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संविधान एवं संविधानवाद
मानत्र समाज में ‘राजनीतिक शक्ति’ का प्रादुर्भाव कब और किन परिस्थितियों में हुआ यह … का ही विषय है। परन्तु जब से प्रारम्भिक समाज का उदय हुआ, शायद तभी से ही ‘राजनीतिक शक्ति, को जन्म देने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। सम्भवतया इसी शक्ति के प्रयोग से आदिकालीन मानव समाज में कुछ व्यवस्था व स्थिरता की स्थापना हुई। इसलिए ‘राजनीतिक शक्ति’ का हर समाज में आरम्भ से ही महत्त्व माना जा सकता है। परन्तु ज्यों-ज्यों मनुष्य में सामाजिकता बढ़ती गयी और संगठित जीवन का महत्त्व व उपयोगिता स्पष्ट होने लगी, त्यों-त्यों व्यवस्थित जीवन को व्यावहारिक बनाने वाली ‘राजनीतिक शक्ति’ में अवपीड़न व बाध्यता का तत्त्व समाविष्ट होता गया। एक ओर मानव ने राजनीतिक शक्ति की सर्वोच्चता को स्वीकार किया किन्तु दूसरी ओर उस पर प्रभावकारी नियंत्रणों की भी व्यवस्था की ताकि व्यक्ति की स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए शासक आगे बढ़ सकें और साथ ही इसके उल्लंघन के लालच से रोका भी जा सके। यही कारण है कि शुरू से ही शासकों को कानूनों, सुरक्षाओं और संतुलन शक्तियों के माध्यम से नियंत्रित और प्रतिबंधित करने का प्रयास किया जाता रहा है। यह एक मान्य सिद्धांत बन गया है कि संपूर्ण राजनीतिक तंत्र को एक संवैधानिक विधि के नियंत्रण में होना चाहिए तथा राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग से बचाव की प्रक्रिया का उल्लेख एक ऐसे दस्तावेज में होना चाहिए, जिसे सामान्यतः संविधान कहा जाता है। अतः इसमें निहित मान्यताओं, मूल्यों और राजनीतिक आदर्शों की प्राप्ति के लिए शासकों को नियमित अधिकार क्षेत्र में ही रहने के लिए बाध्य करने की संवैधानिक नियंत्रण व्यवस्था को ‘संविधानवाद’ कहा जाता है।
अतः संविधानवाद वह राजनीतिक व्यवस्था है जिसका संचालन विधियों और नियमों द्वारा होता है, न कि व्यक्तियों द्वारा यह लोकतांत्रिक भावनों और व्यवस्था पर आधारित है जिसमें शक्तियों के केन्द्रीकरण और निरंकुश व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है। वास्तव में संविधान और संवैधानिक सरकार, संविधानवाद की पूर्वगामी परिस्थितियाँ हैं। संविधानवाद केवल उसी राजनीतिक व्यवस्था में सम्भव है, जहाँ संविधानवाद हो और इस संविधान द्वारा राजनीतिक शक्ति के प्रयोगकर्ताओं की न केवल भूमिका निर्धारित की जाय, अपितु इस भूमिका की व्यावहारिकता की व्यवस्था भी की जाय, अर्थात् सरकार संविधान की व्यवस्था के अनुरूप ही संचालित हो और इसे व्यवहार में सम्भव बनाने के लिए संवैधानिक नियंत्रणों व प्रतिबंधों की प्रभावशाली व्यवस्था हो ।
संविधानवाद का अर्थ
संविधानवाद उन विचारों व सिद्धांतों की ओर संकेत करता है, जो उन संविधान का वितरण व समर्थन करते हैं, जिसके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जा सके। यह संविधान पर आधारित विचारधारा है जिसका मूल अर्थ यही है कि शासन संविधान में लिखित नियमों व विधियों के अनुसार ही संचालित हो व उस पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित रहे जिससे वे मूल्य व राजनीतिक आदर्श सुरक्षित रहें जिनके लिए समाज राज्य के बंधन स्वीकार करता है।
चूँकि संविधान शासन सत्ता को परिभाषित और सीमित करता है अतः यह कहा जा सकता है कि सर्वाधिकारवादी राज्यों में संविधानवाद नहीं होता। जहाँ अपनी सुविधा के अनुसार संविधान को प्रायः बनाया और बिगाड़ा जाता है, कभी उनमें परिवर्तन किया जाता है तो कभी संविधान का उन्मूलन ही कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति वाले देशों में संविधानवाद का अभाव होता है।
अतः संविधानवाद संविधान के निर्णयों के अनुरूप शासन संचालन से अधिक है। इसका अर्थ है, निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन। इसका अर्थ संविधान की शर्तों द्वारा सीमित सरकार से है, ऐसी सरकार से नहीं है जो सत्ता का उपयोग कर रहे लोगों की इच्छाओं और क्षमताओं द्वारा सीमित हो। जे. ए. राऊसैक ने संविधानवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है “यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासन के रूप में नियंत्रण की एक व्यवस्था है।” कोरी एवं अब्राहम के अनुसार, “स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहा जाता है।” कार्टर व हर्ज के अनुसार, “मौलिक अधिकार तथा स्वतंत्र न्यायपालिका प्रत्येक संविधानवाद की अनिवार्य और सामान्य विशेषता है।” कार्ल जे. फ्रेडरिक के शब्दों में, “व्यवस्थित परिवर्तन की जटिल प्रक्रियात्मक व्यवस्था ही संविधानवाद है।”
संक्षेप में, संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें शासन जनता की आस्थाओं, मूल्यों और आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों और सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है तथा ऐसे संविधान के माध्यम से ही शासकों को प्रतिबंधित और सीमित रखा जाता है जिससे राजनीतिक व्यवस्था की मूल अवस्थाएँ सुरक्षित रहें और व्यवहार में हर व्यक्ति उन्हें प्राप्त कर सके। इस प्रकार संविधानवाद में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की अपेक्षा की जाती है, जिसमें सरकार की शक्तियां सीमित होती हैं। यह एक सीमित और इस प्रकार ‘सभ्य’ सरकार की संकल्पना का दूसरा नाम है। संविधान की वास्तविक न्यायोचितता ‘सीमित सरकार’ को पाने में और शासन करने वालों से ‘नियमों और विधियों के अनुकूल होने’ की अपेक्षा करने में हैं।
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