अनुक्रम (Contents)
समावेशी शिक्षा का क्षेत्र (Scope of Inclusive Education)
समावेशी शिक्षा का क्षेत्र निम्नलिखित है-
(i) अस्थिबाधित बालक।
(ii) श्रवणबाधित बालक।
(iii) दृष्टिबाधित बालक या एक आँख वाले बालक।
(iv) मानसिक मन्दित बालक जो शिक्षा प्राप्त करने के योग्य हों।
(v) विभिन्न प्रकार से अपंग बालक जैसे-श्रवणबाधित, दृष्टिबाधित, अस्थिबाधित या अपंग बालक आदि इन्हें बिहुबाधित भी कहते हैं।
(vi) अधिगम असमर्थी बालक।
(vii) अन्धे बालक, जिन्होंने ब्रेल लिपि में पढ़ने और लिखने का शिक्षा प्राप्त कर लिया है तथा अब उन्हें विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
(viii) बधिर बालक जिन्होंने सम्प्रेषण में निपुणता तथा पढ़ना सीख लिया है।
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं चुनौतियाँ (Needs and Challenges of Inclussive Education)
समावेशी शिक्षा वर्तमान समाज की एक आवश्यकता बन गई है। वैयक्तिक, पारिवारिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह विविध प्रकार के असमानताओं के कारण हुई रिक्तियों को भरने में सहायक हैं। समावेशी शिक्षा की आवश्यकता एवं चुनौतियों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. शिक्षा की सर्वव्यापकता (Universalization of Education) – शिक्षा-विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा को तभी सार्वभौमिक बनाया जा सकता है यदि प्रत्येक बालक के गुणों, स्तर तथा आवश्यकताओं एवं चुनौतियों को दृष्टिगत रखकर शिक्षा का विस्तार किया जाए। समावेशी इस अवधारणा को मुख्य रखते हुए पाठ्यक्रम निर्धारित करने पर बल देती है। सरकार ने इस दिशा में अनेक नीतियों एवं योजनाओं का निर्माण किया है। समावेशी शिक्षा ‘सार्वभौमिक शिक्षा’ के लिए किये जा रहे प्रयासों में योगदान देती है।
2. संवैधानिक उत्तरदायित्व का निर्वहन (To Fulfil the Constitutional Responsibility)-भारत एक प्रजातन्त्र गणराज्य है। यहाँ शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है, जाति, रंग-भेद, धर्म, लिंग-भेद आदि का कोई स्थान नहीं है। किसी भी शिक्षा प्रणाली में यह निर्णय करने का अधिकार किसी भी को नहीं है कौन शिक्षा ग्रहण करेगा तथा कौन नहीं। समावेशी शिक्षा बिना किसी विभेदन के सभी को शिक्षा प्राप्ति का अवाह्न करती है।
3. राष्ट्र का विकास (Development of the Nation)- देश की खुशहाली एवं संगठन के लिए विकास एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यक चुनौतियाँ है जिसमें सभी नागरिकों के यथाचित योगदान की सदैव जरूरत होती है। लेकिन अपनी क्षमता एवं समर्थ्य की उपयुक्ता की अनुभूति एवं प्राप्ति के बिना किसी देश की एक बहुत बड़ी संख्या उसके नवनिर्माण में कैसे तथा कितनी सकारात्मक भूमिका निभा सकती है। यूनेस्को ने जनेवा में अपने सम्मेलन (नवम्बर, 2008) में यह स्पष्ट किया कि प्राथमिक शिक्षा के आशातीत विस्तार के बावजूद भी 72 मिलीयन से अधिक निर्धनता एवं सामाजिक हाशिए स्तर (Marginalized) पर स्थित बच्चे किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं ले पाए हैं तथा ऐसे प्रत्येक दस बच्चों में से 7 बच्चे उप-शहरी सहारा अफ्रीका तथा दक्षिणी-पश्चिमी एशिया के देशों से हैं। स्पष्ट है कि शिक्षा से वंचित व्यक्तियों से राष्ट्र के विकास में योगदान को अपेक्षा कैसे की जा सकती है। राष्ट्र के विकास में योगदान से पहले उपयुक्त संसाधनों के उपयोग से व्यक्ति के लिए स्वयं की क्षमताओं का विकास करना आवश्यक होता है। समावेशी शिक्षा जिस के लिए एक उत्तम साधन है।
4. निर्धनता-चक्र की समाप्ति (Breaking the Cycle of Poverty)- भारत जैसे देश में शिक्षा को ज्ञान संग्रहण के साथ-साथ जीविकोपार्जन का एक उपयुक्त माध्यम समझा जाता है और इसकी आवश्यकता भी है। शिक्षित व्यक्ति कोई भी रोजगार करे – हस्तकौशल, अर्ध-कौशल अथवा कौशल पूर्ण उसे अपने कर्त्तव्यों एवं अधिकारों का ज्ञान होता है। वह शोषण से बच सकता है तथा अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण भी कर सकता है। लेकिन एक अशिक्षित व्यक्ति अपनी असमर्थता के कारण लाचार होता है। परिणामस्वरूप गरीबी एवं उत्पीड़न का चक्र ज्यों का त्यों बना रहता है। इस दृष्टि से शिक्षा का प्रसार हमारी एक बहुत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है तथा समावेशी शिक्षा इस दिशा में एक बेहतर प्रयास है।
5. समाज के विकास एवं सशक्तिकरण के लिए (Development and Empowerment of Society) – व्यक्तियों का संयोग समाज का निर्माण करता है। व्यक्ति समाज के भवन-निर्माण की नींव हैं। व्यक्तियों की प्रगति, परिश्रम, सूझबूझ एवं प्रयत्नों से उनका व्यक्तिगत जीवन संवरता है जिसमें शिक्षा का योगदान सब से अधिक महत्त्व रखता है। वस्तुतः समाज का विकास एवं सशक्तिकरण उसके सुयोग्य एवं सुशिक्षित नागरिकों पर अधिक निर्भर करता है। वर्त्तमान समय की माँग है कि शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक बालक को सुयोग्य एवं सूझवान नागरिक बनाने के प्रयत्न किए जाएँ ताकि वह अपनी योग्यता एवं बौद्धिक क्षमता का प्रयोग समाज कल्याण के लिए कर सके। समावेशी शिक्षा इस दिशा में एक दूरदर्शितापूर्ण उपयोगी प्रयास है।
6. आधुनिक तकनीकों का प्रयोग (Utilization of Latest Technologies)- कम्प्यूटर, इंटरनेट, सेटेलाइट चैनल आदि जैसे आदि आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करना अब आम बात हो गई है। लेकिन बहुत से विद्यालयों में शिक्षण अभी भी चाक एवं श्यामपट्ट की सीमा में ही बन्द है। अब समय आ गया है जब सभी बालकों में शिक्षा में आधुनिक सहायक तकनीकों से परिचित करवाएँ। उनमें उनके सम्बन्ध में तथा शिक्षा में इनके महत्त्व सम्बन्धी ज्ञान का संचार किया जाए। शिक्षा के प्रसार के बिना ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है। यह आवश्यक है कि आज का प्रत्येक बालक इन साधनों की जानकारी रखे तथा इनके प्रयोग का बोध भी प्राप्त करे। समावेशी शिक्षा में इन साधनों के प्रयोग का प्रावधान रखा गया है। जो समय पाकर शिक्षा में एक मील पत्थर की तरह साबित होगा।
7. नागरिकता के उत्तम गुणों का विकास ( Development of Desirable Traits for Citizenship)- यह विश्वास जताया जाता है कि समावेशी शिक्षा बालकों में अच्छी नागरिकता के लिए आवश्यक गुणों का विकास करती है । ऐसा इसलिए है क्योंकि यह शिक्षा प्रणाली अपने पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों तथा स्कूल एवं कक्षा में तथा इनसे बाहर पारस्परिक सामाजिक क्रिया तथा व्यवहार में गतिशीलता तथा समायोजन पर बल देती है। विविध विशेषताओं वाले बालकों के प्रति शिक्षक की अभिवृत्ति तथा उसके व्यवहार में लचीलापन की अपेक्षा की जाती है। इसके अतिरिक्त समावेशी शिक्षा की शिक्षण रणनीतियाँ (Strategies) भी गुणवत्ता के पक्ष में से मजबूत होने के साथ-साथ अच्छी नागरिकता के गुणों के विकास में सहायक हो सकती हैं जैसे: सहयोगी-अधिगम ( Cooperative learning) तथा साथी-माध्यम से शिक्षा (Peer tutoring) के प्रक्रम बालकों में सहयोग, सहानुभूति, परस्पर उपयुक्त अन्तःक्रिया, सहनशीलता, एक-दूसरे की आवश्यकता को समझना तथा आदर करना, आपसी विचार-विमर्श तथा समूह में कार्य करना आदि गुणों का विकास करते हैं, जिन्हें नागरिकता के उत्तम लक्षण माना जाता है।
8. सामाजिक समानता का उपयोग एवं प्राप्ति ( Realization of Social Equality)- अधिकारों तथा सम्भावनाओं से लाभान्वित होने की समानता का कार्यक्षेत्र समावेशी शिक्षा है। संवैधनिक समानता के सिद्धान्तों का व्यक्तियों तथा समाज को तभी लाभ हो सकता है जब उन्हें कार्यान्वित किया जाए तथा विद्यालय इस दृष्टि से सबसे उपयुक्त स्थान है। जनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक सम्मेलन (नवम्बर, 2008) में समावेशी शिक्षा पर इस प्रश्न के अन्तर्गत यह स्पष्ट संकेत दिया गया कि स्कूल ही एक ऐसा स्थान है जहाँ सभी बच्चे भागीदार होते हैं तथा सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाता है।’ (….. that school is a place where all children participate and are treated equally) अभिप्राय यह है कि सामाजिक समानता का पहला पाठ स्कूलों में पढ़ाया जाता है। समावेशी शिक्षा इस के लिए अत्यन्त उपयुक्त स्थल है क्योंकि इसमें रंग-भेद, जाति समुदाय, धर्म, लिंग तथा दैहिक एवं मानसिक गुणों की विभिन्नता के कारण किसी भी बालक को शिक्षा ग्रहण करने से वंचित नहीं किया जा सकता। रोजी-रोटी कमाने की दौड़ में ‘आशक्त’ व्यक्तियों के विषय में और भी अधिक गम्भीरता से विचार करने तथा प्रावधान निश्चित करने की आवश्यकता है। समावेशी शिक्षा प्रणाली के द्वारा समाज के आशक्त, असक्षम तथा बधित व्यक्तियों को जीवन जीने तथा समाजिक समानता से व्यवहारिक रूप से फायदा उठाने की आशा दी जा सकती है।
9. शिक्षा का स्तर बढ़ाना (To Improve the Quality of Education)-
समावेशी शिक्षा न केवल सबके लिए शिक्षा बल्कि सब के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अवधारणा पर आधारित है। इस शिक्षा प्रणाली में सभी बच्चों के दैहिक मानसिक संवेगात्मक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मूलभूत सिद्धान्त पर पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों को लचीला बनाने पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि इस प्रावधान से ही बच्चों का सर्वपक्षीय विकास सम्भव हो सकता है। इस पद्धति में शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया को इस प्रकार नियोजित किया जाता है जिससे प्रत्येक बालक का इष्टत्तम विकास होता है तथा वह अपनी क्षमताओं के सम्पूर्ण उपयोग से उपलब्धि प्राप्त करता है। स्पष्ट है कि ऐसी शिक्षा प्रणाली से गुणात्मक शिक्षा का उद्बोधन होगा।
10. व्यक्तिगत जीवन एवं विकास (Child’s Individual Life and Development)- समावेशी शिक्षा की सबसे अधिक आवश्यकता बालकों के व्यक्तिगत जीवन को खुशहाल बनाने तथा उसके विकास के दृष्टिकोण को अपनाने से है। बालक समावेशी शिक्षा का केन्द्र है इस शिक्षा प्रणाली का सबसे अधिक महत्त्व बालक के लिए है। यह शिक्षा प्रणाली हर प्रकार के विभेदन को नकारती है तथा बच्चे को जैसा वह है उसी रूप से सहर्ष स्वीकार करती है। बालक के विकास के सन्दर्भ में यह मूल निर्धारक तत्त्व है। इसी से उसके समुचित विकास का प्रारम्भ किया जा सकता है। बालकों के संज्ञानात्मक संवेगात्मक समाजिक तथा मानसिक विकास के लिए समावेशी शिक्षा का विशेष महत्त्व है।
(11) परिवार के लिए सान्त्वना एवं सन्तोषपूर्ण प्रभाव (Consoling and Soothing Effect for the Family) – यह बात विशेष रूप से अशक्त बालकों के परिजनों के सन्दर्भ में अधिक महत्त्व रखती है। अशक्त एवं अपंग बालक के जन्म के साथ ही माता-पिता तथा परिजनों में उदासीनता एवं निराश घर कर लेती है। वे लोग प्रारम्भ से ही ऐसे बालक को दयनीय दृष्टि से देखने लगते हैं। कम सामर्थ्य रखने वाले बालक के प्रति उनकी अभिवृत्ति बिल्कुल भिन्न होती है। पहले सामान्य विद्यालयों में ऐसे बालकों के लिए कोई स्थान नहीं होता था। माता-पिता को उन्हें सुदूर विशिष्ट स्कूलों में भेजना पड़ता था । यह बालक तथा परिवार दोनों के लिए ही कष्टप्रद होता है लेकिन अब चूँकि समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत इन बालकों का सामान्य स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करना सम्भव हो गया है, इसलिए अभिभावकों के लिए यह पर्याप्त सुविधाजनक होने के साथ-साथ सन्तोष एवं सान्त्वनापूर्ण प्रावधान भी है। इस बात को भी दृष्टि ओझल नहीं किया गया है कि पाठ्यचार्य लचीली तथा आवश्यकताओं पर आधारित हो। समावेशी शिक्षा प्रणाली ने यह सम्भव कर दिया है कि अब विशिष्ट बालक अपने परिवार में रहते हुए सामान्य विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ ही शिक्षा ग्रहण कर सकेंगें।
12. समावेशी शिक्षा एक प्रथम स्तरीय प्रयास ( Inclusive Education : A First Level Effort) – समावेशी के उद्देश्यों की सार्थकता सबसे अधिक उन बालकों के लिए है जो किसी न किसी कारण से अब तक शिक्षा से वंचित रहे हैं और जिन्हें सहयोगी प्रयत्नों तथा समर्थन की अधिक आवश्यकता रही है। अमेरिका में अब भी विभिन्न अपवर्जित तथा सामाजिक सीमान्त – स्तर (marginalized) के समूहों को “Difficult” और “Different” सम्बोधन के साथ विशिष्ट शैक्षिक प्रावधानों से उपयुक्त ढंग से लाभान्वित किया जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रयास द्वितीय स्तर के ही सिद्ध हुए हैं। समावेशी शिक्षा ऐसे बच्चों के लिए न केवल स्कूल तक उनकी पहुँच बनाती है बल्कि अपनी लचीली योजनाओं तथा शिक्षण तकनीकों के माध्यम से उन की सफलता तथा उन्हें समाज में अच्छे समायोजन का आश्वासन भी देती है।