्धुत्व एक भावना जो व्यक्ति को यह बताती है कि वह अपने राज्य का ही सदस्य नहीं है वरन् विश्व का नागरिक भी हैं।”

विश्व बन्धुत्ववाद को विकसित करने वाले सिद्धान्त

विश्व बन्धुत्व (अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावन) को विकसित करने के सिद्धान्त – यह निम्न प्रकार हैं-

1. नवयुवकों में स्वतंत्र रूप से विचार करने की शक्ति का विकास करना- विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित करने का प्रथम सिद्धान्त यह है कि बालकों में स्वतंत्र रूप से सोचने, विचार करने की शक्ति का विाकस किया जाये तथा उनमें प्रत्येक समस्या वैज्ञानिक ढंग से सुलझाने की आदत डाली जाये। आधुनिक युग में प्रत्येक राष्ट्र अपनी आँखों पर स्वार्थ का चश्मा चढ़ाकर इस बात का ढोल पीटता है कि वह जो कुछ कर रहा है ठीक है तथा अन्य राष्ट्रों ने ‘भी वांछनीय मार्ग अपना रखा है। इस स्वार्थपूर्ण प्रचार से राष्ट्र के नागरिक अपने कर्णधारों की आज्ञाओं का आँख मीचकर पालन करने लगते हैं। जब बालकों में स्वतन्त्र विचार करने की शक्ति का विकास हो जायेगा तो वे इस बात का आसानी से निर्णय कर सकेंगे कि कौन-कौन सी बातें सत्य है तथा कौन-कौन सी झूठ है। और राष्ट्र के गुण तथा दोषों का निष्पक्ष रूप से मूल्यांकन कर सकेंगे।

2. नवयुवकों को उनके ज्ञान के प्रयोग का प्रशिक्षण देना- अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का दूसरा सिद्धान्त राष्ट्र के नवयुवकों को उनके ज्ञान का उचित प्रयोग करने का प्रशिक्षण देना है जिससे वे अर्जित किए हुए जान को अपने वास्तविक जीवन में उचित रूप से प्रयोग कर सके। उनकी समझ में यह भी आ जाए कि जो सिद्धान्त एक राष्ट्र के कार्यों अर्थात् एक विशिष्टि समायोजन में मानव संबंधों के लिए किस प्रकार से समान रूपेण सिद्ध होते हैं। देखने में यह आता है कि राष्ट्रीयता से प्रभावित होकर एक राष्ट्र केवल अपने ही व्यक्तियों के साथ मानवता का व्यवहार करता है। मनुष्य की इस संकीर्ण भावना पर प्रकाश डालते हुए के.जी. सैयदन ने लिखा है जो व्यक्ति अपने देश के किसी बच्चे के भोजन को रोककर उसे कष्ट पहुँचाने का स्वप्न में विचार नहीं कर सकता हैं वही व्यक्ति अपने देश के किसी बच्चे के भोजन को रोककर उसे कष्ट पहुँचाने का स्वप्न में भी विचार नहीं सकता है। वहीं व्यक्ति एक शत्रु राष्ट्र की भोजन सामग्री को बेखटके रोक देता है। उस समय यह भूल जाता है कि उस कार्य से उस राष्ट्र के कितने बच्चे भूख से तड़पेंगे। इस प्रकार की संकीर्णता को दूर करने के लिए बालकों को भावात्मक शिक्षा की आवश्यकता है। जिससे उनमें सौहार्द, न्यायप्रियता तथा स्नेह आदि गुणों का विकास हो जाए और वे जाति, धर्म तथा राष्ट्र के भेद-भाव से ऊंचे उठकर मानवता का आद कर सकें।

3. राष्ट्र प्रेम का उचित अर्थ – अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्र-प्रेम का अर्थ राष्ट्रीयता न होकर व्यापक रूप में लिया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि संकीर्णता की भावना मानव में स्नेह, द्वेष तथा ईष्या आदि भावनाओं को जन्म देती है। ऐसी संकुचित भावनाओं से प्रेरित होकर राष्ट्र के नागरिक केवल अपने ही राष्ट्र की तुच्छ वस्तु भी सर्वोत्तम लगने लगती है तथा वे अन्य राष्ट्रों की निष्पतियों को भी हेय समझने लगते हैं। आधुनिक युग में विश्व एक इकाई है तथा संसार के सभी राष्ट्र इसके नागरिक हैं। अतः राष्ट्र प्रेम का अर्थ अपने राष्ट्र के प्रति रखने के साथ-साथ विश्व प्रेम भी होना चाहिए।

4. निर्भरता का सिद्धान्त- मानव जाति एक संगठन वर्ग है। इस वर्ग का प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे पर किसी न किसी न किसी वस्तु के लिए निर्भर रहता है। किसी भी राष्ट्र का स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना असंभव नहीं हो तो कठिन अवश्य है। उसे खाद्य पदार्थ, वस्तु तथा अन्य वस्तुओं के लिए दूसरे राष्ट्रों की सहायता लेनी पड़ती है। वस्तुओं के इस परस्पर आदान प्रदान से ही सभी राष्ट्रों का कार्य चलता है। अतः शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार करनी चाहिए कि बालकों को समझ में यह बात पूरी तरह से आ जाये कि हम एक-दूसरे पर निर्भर हैं तथा बिना एक दूसरे की सहायता से हम आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नति नहीं कर सकते हैं। यही एक ऐसा मंत्र है जिसके द्वारा मानवता का कल्याण हो सकता है।

5. व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में भय को दूर करना- आधुनिक युग में व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में भय का साम्राज्य है। एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से सदैव भय बना रहता है। कुछ नहीं कहा जा सकता कि एक राष्ट्र पर कब टूट पड़े। यह देखा जाता है कि प्रत्येक राष्ट्र शक्तिशाली बनने के लिए भयंकर विनाशकारी शास्त्रों का निर्माण करता है, सेना का संगठन करता है तथा किसी राजनीतिक गुट का सदस्य बनने में ही अपना कल्याण समझता है। इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र युद्ध के द्वारा पर खड़ा है। ऐसी दशा में शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से की जानी चाहिए कि बालकों का उचित रूप से संवेगात्मक विकास हो जाये और उनके मन में अकारण भय दूर हो जाये तथा समस्था को साहस के साथ सुलझाने की शक्ति उत्पन्न होकर उनमें मनुष्य के प्रति विश्वास हो जाये ।

6. वैक्तिकता तथा सामाजिक चेतना –अन्तर्राष्ट्रीय समाज को स्वस्थ बनाने के लिए सामाजिक चेतना को विकसित करना परम आवश्यक है इसलिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से की जानी चाहिए कि बालकों के हृदय में सामाजिक कल्याण, सामाजिक आभार एवं उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न हो जाये, वे अपने समूह तथा अन्य सहयोग स्थापित कर सकें तथा सफल सामाजिक जीवन व्यतीत कर सकें।

7. सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- के.जी सैयदन का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय की शिक्षा सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त पर अवलम्बित होनी चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालक को आरम्भ से ही इस बात की शिक्षा देनी चाहिए कि समस्त संसार एक है। यह बँट नहीं सकता। हम सब इसके नागरिक हैं। इसकी भलाइ या बुराई का उत्तरदायित्व हम सभी पर समान रूप से है। यही नहीं, वह यह भी समझ जायेंगे कि विश्व के सारे नागरिक उनके मित्र हैं।

8. कार्य रूप में परिणित करने के सिद्धान्त – उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों की सफलता केवल उसी समय संभव है जब इनको कार्य रूप में परिणित किया जाये। नवयुवकों के हृदय में केवल अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना को जागृत करने के लिए ही सब कुछ में परिणित करने के लिए, बालकों को उपर्युक्त अवसर प्रदान किये जाये जिससे उनको अन्तर्राष्ट्रीय आदर्शों की प्राप्ति सरलतापूर्वक हो जाये। इस सम्बन्ध में बालकों की रचनात्मक क्रियाओं पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।

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shubham yadav

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