समाज सेवा
समाज सेवा का अर्थ एवं स्वरूप
समाज सेवा का अर्थ एवं स्वरूप जीवन को सार्थकता स्वयं से हटकर दूसरों के लिए सोचना भी है। यह संदेश यदि फलों से लदे वृक्ष, फूलो से लटकती डालियाँ दे सकती है तो फिर मनुष्य क्यों नहीं। तुलसीदासजी ने भी रामचरित मानस में कहा है-
“परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई”।
समाज सेवा वैयक्तिक आधार पर, समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की एक प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति अपनी सहायता स्वयं कर सके। इसके माध्यम से सेवार्थी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न अपनी कतिपय समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम होता है। अत: हम समाज सेवा को एक समर्थकारी प्रक्रिया कह सकते हैं। यह अन्य सभी व्यवसायों से सर्वथा भिन्न होती है; क्योंकि समाज सेवा उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का निरूपण कर उसके परिप्रेक्ष्य में क्रियान्वित होती है, जो व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण-परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रभावित करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों के बाद व्यक्तिगत जैविकीय, भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक तत्त्वों की गतिशील अन्तःक्रिया को दृष्टिगत कर ही सेवार्थी को सेवा प्रदान करता है। वह सेवार्थी के जीवन के प्रत्येक पहलू तथा उसके पर्यावरण में क्रियाशील, प्रत्येक सामाजिक स्थिति से अवगत रहता है, क्योकि सेवा प्रदान करने की योजना बनाते समय वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।
समाज सेवा का उद्देश्य
समाज सेवा का उद्देश्य व्यक्तियों, समूहों और समुदायों का अधिकतम हितसाधन होता है। अत: सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को उसकी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम बनाने के साथ उसके पर्यावरण में अपेक्षित सुधार लाने का प्रयास करता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त सेवार्थी की क्षमता तथा पर्यावरण की रचनात्मक शक्तियों का प्रयोग करता है। समाज सेवा सेवार्थी तथा उसके पर्यावरण के हितों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है।
समाज सेवा का वर्तमान स्वरूप निम्नलिखित जनतांत्रिक मूल्यों के आधार पर निर्मित हुआ है-
(1) व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता, समग्रता एवं गरिमा में विश्वास- समाज सेवा सेवार्थी की परिवर्तन और प्रगति की क्षमता में विश्वास करती है।
(2) स्वनिर्णय का अधिकार– सामाजिक कार्यकर्ता सेवार्थी को अपनी आवश्यकताओ और उनकी पूर्ति की योजना के निर्धारण की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। निस्सदेह कार्यकर्ता सेवार्थी को स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सहायता करता है जिससे वह वास्तविकता को स्वीकार कर लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में उन्मुख हो।
(3) अवसर की समानता में विश्वास- समाज सेवा सबको समान रूप से उपलब्ध रहती है और सभी प्रकार के पक्षपातों और पूर्वाग्रहों से मुक्त कार्यकर्तासमूह अथवा समुदाय के सभी सदस्यों को उनकी क्षमता और आवश्यकता के अनुरूप सहायता प्रदान करती है।
(4) व्यक्तिगत अधिकारों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों में व्यक्ति के स्वनिर्णय एवं समान अवसरप्राप्ति के अधिकार, उसके परिवार, समूह एवं समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्व से सम्बद्ध होते हैं। अत: सामाजिक कार्यकर्ता व्यक्ति की अभिवृत्तियों एवं समूह तथा समुदाय के सदस्यों की अन्त:क्रियाओं, व्यवहारों तथा उनके लक्ष्यों के निर्धारण को इस प्रकार निर्देशित करता है कि उनके हित के साथ उनके बृहद् समाज का भी हितसाधन हो।
समाज सेवा के प्रकार
समाज सेवा के निम्न तीन प्रकार होते है-
(1) वैयक्तिक समाज सेवा- इस प्रक्रिया के माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सहायता वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन उसकी कतिपय समस्याओं के समाधान के लिए करता है जिसमें वह समाज द्वारा स्वीकृत संतोषपूर्ण जीवन व्यतीत कर सके।
(2) सामूहिक समाज सेवा- एक विधि है जिसके माध्यम से किसी सामाजिक समूह के सदस्यों की सहायता एक कार्यकर्ता द्वारा की जाती है, जो समूह के कार्यक्रमों और उसके सदस्यों की अन्तःक्रियाओं को निर्देशित करता है जिससे वे व्यक्ति को प्रगति एवं समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान कर सकें।
(3) सामुदायिक संगठन- वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक संगठनकर्ता की सहायता से एक समुदाय के सदस्य समुदाय और लक्ष्यों से अवगत होकर, उपलब्ध साधनों द्वारा उनकी पूर्ति आवश्यकताओं के निमित्त, सामूहिक एवं संगठित प्रयास से करते हैं।
इस प्रकार समस्त सेवा की तीनों विधियों का लक्ष्य व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति है। उनकी सहायता इस प्रकार की जाती है कि वे अपनी आवश्यकताओ, व्यक्तिगत क्षमता तथा प्राप्य साधनों से भली-भाँति अवगत होकर प्रगति कर सके तथा स्वस्थ समाज व्यवस्था के निर्माण में सहायक है।
समाज सेवा का महत्त्व
मानव एक सामाजिक प्राणी है। ‘प्राणी’ इस जगत का सर्वाधिक विकसित जीव है और इस समाज के बिना उसका रहना कठिन ही नहीं, असम्भव है। माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदारों आदि लोगों को मिलाकर ही इस समाज की रचना होती है। समाज के बिना मानव का पूर्ण रूप से विकास होना सम्भव ही नहीं है, इसलिए मानव को हर कदम-कदम पर समाज को आवश्यकता होती है तथा समाज के लोगों के बीच ही हम अपने जीवन का अधिकतर समय व्यतीत करते हैं। हम जिस समाज में रहते है, उन्हीं के बीच हम खाते हैं, पीते है, जीते हैं व रहते हैं। हमें निस्वार्थ भाव से समाज के लोगों की सेवा, मदद, हित आदि करने चाहिए, इससे पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में सुधार किया जा सकता है। समाज सेवा के द्वारा सरकार और जनता दोनों की आर्थिक सहायता की जा सकती है। अपने निकट सम्बन्धियों एवं पड़ोसियों की सेवा करना भी समाज सेवा ही है। आज हमारे देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर है, अत: समाज की सेवा करना हर युवा का कर्त्तव्य है। समाज के सेवकों का यह कर्त्तव्य है कि वे सच्चे दिल से समाज की सेवा करें। सच्चे हृदय से की गयी समाज सेवा ही इस देश एवं इस पूरे संसार व समाज का कल्याण कर सकती है।
जिस तरह हर व्यक्ति निस्वार्थ भाव से अपने परिवार की तन-मन, धन से समर्पित होकर पूर्ण रूप जिम्मेदारी/दायित्व उठाते सेवा करता है, उसी प्रकार हर व्यक्ति की अपने समाज के प्रति भी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने परिवार की तरह ही अपने समाज के लिए सोच विचार करे तथा समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे और समाज सेवा को एक जिम्मेदारी के साथ निभाए। हमारा परिवार भी समाज का एक हिस्सा होता है, उसी समाज के कारण हमारी और हमारे परिवार की पहचान होती है। इसलिए जितनी जिम्मेदारी हमारी हमारे परिवार के लिए होती है, उतनी ही जिम्मेदारियाँ हमारी हमारे समाज के प्रति भी बनती है और इन जिम्मेदारियों का परिवहन बिना किसी निस्वार्थ भाव के करना समाज के हर नागरिक का कर्तव्य है।
मानव होने के नाते जब तक हम एक-दूसरे का दुःख-दर्द में साथ नहीं निभाएँगे, तब तक इस जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी। वैसे तो हमारा परिवार भी समाज की ही एक इकाई है, किन्तु इतने तक ही सीमित रहने से सामाजिकता का उद्देश्य पूरा नहीं होता। हमारे जीवन का अर्थ तभी पूरा होगा जब हम समाज को ही परिवार माने। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को हम जितना अधिक-से-अधिक विस्तार देगे, उतनी ही समाज में सुख-शांति और समृद्धि फैलेगी। मानव होने के नाते एक-दूसरे के काम आना भी हमारा प्रथम कर्त्तव्य है। हमें अपने सुख के साथ-साथ दूसरे के सुख का भी ध्यान रखना चाहिए। अगर हम सहनशीलता, संयम, धैर्य, सहानुभूति और प्रेम को आत्मसात करना चाहे तो इसके लिए हमे संकीर्ण मनोवृत्तियों को छोड़ना होगा। धन, सम्पत्ति और वैभव का सदुपयोग तभी है, जब हमारे साथ-साथ दूसरे भी इसका लाभ उठा सके। आत्मोन्नति के लिए ईश्वर प्रदत्त जो गुण सदैव रहता है, वह है-सेवाभाव, समाज सेवा। जब तक सेवाभाव को जीवन में पर्याप्त स्थान नहीं दिया जाएगा, तब तक आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। कहा भी गया है कि भलाई करने से भलाई मिलती है और बुराई करने से बुराई मिलती
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