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शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य | Individual Aims of Education in Hindi

शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य
शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य

शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य (Individual Aims of Education)

संकुचित अर्थ में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्यों को आत्माभिव्यक्ति, बालक की शक्तियों का सर्वांगीण विकास तथा प्राकृतिक विकास आदि नामों से पुकारा जाता है। इस अर्थ में यह उद्देश्य प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित है। इसके प्रतिपादकों का अटल विश्वास है कि समाज की अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है। अतः उनकी धारणा है कि परिवार, समाज, राज्य तथा स्कूलों को बालक की व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने के लिए स्थापित किया गया है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य तथा सामाजिक संस्था का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक अच्छा, सम्पन्न तथा सुखी एवं पूर्ण बनाये ।

इस उद्देश्य का प्रचार सबसे पहले प्रकृतिवादी दार्शनिक रूसो ने अपनी प्राकृतिक शिक्षा के द्वारा किया। उसने यह बताया कि बालक का प्राकृतिक विकास उसी समय हो सकता है जब उसकी शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था उसकी रुचियों, रुझानों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जाये। रूसो की भाँति अन्य शिक्षाशास्त्रियों ने भी वैयक्तिक उद्देश्य के इसी अर्थ पर बल दिया परन्तु उन सबमें टी०पी० नन का प्रमुख स्थान है। नन ने अपनी पुस्तक एजुकेशन : इट्स डेटा एण्ड द फर्स्ट प्रिन्सिपल में व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तियों के विकास पर विशेष बल देते हुए लिखा है- “मानव जगत् में यदि कुछ भी अच्छाई आ सकती है तो वह व्यक्तिगत पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वतंत्र प्रयासों के द्वारा ही आ सकती है। अतः शिक्षा का संगठन इस सत्य के आधार पर ही होना चाहिए।”

नन ने आगे लिखा है कि चूँकि प्रत्येक प्राणी अपने उच्चतम विकास के लिए प्रयास कर रहा है, इसलिए शिक्षा का वैयक्तिक उद्देश्य प्रकृति के नियम के अनुकूल है। उनके मतानुसार — “शिक्षा से प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी अवस्थाएँ प्राप्त होंगी जिनसे उसकी वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके।”

वे पुनः बल देते हुए कहते हैं—“पुरुषों तथा स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्र क्रियाओं के अतिरिक्त मानव जगत में कुछ भी अच्छा प्रवेश नहीं करता और शैक्षिक प्रक्रिया को इसी सत्य के अनुसार प्रारूप दिया जाना चाहिये।”

वैयक्तिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ (Broader Meaning of Individual Aim)

व्यापक अर्थ में शिक्षा का वैयक्तिक उद्देश्य हमारे सामने आत्मानुभूति के रूप में प्रकट होता है। मनोविज्ञान भी व्यक्तित्व के विकास के व्यापक अर्थ का समर्थन करता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक बालक एक-दूसरे बालक से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक दृष्टि से भिन्न होता है। यह भिन्नता रुचियों, शक्तियों, विचारों तथा कार्य करने की क्षमता में भी होती है। यही नहीं प्रत्येक बालक की सामान्य बुद्धि, जीवन के आदर्श तथा कार्य करने की गति में भी विशेष अन्तर होता है। किसी बालक की बुद्धि मन्द होती है तो किसी की प्रखर ऐसे ही एक बालक शारीरिक कार्य में रुचि लेता है तो दूसरा मानसिक कार्य को करना अधिक पसन्द करता है। यदि प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का उत्तम विकास करना है तो व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त को दृष्टि में रखना होगा । अतः प्रत्येक स्कूल का कर्त्तव्य है कि वह बालक की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं को दृष्टि में रखते हुए उसके समक्ष ऐसे अवसर प्रदान करे जिनके आधार पर उसकी मूल प्रवृत्तियाँ निखर जायें तथा उसकी समस्त शक्तियों एवं गुणों का समुचित विकास कर वह एक उत्तम व्यक्ति बन जाए।

इस प्रकार व्यक्तिगत शिक्षा के दो रूप हैं-

1. आत्माभिव्यक्ति,

2. आत्मानुभूति ।

1. आत्माभिव्यक्ति (Self-expression)- कुछ व्यक्तिवादी विचारकों के मतानुसार शिक्षा का उद्देश्य बालकों को आत्माभिव्यक्ति में स्वतंत्रता देना है। आत्माभिव्यक्ति से उनका तात्पर्य है आत्म-प्रकाशन, अर्थात् मूल प्रवृत्तियों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर देना। दूसरे शब्दों में, शिक्षा द्वारा बालकों की मूल प्रवृत्तियों का विकास इस प्रकार किया जाना चाहिये कि वे उनको स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकें। मनोविश्लेषणवादियों का कथन है कि आत्माभिव्यक्ति या आत्म-प्रकाशन से व्यक्ति में भावना ग्रन्थि नहीं बन पाती और उसका जीवन-यापन स्वाभाविक ढंग से चलता है। यह तभी सम्भव है, जब समाज में ऐसी स्वतंत्रता, रीति-रिवाज आदि हों जिनकी सहायता से बालक अपनी जन्मजात प्रवृत्तियों को सरलता से व्यक्त करना सीख सके।

2. आत्मानुभूति (Self-realisation)— आत्मानुभूति का अर्थ अपने ‘स्व’ को विकसित करते हुए विश्व के ‘स्व’ के साथ एकाकार कर देना अर्थात् ” एकता में अनेकता” और ” अनेकता में एकता” देखना है। यह एक आध्यात्मिक अवस्था है और व्यक्तित्त्व का सर्वोच्च सोपान है।

रॉस के अनुसार “आत्मानुभूति में आत्मा का अर्थ मौजूदा असन्तोषजनक एवं अनुशासनहीन आत्मा नहीं है बल्कि भविष्य की पूर्णतः परिवर्तित आत्मा है ।”

अतः इस उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक के गुणों तथा विकास की संभावनाओं का पता लगाकर उसे सुसामाजिक प्राणी बनाना है जिससे वह आगे चलकर अपने सर्वोच्च गुणों की अनुभूति कर सके ।

(a) वैयक्तिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Individual Aim) — इस सम्बन्ध में विचार इस प्रकार दिए गये हैं-

(i) रूसो जैसे प्रकृतिवादी शिक्षा का केन्द्रीय लक्ष्य व्यक्ति का सम्पूर्ण (स्वायत्त विकास) (Autonomous Development of the Individual) मानते हैं। उनके अनुसार ‘प्रत्येक वस्तु जब वह प्रकृति – सर्जक के हाथों से निकलती है, अच्छी होती है किन्तु मनुष्य के हाथों में आने से वह नष्ट हो जाती है।’

कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा को उन अवस्थाओं का निर्माण करना चाहिए, जहाँ प्रत्येक शिक्षार्थी अपने व्यक्तित्व का स्वतंत्र रूप से विकास कर सकें, उसे अपनी आन्तरिक शक्तियों का विकास करने तथा क्षमताओं को पहचानने की छूट होनी चाहिए।

(ii) जीव वैज्ञानिक यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक विशिष्ट प्राणी है। थॉम्पसन के अनुसार “शिक्षा व्यक्ति के लिए होती है। इसका कार्य व्यक्ति को जीने में सहायता प्रदान करना है। शिक्षा व्यक्ति के जीवन के संरक्षण में सहायक होती है। अतः शिक्षार्थी (व्यक्ति) को ही सभी शैक्षिणिक प्रयासों और क्रियाओं का केन्द्र होना चाहिए न कि समाज को।”

(iii) मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, ‘शिक्षा एक वैयक्तिक प्रक्रिया है’-कोई भी दो व्यक्ति समान बौद्धिक क्षमता के नहीं होते। इसलिए शिक्षा को व्यक्ति-उन्मुख होना चाहिए।

(iv) प्रगतिशील विचार वाले यह मानते हैं कि समाज का अन्तिम कल्याण व्यक्ति के आन्तरिक मूल्यों को उभारने में है।

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिक्षा प्रक्रिया में, प्रत्येक शिक्षार्थी की वैयक्तिकता को सर्वोपरि रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।

(b) शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य की आलोचना (Criticism of Individual Aim of Education)- शिक्षा के वैयक्तिक लक्ष्य की आलोचना इस प्रकार की गई है :

(i) अकेला व्यक्ति (Isolated Individual)- एक कल्पना मात्र : टी० रेमॉण्ट के अनुसार, ” अकेला व्यक्ति कल्पना का मात्र एक अंश होता है।” हम समाज से अलग व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकते। अकेला व्यक्ति अपने जीवन को संतोषजनक तरीके से नहीं जी पाता है तथा उसे अपना जीवन भार स्वरूप प्रतीत होता है।

(ii) व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है (An Individual is a Social Being)- जॉन ड्यूवी के शब्दों में, “सामाजिक प्राणी होने के कारण व्यक्ति सम्बन्धों तथा परस्पर क्रियाओं के विस्तृत मिश्रण में विकसित होने तथा विचार करने वाला नागरिक है।” अतः वह शैक्षिक क्रिया जिसका कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति में असफल रहती है।

(iii) स्वाभाविक रूप से दोषी (Inherently Defective)– शिक्षा में अकेले व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का विचार दोषपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति को प्रदत्त पूर्ण स्वतन्त्रता अनियंत्रित या आत्म-अभिव्यक्ति का रूप ले सकती है। यह उन सभी सामाजिक व नैतिक नियमों का उपहास करेगी जो समाज द्वारा नियमित जीवन का आधार है।

सर पर्सी नन के अनुसार, “व्यक्तित्व सामाजिक वातावरण में ही विकसित होता है जहाँ वह समान रुचियों और क्रियाओं पर अपना पोषण कर सके।”

(iv) मनुष्य की आध्यात्मिक प्रकृति के विरुद्ध (Against the Spiritual Nature of Man)—वैयक्तिक लक्ष्य के आलोचक यह विश्वास करते हैं कि जो व्यक्ति आन्तरिक व्यक्ति है, वह जानवर, स्वार्थी और अनुशासनहीन है। उसे प्रकृति से कोई मोह नहीं होता तथा वह प्रकृति के विरुद्ध चलने में कोई हिचक महसूस नहीं करता । वह प्रकृति को नष्ट करने में भी अभिमान समझता है। उसका एक अजीब दर्शन बन जाता है। वह सोचता है कि जब दूसरे उसकी कोई परवाह नहीं करते तो वह भी दूसरों की परवाह क्यों करे ।

(v) व्यक्ति समाज के योग्य होना चाहिए ( Individual must be Fit for Society)—रस्क (Rusk) ने कहा भी है कि शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास नहीं बल्कि व्यक्तित्व को सम्पन्न करना है। शिक्षा को उसे व्यक्ति से ‘सामाजिक प्राणी’ में परिवर्तित करना चाहिए। उसे समाज के योग्य बनाना चाहिए। हमारी बुद्धिमत्ता का यही परिचायक है कि हम सामाजिक सम्पन्नता में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दें। स्वयं के हितार्थ तो सभी करते हैं ।

(vi) व्यक्ति की महानता का आधार सामाजिक होता है (The Basis of Individual’s Greatness is Social)- महान् व्यक्तियों के योगदान संसार से अलग नहीं थे। उनकी महानता समाज की सम्पन्न परम्परा को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई थी। उन्होंने किसी सामाजिक पृष्ठभूमि के विरुद्ध कार्य नहीं किया। अतः उनके महान् योगदानों का आधार सामाजिक था और इसीलिये वे समाज में ‘Role-Model’ के रूप में जाने जाते हैं।

संक्षेप में, शिक्षा का वैयक्तिक उद्देश्य अपने अन्तिम रूप में एक पक्षीय हैं। वह राष्ट्र की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। साथ ही, यह देश की आर्थिक स्थिति को अनुचित रूप से प्रभावित कर सकती है।

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shubham yadav

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