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शारीरिक रूप से अक्षम बालक का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Physically Disabled Children)
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालक किसी न किसी शारीरिक कमी का शिकार होते हैं। ये प्रायः श्रवण, दृष्टि, अस्थि एवं स्वास्थ्य बाधिता से ग्रसित रहते हैं जिससे इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा शारीरिक कार्य करने की क्षमता कम कम जाती है। कभी-कभी उनकी यह शारीरिक दिव्यांगता इतनी अधिक होती है कि उन्हें कृत्रिम अंगों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार उनके शिक्षण कक्ष को भी उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप आकार देना पड़ता है। इनमें से कुछ बालक ऐसे भी होते हैं जो मस्तिष्क के उचित प्रकार से कार्य न कर पाने के कारण भी शारीरिक रूप से कार्य करने में असमर्थ होते हैं। शारीरिक रूप से बाधित बालकों को अस्थिबाधित या दिव्यांग भी कहते हैं। अतः इनके सम्बन्ध में निम्नलिखित परिभाषा दी गई हैं-
“शारीरिक रूप से अक्षम बालक वे होते हैं जिनकी शारीरिक अस्थियों में विकृतता या दोष आ गया हो अथवा वे क्षतिग्रस्त हो गई हो जिससे वह सामान्य बालकों की भाँति शारीरिक अभ्यास करने में असमर्थ हो गया हो। ऐसे बालकों की अस्थियों, माँसपेशियों एवं जोड़ों में किसी कारण दोष आ जाता है।”
शारीरिक रूप से बाधित बालकों को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
1: अस्थि बाधित बालक
2. स्वास्थ्य बाधित बालक
वैधानिक परिभाषा के अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक/अस्थि बाधित बालकों की शैक्षिक प्रक्रिया गम्भीर रूप से प्रभावित होती है। जैसे-हाथ पैर टेढ़े मेढे होना, कुछ शारीरिक अंगों का न होना, जल जाना या टूट जाना अथवा किसी गम्भीर रोगों के कारण कार्य न कर पाना। शारीरिक रूप से बाधित बालक की व्यापक परिभाषा इस प्रकार हैं-
“अपंग बालकों में शारीरिक बाधित उन्हें कहते हैं जो जन्म से बीमारी, दुर्घटना तथा जन्म से उनकी हड्डियों, माँसपेशियों तथा जोड़ों में वक्रता आती है तथा सामान्य कार्य करने तथा चलने-फिरने में असमर्थ रहते हैं।”
“The crippled child in the sense physically handicapped is a child that has a defect which cause a deformity or an interference which normal functions of the bones, muscles on joints. It is due to disease, accident and hereditary.”
अतः मूल रूप से शारीरिक बाधित बालक वे होते हैं जो इन्द्रिय दोष से ग्रसित न होकर शारीरिक अपंगता से पीड़ित हो।
शारीरिक रूप से अक्षम बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Physically Disabled Children)
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालक साधारणतः शारीरिक या मानसिक रोगों से बाधित होते हैं। यह पोलियो तथा अन्य रोग से ग्रसित हो जाते हैं। विभिन्न शोधों से ज्ञात होता है कि यह बालक सामान्य बालकों से उत्तम होते हैं परन्तु इनकी आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं।
1. इनकी प्रमुख समस्या कृत्रिम अंगों में अनुकूलन न होना है। इनकी कठिनाइयों को कम करने हेतु शैक्षिक तकनीकी का उपयोग किया जा सकता है।
2. शारीरिक रूप से बाधित बालकों में क्रियाशीलता की कमी पाई जाती है।
3. ये प्रायः दूसरों पर आश्रित रहते हैं तथा किसी कार्य को करने में अधिक समय लगाते हैं।
4. ये शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं।
5. उनमें कार्य के प्रति उत्सुकता बनी रहती हैं परन्तु विक्षिप्त रहते हैं। 6. इन बालकों को सामाजिक सहभागिता में कठिनाई होती है तथा इनमें विक्षिप्तता को सहन करने की क्षमता सामान्य बालकों से कम होती है।
भारत में शारीरिक दिव्यांग बालकों पर अनेक शोध हुए हैं जिनमें इनके विभिन्न मनोवैज्ञानिक, व्यावसायिक, सामाजिक एवं शैक्षिक पक्षों का अध्ययन किया गया है। बाधिता ग्रस्त बालकों को माता-पिता से अपेक्षित सहानुभूति प्राप्त नहीं होती तथा कभी-कभी यह घर भी छोड़ जाते हैं।
शारीरिक रूप से अक्षम बालकों का वर्गीकरण (Classification of Physically Disabled Children)
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालकों का वर्गीकरण प्रायः उनकी अस्थि विकृतता के आधार पर की जाती है। शारीरिक अपंगता की अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ भी होती हैं। इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-नीचे के अंगों की बाधिता, ऊपरी अंगों की बाधिता तथा कुछ अंगों का न होना या कोई स्वास्थ्य समस्या का होना। चूँकि अस्थि असमर्थता एवं स्वास्थ्य समस्याएँ भिन्न होती हैं।
अतः शारीरिक असमर्थता एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं वाले बालकों को समन्वित नहीं किया जा सकता है। नीचे के अंगों की बाधिता से आने-जाने, चलने-फिरने की समस्या आती है।
अपंगता के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. पाँव फिरा Clubfoot)
2. लूले लंगड़े, हथकटे ( Missing Shortened Limbed)
3. एक या अधिक अंगों की दिव्यांगता (Paralysis of One or More Limbs)
4. मस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral Palsy)
5. मेरुदण्ड का वक्र होना (Curvature of the Spine)
6. विकृत नितम्ब (Malformed Hips)
7. मेरुदण्ड द्विशाखीय (Spine Bifida)
8. मांसपेशीय असमर्थता (Muscular Dystrophy)
मस्तिष्क की अपंगता में बालक की ऐच्छिक क्रिया प्रणाली अस्त व्यस्त हो जाती है मस्तिष्क आघात के तीन प्रकार हैं-
1. मस्तिष्क संस्तम्भ ( Spasticity)
2. एथिटोसिस (Athetosis)
3. एटेक्सिया (Ataxia)
इन दोषों का प्रमुख कारण मस्तिष्क पक्षाघात है जिससे बालक में विभिन्न गम्भीर बीमारियाँ हो सकती हैं । अतः उपरोक्त वर्गीकृत प्रकारों से ग्रसित बालक मानसिक रूप से विकलांग (Mentally Challenged) भी कहलाते हैं।
शारीरिक अक्षमता के कारण (Causes of Physical Disabilities)
शारीरिक रूप से दिव्यांगता के विभिन्न कारण देखे जा सकते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) जन्मजात विसंगति (Congenital Anomalies)– बालक का गर्भ में उचित पोषण न प्राप्त होने के कारण समुचित विकास नहीं हो पाता तथा उसमें कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं। जन्मजात शारीरिक अपंगता प्रायः चिकित्सा द्वारा ठीक नहीं हो पाती है।
(2) बीमारी (Illness) – कभी-कभी बालक किसी ऐसी गम्भीर बीमारी से ग्रसित हो जाता है जिसका प्रभाव उसके शरीर के किसी अंग अथवा मस्तिष्क पर पड़ता है। ये बीमारियाँ अपंगता का कारण बन जाती हैं, जैसे-पोलियो तथा मस्तिष्क पक्षाघात शारीरिक विकलांगता देते हैं। इनके कारण अस्थियों, अस्थि सन्धियों, मांसपेशियों एवं स्वरूप में विकृति आ जाती हैं।
(3) दुर्घटना (Accidents)- किसी दुर्घटना के कारण भी बालक कभी-कभी दिव्यांगता का शिकार हो जाता है दुर्घटना के कारण हुई दिव्यांगता कभी-कभी उपचार के माध्यम से सही हो जाती है।
उपरोक्त कारणों से ग्रसित व्यक्ति किसी न किसी रूप से शारीरिक अक्षम हो जाता है।
शारीरिक रूप से अक्षम बालकों की समस्या एवं पहचान (Problems and Identification of Physically Disabled Children)
अन्य विभिन्न बाधिताओं की पहचान करने से शारीरिक दिव्यांगता की पहचान करना सरल होता है। शारीरिक दिव्यांग बालकों की पहचान निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं-
1. शारीरिक अंगों पर समुचित नियन्त्रण नहीं होता है तथा माँसपेशियों में सहयोग का अभाव होता है।
2. शारीरिक कार्यों तथा अभ्यास में कठिनाई का अनुभव करते हैं।
3. बैसाखियों की सहायता से चलते हैं।
4. लड़खड़ाकर चलते हैं।
5. शारीरिक अंगों की क्रियाविधि में नियन्त्रण तथा सहयोग का अभाव रहता है।
6. शारीरिक अंगों (जैसे- हाथ, पैर, अंगुली, गर्दन आदि) की विकृतता होना।
7. कृत्रिम अंगों के साथ समायोजन में कठिनाई का अनुभव करते हैं।
8. चलने-फिरने तथा उठने-बैठने में कठिनाई या असमर्थता का अनुभव करते हैं।
अतः उपरोक्त समस्त व्यवहारों के माध्यम से शारीरिक दिव्यांग बालकों की पहचान की जा सकती है।
शारीरिक रूप से अक्षम बालकों की आवश्यकताएँ (Needs of Physically Disabled Children)
शारीरिक रूप से बाधित बालकों की कुछ विशिष्ट आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-
1. इन्हें चलने-फिरने के सहायक यन्त्रों जैसे-पहियों वाली कुर्सी, बैसाखी, हाथों की पटरी आदि की आवश्यकताएँ होती हैं। समावेशी शिक्षा के माध्यम से शिक्षक को कक्षा में समायोजन बना कर रखना चाहिए।
2. ऊपरी अंगों से बाधित बालकों की समस्या के लिए वातावरण में सुधार की आवश्यकता होती है इनके लिए अतिरिक्त अधिगम सामग्री को अनुकूल किया जाना चाहिए।
3. ऐसे बालकों की आवश्यकतानुसार सामान को रखा जाना चाहिए जिससे इन्हें सुविधापूर्ण तरीके से सामग्री प्राप्त हो जाए।
4. ऐसे बालकों को बैठने के लिए उचित वस्तु की आवश्यकता होती है। वे सामान्य बालकों के समान नहीं बैठ सकते।
5. भौतिक वातावरण में अनुकूलन की आवश्यकता होती है।
6. ऐसे बालकों में शारीरिक विकास तेजी से होता है। इसलिए सहायक यन्त्रों में परिवर्तन की आवश्यकता होती है।
7. इनको कार्य करने एवं उठने-बैठने आदि में समुचित सहयोग की आवश्यकता होती है।
8. किसी भी कार्य को करने के लिए इन्हें अधिक समय दिया जाना चाहिए क्योंकि ये बालक शीघ्र ही थक जाते हैं ।
9. शिक्षक को ऐसे बालकों को सदैव प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए तथा इनकी सम्बन्धित समस्याओं पर समुचित ध्यान देना चाहिए।
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालकों हेतु शैक्षिक प्रावधान (Educational Provisions for Physically Disabled Children)
शारीरिक रूप से दिव्यांग बालक एक सामान्य बालक से भिन्न होता है। उसे विशेष अथवा उचित प्रयासों के द्वारा शिक्षित किया जाता है। इन्हें शिक्षित करने के लिए शिक्षा में कुछ विशेष प्रावधान साथ-साथ विशिष्ट सुविधाओं का होना भी अनिवार्य होता है। प्रावधान एवं सुविधाएं दिव्यांग बालकों के दिव्यांगता के आधार पर भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। इनके लिए किए जाने वाले शिक्षा सम्बन्धी प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-
(1) उपचार की सुविधाएँ (Facilities of Treatment) – शारीरिक दिव्यांग बालकों के उपचार के लिए पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए योग्य एवं कुशल चिकित्सक को समय-समय पर दिखाकर परामर्श एवं उपचार कराते रहना चाहिए। उपचार सुविधाओं हेतु उन्हें विद्यालय उपस्थिति में छूट भी होनी चाहिए तथा अनुपस्थिति का प्रभाव उनके शैक्षिक ज्ञान, उपलब्धि तथा अधिगम पर पड़ सकता है। इसलिए ऐसे बालकों के लिए सफलता के मापदण्डों को सामान्य बालकों के समान नहीं बनाने चाहिए। शारीरिक रूप से दिव्यांग बालकों के लिए सफलता के मानदण्ड बालक की अक्षमता तथा रोग की गम्भीरता के अनुसार निश्चित किए जाने चाहिए। बालकों के शैक्षिक एवं स्वास्थ्य के साथ-साथ सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास की ओर भी ध्यान देना शिक्षक का कर्त्तव्य होता है।
(2) अध्यापक की भूमिका (Role of Teacher) – सामान्य बालकों को शिक्षित करने वाले शिक्षक शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्रों को पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं कर सकते क्योंकि वह विशिष्ट शिक्षण कलाओं एवं कौशलों का ज्ञान नहीं रखते हैं। इस प्रकार दिव्यांग छात्रों को शिक्षा के लिए एक ऐसे अध्यापक की आवश्यकता होती है जो इस प्रकार के छात्रों की मनोस्थिति को समझते हुए किसी ठोस दर्शन के आधार पर इन्हें शिक्षित करने के साथ-साथ इसके सामाजिक, संवेगात्मक और शारीरिक विकास की ओर भी ध्यान दें। यदि विद्यालय में ऐसे शिक्षक उपलब्ध हैं तो छात्रों के लिए सुनहरा अवसर है परन्तु यदि नहीं हैं तो एक विशेष स्रोत अध्यापक (Special Source Teacher) की नियुक्ति की जानी चाहिए।
(3) विशेष कक्षा (Special Class)– कुछ ऐसे दिव्यांग छात्र होते हैं जो सामान्य वालकों के साथ शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम होते हैं जबकि कुछ छात्र सामान्य छात्रों के साथ शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं ऐसे छात्रों के लिए विशेष कक्षाओं का आयोजन किया जाता है विद्यालय के अन्तर्गत ही एक विशिष्ट कक्षा का प्रावधान होता है। जहाँ एक विशेष नोत अध्यापक शिक्षण कार्य करता है। समय-समय पर आवश्यकतानुसार इन्हें सामान्य कक्षा में सामान्य बालकों के साथ भी अध्ययन कराया जाता है परन्तु यह स्थिति विशेषकर उपचार द्वारा दिव्यांगता सही होने की स्थिति में होता है।
(4) अतिरिक्त कक्षा (Extra Classes) – शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्रों के लिए अतिरिक्त कक्षाओं का आयोजन भी किया जाता है। इस प्रकार की कक्षाओं में छात्रों की आवश्यकतानुसार शिक्षण सामग्री, उपकरण, बैठने तथा लिखने की व्यवस्था होती है ऐसे बालकों के लिए स्कूल के समय की कक्षाओं का आयोजन किया जाता है। इसमें अध्यापक एक अतिरिक्त कक्षा उपरान्त अथवा छुट्टियों के दिनों में भी थोड़े का प्रयोग कर छात्रों को अतिरिक्त ज्ञान एवं कुशलता प्रदान करने के साथ उनकी व्यक्तिगत सामाजिक तथा संवेगात्मक समस्या को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयास करता है।
(5) विशेष विद्यालय (Special School) – जिन छात्रों दिव्यांगता की मात्रा अधिक होती है, उन्हें अध्ययन हेतु विशेष विद्यालय की आवश्यकता होती है। ऐसे बालक सामान्य कक्षाओं से बिल्कुल लाभान्वित नहीं हो पाते हैं। विशेष कक्षाएँ तथा अतिरिक्त कक्षाएँ उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं दे पाती है अतः ऐसी स्थिति में उनके लिए विशेष विद्यालय का प्रावधान की व्यवस्था की गई है। इन विद्यालयों के निर्माण पूर्णतया दिव्यांग बालकों को ही ध्यान में रखकर किया जाता है। इन विद्यालयों में निम्नलिखित सुविधाएँ होनी चाहिए-
(i) विशेष विद्यालय में उपचार कक्ष की व्यवस्था होनी चाहिए। उपचार कक्ष में चिकित्सक एवं आवश्यक दवाइयाँ होनी चाहिए।
(ii) छात्रों की शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार व्यायाम कक्ष होना चाहिए जहाँ बालक अपने मनोरंजन के साथ-साथ उपचार भी कर सकें।
(iii) विशेष विद्यालय में एक कार्यशाला होनी चाहिए जहाँ दिव्यांग बालकों से सम्बन्धित उपकरण एवं वस्तुओं का निर्माण होता हो, जैसे-जूते, व्हील चेयर, आदि।
(iv) विद्यालय के भवन, कुर्सी, सीढ़ियाँ इस प्रकार के बने हों जहाँ छात्र आसानी से बिना किसी अवरोध एवं समस्या के आ-जा सकें।
(v) विद्यालय में एक विश्राम कक्ष होना चाहिए। इसमें कुर्सियाँ, मेज, बिस्तर तथा अन्य विश्राम उपकरण होने चाहिए।
(vi) पानी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। पानी पीने के लिए बनाए गए नल
बालकों की अक्षमता को ध्यान में रखकर बनाए जाने चाहिए।
(vii) विद्यालय में आवासीय सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिए। छात्रावास बालकों की विशेष आवश्यकतानुसार होना चाहिए।
(viii) छात्रों के शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु सभी अध्यापक प्रशिक्षित तथा कुशल होने चाहिए।
(6) पाठ्यचर्या का अनुकूलन (Adjustment of Syllabus) – दिव्यांग छात्रों की पाठ्यचर्या सामान्य छात्रों से आंशिक रूप से अलग होनी चाहिए क्योंकि सामान्य पाठ्यचर्या पूर्ण रूप से दिव्यांग बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती। दिव्यांग बालक पाठ्यचर्या की समस्त क्रियाओं को करने में अक्षम होते हैं अत: उन्हें एक अलग पाठ्यचर्या की आवश्यकता होती है पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं तथा अशों का समावेश नहीं होना चाहिए जिनका अध्ययन करने के लिए उन अंगों की आवश्यकता हो जिसके अभाव में वे दिव्यांग हैं।
(7) अभिवृत्ति परिवर्तन (Attitude Change) – सामान्य छात्र अथवा सामान्य व्यक्ति दिव्यांग छात्रों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उन्हें दया, भार, दान तथा मजाक का पात्र समझा जाता है। यह भावना दिव्यांग छात्रों में निराशा भर देती है। अतः आवश्यकता है। कि जनमानस अपने व्यवहार को उनके प्रति बदले।