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शिक्षा के उद्देश्य से संबंधित संवैधानिक मूल्य की विवेचना करें।

शिक्षा के उद्देश्य से संबंधित संवैधानिक मूल्य
शिक्षा के उद्देश्य से संबंधित संवैधानिक मूल्य

शिक्षा के उद्देश्य से संबंधित संवैधानिक मूल्य

हमारी शिक्षा के उद्देश्यों में संविधान के चार आदर्श संवैधानिक मूल्य न्याय, स्वतन्त्रता, समता तथा बन्धुत्व वास्तव में इस कारण शामिल किये गये कि सामाजिक असमानतायें, आर्थिक विभेद तथा राजनीतिक विशेषाधिकार समाप्त किये जा सकें । हमारे संविधान में यह स्पष्ट किया गया कि कानून की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति का स्तर बराबर है, किसी को भी न्याय से वंचित नहीं रखा जायेगा, प्रत्येक को विचारों की, अभिव्यक्ति की, अपनी आस्था और विश्वास में लाने की स्वतन्त्रता होगी तथा प्रत्येक की आत्म-प्रतिष्ठा को मान्यता दी जायेगी। इन सभी का शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्त्व है-

1. न्याय (Justice)— भारतीय संविधान में वर्णित मूल्य ‘न्याय’ का तात्पर्य किसी अदालत द्वारा किये जाने वाले न्याय से नहीं है, बल्कि न्याय की अवधारणा कुछ विस्तृत रूप से हमारे संविधान द्वारा अपनायी गयी है । यह सब व्यक्तियों के बीच में तथा व्यक्ति तथा राज्य के बीच में न्यायपूर्ण सम्बन्धों की ओर केन्द्रित है । संविधान न्याय को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में प्रदान करने पर बल देता है, क्योंकि इन सभी क्षेत्रों के न्याय से ही शिक्षा का अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त हो सकता है।

(i) सामाजिक न्याय (Social Justice)- सामाजिक न्याय से तात्पर्य है समाज में असमानताओं को दूर करना तथा सामाजिक समानता की स्थापना करना। यह प्रत्येक व्यक्ति, को शिक्षा द्वारा समाज में उचित स्थान प्राप्त करने का विश्वास दिलाता है तथा इस समान स्तर को प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने की प्रेरणा भी देता है। सामाजिक न्याय को प्रभावी बनाने हेतु ही संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि राज्य किसी भी नागरिक में धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग भेद का जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं करेगा तथा इसी प्रकार व्यक्ति को इन सभी आधारों पर राज्य की किसी भी सेवा में नियुक्ति के लिए अयोग्य नहीं समझा जायेगा।

यदि हम शिक्षा में भी सामाजिक न्याय के मूल्य का अनुसरण करते हैं तो हमें अपनी शैक्षिक संस्थाओं का संगठन इस प्रकार करना चाहिए कि उनके दरवाजे देश के किसी भी नागरिक के लिए हमेशा खुले रहे। हमारे राष्ट्र में कोई भी शैक्षिक संस्था जो राज्य द्वारा संचालित है, वह किसी विशेष धर्म, जाति या प्रजाति या क्षेत्र के लिए ही केवल आरक्षित नहीं की जा सकती है । अतः इस संवैधानिक मूल्य के अनुसार विद्यालयों में किसी भी प्रकार का भेद-भाव समाज के विभिन्न वर्गों या जातियों में नहीं किया जा सकता है।

(ii) आर्थिक न्याय (Economic Justice)— आर्थिक न्याय से तात्पर्य है कि प्रत्येक नागरिक को सम्पत्ति को अर्जित करने का, रखने का और उपयोग करने का अधिकार है। एवं वह कोई भी व्यवसाय अपने विकल्प के अनुसार अपना सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में यदि हम सामाजिक न्याय की बात करें तो इसका अभिप्राय है कि राज्य किसी को भी किसी भी प्रकार की जीविका चुनने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। अतः उसका कार्य है कि वह सभी प्रकार के व्यवसायों हेतु उचित शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था करे तथा सभी को अपनी मर्जी के अनुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान करे तथा उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार प्रशिक्षण के अवसर दे ।

(ii) राजनैतिक न्याय (Political Justice) – प्रत्येक व्यक्ति जो 18 वर्ष से अधिक आयु का हो, उसे वोट देने का अधिकार है। वह राज्य सभा या लोक सभा के लिए अपने प्रतिनिधि का चुनाव कर सकता है। शिक्षा की दृष्टि से भी यह प्रावधान महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस अधिकार ने शिक्षा व शिक्षकों के ऊपर जनतन्त्र के लिए उत्तम नागरिकों को बनाने का उत्तरदायित्व डाल दिया है ताकि उन्हें प्रदत्त वोट के अधिकार का दुरुपयोग न हो सके। इसी प्रकार इस संवैधानिक मूल्य के अनुसार प्रौढ़ों को भी वोट देने का अधिकार मिल गया जिससे प्रौढ़ शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा, खुली शिक्षा, ओपन स्कूल प्रणाली को भी बल मिल गया ।

2. स्वतन्त्रता (Liberty)- हमारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक स्वतन्त्रता के अधिकारों का वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार उन्हें भाषण देने, विचार प्रकट करने, कहीं भी घूमने, सम्पत्ति खरीदने व बेचने व किसी भी व्यापार को चुनने की स्वतन्त्रता है, परन्तु इन पर तब बन्धन भी लगाये जा सकते हैं जब इससे किसी संघ या संस्था को अशान्ति फैलने का डर हो या देश की प्रभुसत्ता या अखण्डता के लिए खतरा पैदा हो।

शिक्षा की दृष्टि से यदि देखा जाये तो इसे संवैधानिक मूल्य के अनुसार देश में रहने वाला हर व्यक्ति उचित शिक्षा प्राप्ति हेतु स्वतन्त्र है। राज्य के फण्ड द्वारा संचालित शैक्षिक विद्यालयों में किसी भी धर्म का शिक्षण नहीं दिया जा सकता है तथा किसी को भी अपने धर्म के कारण किसी सार्वजनिक संस्था में प्रवेश से नहीं रोका जायेगा ।

शिक्षा में इसी संवैधानिक मूल्य का अनुसरण करते हुए संविधान की धारा 21 A द्वारा शिक्षा के अधिकार को भी लागू किया गया है, जिसके अनुसार राज्य का यह कर्त्तव्य है कि राज्य प्रत्येक बच्चे को 6 से 14 वर्ष तक शिक्षा की समान सुविधाएँ उपलब्ध करायेगा । अतः इस कानून के अनुसार सभी को समान रूप से शिक्षा का अधिकार मिल गया है।

3. समानता (Equality)- संविधान में निहित यह संवैधानिक मूल्य देश के कानून के सम्मुख सबको बराबर मानता है। इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक को कानून से संरक्षण मिल सकता है तथा कानून किसी भी नागरिक के साथ जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर भेद-भाव नहीं कर सकता है। समता के इस अधिकार को व्यक्ति तभी व्यवहार में ला सकता है जब वह पूर्ण शिक्षित हो ।

जहाँ तक शिक्षा की बात है, शिक्षा के क्षेत्र में ‘Equity’ बनाम ‘Equality’ एक बड़े दार्शनिक विश्लेषण का विषय है। कई विद्वानों की राय में हर व्यक्ति अपने जन्मजात गुणों और योग्यताओं (जैसे बुद्धि लब्धि), सामाजिक-आर्थिक स्तर (SES ) व अन्य मनोसामाजिक (Psycho-social) कारकों के फलस्वरूप एक-दूसरे से भिन्न होता है, जिसका सीधा अर्थ है कि वे अपनी उपलब्धियों में भी समान नहीं हो सकते। सही अर्थों में समान बनाना न तो सम्भव है और न ही वांछित है। जैसा कि कभी जेफरसन (Jefferson) ने कहा था “There is nothing more unequal than equal treatment of unequal people.” और जैसा कि पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री रूसो ने भी शिक्षा में असमानताओं के विबेचन में जन्मजात प्रतिभाओं द्वारा उत्पन्न असमानताओं का नहीं बल्कि जो बच्चों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुई हैं, उनका विवेचन किया है। दूसरी तरफ वे लोग भी हैं जो सभी मनुष्यों को बराबर मानते हैं जैसा कि पश्चिमी विचारक जार्ज मेजन (Jeorge Mason) ने सन् 1775 में कहा था— “We come equals into the world and equals shall we go out of it.” इस प्रकार भारतीय वेदान्त दर्शन भी समानता की विचारधारा पर ही जोर देता है, जिसका आधार यह अभिधारणा है कि हम सभी में एक ही तत्त्व अथवा ब्रह्म का वास है

वास्तव में हम सभी जानते हैं कि मानव जाति न तो अपने जन्मजात गुणों व प्रतिभाओं के मामले में समान होता है और न ही अभिप्रेरणा के मामले में। किन्तु मानवीय, सामाजिक एवं जनतांत्रिक विचारधारा के अनुसार सभी मनुष्य समान रूप से समाज की जिम्मेदारी और प्रवाह ‘के सुपात्र हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने कहा है- ” The only stable state is the one in which all men are equal before the law. ” किन्तु शिक्षा के क्षेत्र में वैयक्तिक भेदों के यथार्थ को ध्यान में रखते हुए सभी के लिए समान शिक्षा अथवा समान पाठ्यक्रम की बात न करके सभी को शिक्षा के ‘समान अवसर’ उपलब्ध कराने की बात कही जा सकती है जो सर्वथा उचित ही है

शिक्षा के सम्बन्ध में इसी संवैधानिक मूल्य के आधार पर ही ‘शैक्षिक अवसरों की समानता’ की संकल्पना कोठारी आयोग ने (1964-66) में स्कूली स्तर के लिए की व ‘समान विद्यालय प्रणाली’ की बात कही। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में भी इसी संवैधानिक मूल्य के आधार पर एक निश्चित स्तर तक हर शिक्षार्थी को बिना किसी जाति-पाँति, धर्म, स्थान व लिंग भेद के लगभग एक जैसी अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने की घोषणा की थी।

4. भ्रातृत्व/बन्धुत्व (Fraternity)- संविधान में निहित इस मूल्य द्वारा राष्ट्र की एकता व व्यक्ति की गरिमा को मान्यता दी गयी है । स्वतन्त्रता, समता तथा न्याय के मूल्य तो भारतीय संविधान में निहित हैं ही, परन्तु एक व्यक्ति की स्वतन्त्रता दूसरे की स्वतन्त्रता के बीच में रुकावट भी बन सकती है तो इस दिशा में ‘स्वतन्त्रता’ का अधिकार अनुमान्य नहीं की जा सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमारे संविधान में व्यक्ति की न-मर्यादा को मान बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है, किन्तु यह राष्ट्र की एकता के बीच में रुकावट नहीं बनना चाहिए और इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुछ सीमा तक अंकुश अवश्य होना चाहिए ।

शिक्षा का कार्य नई पीढ़ी को इसी बन्धुत्व के मूल्य से परिचित कराना है कि बन्धुत्व हमारे संविधान का अभिन्न अंग है। अतः शिक्षा द्वारा हमारी चेष्टा होनी चाहिए कि एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण हो, जिसमें अधिकतम व्यक्ति अधिकतम प्रगति कर सकें।

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shubham yadav

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