“साहित्य लोक जीवन का प्रहरी” संकेत बिन्दु- प्रस्तावना साहित्य की अवधारणा, साहित्य का समाज में सहयोग, समाज में साहित्यिक दृष्टिकोण, उपसंहार।
अनुक्रम (Contents)
साहित्य लोक जीवन का प्रहरी | साहित्य और जीवन पर निबंध
प्रस्तावना
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा है-“जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता।” सचमुच किसी भी राष्ट्र की भाषा एवं साहित्य के अध्ययन के आधार पर वहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास का सहज ही आकलन किया जा सकता है, क्योंकि साहित्य में मानवीय समाज के सुख-दुःख, आशा-निराशा, साहस-भय और उत्थान-पतन का स्पष्ट चित्रण रहता है। साहित्य की इन्हीं खूबियों के कारण इसे समाज का दर्पण कहा जाता है। मुंशी प्रेमचन्द ने साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ कहा है।
साहित्य की अवधारणा वास्तव में, देखा जाए तो साहित्य एक स्वायत्त आत्मा है और उसकी सृष्टि करने वाला भी ठीक से यह नहीं बता सकता कि उसके रचे साहित्य की गूंज कब और कहाँ तक जाएगी। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि साहित्य समाज में नैतिक सत्य की चिन्ता है, तो यह समाज की दूरगामी वृत्तियों का रक्षक तत्त्व भी है।
साहित्य में सत्य की साधना है, शिवत्व की कामना है और सौन्दर्य की अभिव्यंजना है। शुद्ध, जीवन्त एवं उत्कृष्ट साहित्य मानव एवं समाज की संवेदना और उसकी सहज वृत्तियों को युगों-युगों तक जनमानस में संचारित करता रहता है। तभी तो शेक्सपियर हों या कालिदास उनकी कृतियाँ आज भी अपनी रससुधा से लोगों के हृदय को आप्लावित कर रही हैं। एक बात और, राजनीतिक दृष्टि से विश्व चाहे कितने ही गुटों में क्यों न बँट गया हो, चाहे उसके मतभेद की खाई कितनी ही गहरी क्यों न हो गई हो, किन्तु साहित्य के प्रांगण में सब एक हैं, क्योंकि दुनिया का मानव एक है तथा उसकी वृत्तियाँ भी सब जगह और सभी कालों में एक समान हैं।
प्राचीन ग्रीक साहित्य क्यों प्रिय लगता है, जबकि वह ग्रीक समाज की दास-प्रथा,स्त्रियों की दुर्दशा तथा श्रम से घृणा जैसी विकृतियों से पीड़ित था। वह आज भी प्रिय एवं आकर्षक इसलिए लगता है कि इसमें मनुष्यता का एक युग चित्रित हुआ है। इसमें दो राय नहीं कि मनुष्य के सहज स्वभाव के अनुसार साहित्य भी परिवर्तित होता रहता है। कारण यह है कि साहित्यकार समय की विचारधारा से अछूता नहीं रह सकता। जीवन की तरह साहित्य में भी संघर्ष और निरन्तरता चलती रहती है, इसलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है और कहलाए भी क्यों न समय और परिस्थिति का प्रभाव साहित्य पर अनिवार्य रूप से जो पड़ता है।
साहित्य का समाज में सहयोग
साहित्य ही वर्तमान को सामने रखकर भविष्य की रूपरेखा तय करता है। समाज की सुषुप्त विवेक-शक्ति को जागृत करना साहित्य का बुनियादी लक्ष्य है। अपने समय के सच को उजागर करने के साथ ही गुणात्मक साहित्य सदैव प्रासंगिक बना रहता है तथा जनमानस को आलोक स्तम्भ के समान दिशा और प्रकाश देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि श्रेष्ठ साहित्य वही होता है, जो अपने भीतर-बाहर सार्वभौमिक मूल्यों, सन्देशों एवं उद्देश्यों को समाए रहता है। उदाहरण के तौर पर कबीरदास, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरत्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, रेणु, प्रेमचन्द, शेक्सपियर, होमर, मिल्टन आदि नाम मानव एवं समाज की चेतना में रच-बस चुके हैं। ये साहित्यकार मनुष्य की नियतिगत विवशताओं के सामने विकल्पों, प्रारूपों तथा सम्भावनाओं का मानचित्र खड़ा करके प्रतिरोधक बल की सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
समाज साहित्य दृष्टिकोण
साहित्यिक परिस्थितियाँ जैसी होगी, उस काल के साहित्य का स्वरूप भी वैसा ही होगा। विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार, साहित्य को आदर्शवादी होना चाहिए, तो दूसरे वर्ग के अनुसार, यथार्थवादी। यथार्थवादियों का साहित्य के विषय में यह तर्क है कि जीवन में निराशा, पाप एवं कष्ट का साम्राज्य होता है, अतः जीवन की इस स्थिति में आशा, पुण्य और सुख का चित्रण अस्वाभाविक प्रतीत होता है।
दूसरी ओर, आशावादियों का कहना है कि जीवन में निराशा, पाप और कष्ट का साम्राज्य ही नहीं होता, बल्कि उसमें आशा, पुण्य और सुख का भी समावेश होता है, इसलिए यथार्थवादियों का तर्क आदर्शवाद की गलत समझ का सूचक है। दोनों के मध्य विवाद को समाप्त करते हुए छायावाद के शीर्षस्थ कवि जयशंकर प्रसाद की पंक्तियों को उद्धृत किया जा सकता है-“जीवन की अभिव्यक्ति यथार्थवाद है और अभावों की पूर्ति आदर्शवाद। साहित्य की पूर्णता के लिए यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों का समन्वित रूप आवश्यक है।” अत: कह सकते हैं कि यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
वास्तव में, जीवन साहित्य का आधार है-चाहे वह व्यक्ति-विशेष का हो, परिवार का हो, समाज का हो, राज्य का हो, राष्ट्र का हो अथवा सम्पूर्ण विश्व का। जीवन के बिना साहित्य की कल्पना भी असम्भव है और साहित्य की समृद्धि के बिना जीवन एवं समाज का सम्यक् विकास असम्भव है।
उपसंहार
साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। न तो साहित्य समाज को समझे बगैर कुछ सीख सकता है, न ही कोई सीख दे सकता है। दूसरी ओर, यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी समाज साहित्यविहीन नहीं होता। साहित्य अर्थात् रचनात्मकता मानवीय प्रकृति का अभिन्न अंग है, जो कल्पनाशीलता की सक्रियता के माध्यम से विकास की प्रेरक शक्ति के रूप में सदा विद्यमान नजर आती है। हर बड़ा रचनाकार पूर्ण रूप से समाज-विशेष की ही देन होता है और उसी समाज-विशेष की भाषा, संस्कृति, परम्पराओं और इतिहास के दायरे में उसकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति पाती है, इसलिए जिस साहित्य का अपने समाज से जितना आदान-प्रदान होगा, वह साहित्य उतना ही जीवन्त, संवेदनशील एवं प्रभावशाली होगा।
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