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सुमित्रानन्दन पन्त सौन्दर्य के अप्रतिम कवि हैं अथवा पंत प्रकृति के सुकुमार कवि है।
प्रकृति आदिकाल से ही पुरुष की सहायिका रही है। जहाँ पुरुष है वहाँ प्रकृति है, जहाँ प्रकृति है, वहाँ पुरुष है। प्रकृति और पुरुष का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्रकृति की ममता भरी गोद में बैठकर पुरुष माँ जैसा स्नेह प्राप्त करता है यहाँ तक कि कुछ क्षणों के लिए वह सब कुछ भूल जाता है। प्रकृति ममता भरी गोद में बैठकर वह जिस शान्ति का अनुभव करता है वह शांति अन्यत्र दुर्लभ है। यद्यपि आज मानव नगरों की ओर अधिक झुका हुआ है। शहर का कृत्रिम वातावरण उसे बहुत पसंद है लेकिन फिर भी यदा-कदा वह इस नकली वातावरण को छोड़कर प्रकृति से मिलने के लिए विवश हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृति के प्रति मानव को विशेष अनुराग है और इसीलिए मानव द्वारा रचित काव्य में प्रकृति का वर्णन स्वाभाविक है, क्योंकि प्रकृति के बिना वह एक कदम भी चल नहीं सकता है।
पंत जी को प्रकृति-चित्रण की प्रेरणा उनकी जन्मभूमि कौसानी से प्राप्त हुई है। कौसानी प्रकृति सुरम्य स्थली है। इसीलिए प्रकृति उनके रोम-रोम में बसी हुई है। अंग्रेजी कवि वर्ड्सवर्थ ने की जन्मभूमि का महत्त्व बताते हुए कहा है कि- “मेरी आत्मा को अंकुरित होने का बहुत अनुकूल समय मिला। मैं प्रकृति के सुन्दर और उग्ररूप से प्रतिपालित होता हुआ बढ़ा मैं अपने स्थान में ही सौभाग्यमान था।” इसी प्रकार अंग्रेजी कवि वायरन ने लिखा है कि- “मैं मनुष्य से कम प्यार नहीं करता। पर प्रकृति को मनुष्य से भी अधिक प्यार करता हूँ।” “पन्त जी ने इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए आधुनिक कवि नामक पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिनका श्रेय मेरी जन्म भूमि कूर्मान्चल प्रदेश को है।” पंत का प्रकृति से अभिन्न सम्बन्ध है उन्होंने लिखा है कि “प्रकृति निरीक्षण और प्रकृति प्रेम मेरे स्वभाव के अभिन्न अंग ही बन गये हैं, जिनसे मुझे जीवन के अनेक संकटपूर्ण क्षणों में अमोघ सान्त्वना मिली है।” प्रकृति के सम्बन्ध में पन्त जी का निजी दृष्टिकोण है। ‘आधुनिक कवि’ में उन्होंने लिखा है कि “साधारणतः प्रकृति के सुन्दर रूप ने मुझे अधिक लुभाया है पर उनका उग्र रूप भी मैंने ‘परिवर्तन’ में चित्रित किया है।” प्रकृति का उग्र रूप उन्हें कम प्रिय है। प्रकृति का सुन्दर रूप उनके काव्य का प्राण है। तभी तो द्रुमों की मृदुल छाया से वह स्वयं को एक पल भी पृथक रखने में असमर्थ हैं। यथा-
“छोड़ दुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया ।
बाले, तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन । “
यही नहीं प्रकृति उनके जीवन की सहचरी है। उन्होंने लिखा है कि “प्रकृति के साहचर्य ने जहाँ एक ओर मुझे सौन्दर्य स्वप्न और कल्पनाजीवी बनाया वहीं दूसरी ओर जनभीरु भी बना दिया।” इस प्रकार पन्त जी ने वहाँ स्वयं स्वीकार किया है कि प्रकृति के अनेक रूपों से वह प्रभावित हुए हैं। उन्होंने प्रकृति के भीतर प्राणशक्ति प्राप्त की है और उसी में अपने को विलीन कर दिया है। उन्होंने लिखा है “मेरा विचार है कि वीणा से ग्राम्य “तक मेरी सभी रचनाओं में प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रेम किसी न किसी रूप में विद्यमान है।” उनकी कल्पना प्रकृति में के सुरम्य प्रांगण में मानो बिहार करती चलती है। यथा
“उस फैली हरियाली में, / कौन अकेली खेल रही माँ
वह अपनी वय बाली में।”
पन्त जी प्रारम्भ से प्रकृति के चरणों में ही रहते हैं। प्रकृति में उन्हें सदैव रहस्यमयता के दर्शन हुए । वह सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार थे लेकिन प्रकृति का साथ किसी भी तरीके से नहीं छोड़ सकते थे। प्रकृति का साथ छोड़ना उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न था वे अपने काव्य में जिधर मुड़े हैं, प्रकृति को अपने साथ लिए हैं पन्त जी ने प्रकृति का सम्बन्ध मानव जीवन से जोड़ा है और प्रकृति के भीषण स्वरूप में भी कोमलता के दर्शन किये हैं। जहाँ पर प्रकृति का रूप अत्यन्त भयंकर है, वहाँ पर भी उन्होंने मृदुलता प्राप्त की है। नारी सुलभ कोमल एवं नम्र स्वभाव के कारण उन्हें कठोरता तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती। हिमाद्रि के कठोर तथा ठोस पत्थर के शिलाओं के वर्णन में भी उन्होंने कोमलता का ही झिलमिलाता हुआ रूप देखा है। सूर्य की कड़ी धूप में भी उन्हें चन्द्रमा की शीतलता प्राप्त होती है पन्त जी दार्शनिक गुत्थियों में उलझकर भी प्रकृति का पल्ला पकड़े हुए हैं। अपनी ‘मौन निमन्त्रण’ शीर्षक कविता में उन्होंने लिखा है कि-
“स्तब्ध ज्योत्स्ना में सब संसार, चकित रहता शिशु सा नादान,
विश्व के पलकों पर सुकुमार विचरते हैं सब स्वप्न अंजान,
न जाने नक्षत्रों से कौन, निमन्त्रण देता मुझको मौन।’
पन्त जी ने नश्वरता में भी कोमलता के दर्शन किए हैं। उनकी रचनाओं में कठोरता का चित्रण नहीं के बराबर है। हाँ, उनकी परिवर्तन कविता में कहीं-कहीं प्रकृति के भीषण, उग्र एवं कठोर रूप का चित्रण हुआ, लेकिन वहाँ कवि की दृष्टि अत्यन्त संकुचित रही है।
पन्त जी के प्रकृति-चित्रण के विविध रूप
पन्त जी ने प्रकृति-चित्रण विविध रूपों में किया है, जो इस प्रकार हैं-
(1) आलम्बन के रूप में प्रकृति-चित्रण- पन्त जी स्वभावतः प्रकृति के कवि हैं। प्रकृति के सुन्दर रूप की अभिव्यक्ति उनके काव्य में अधिक हुई है। प्रकृति का शुद्ध नैसर्गिक रूप में चित्रण करना आलम्बन के अन्तर्गत आता है। पन्त जी को इसमें अधिक सफलता नहीं मिली है। पावस आदि में आलम्बन अपनाया अवश्य है, लेकिन शुद्ध रूप से नहीं मिलता है।
“पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश
पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश
मेखलाकार पर्वत अपार । “
(2) उद्दीपन के रूप में प्रकृति-चित्रण- उद्दीपन के रूप में प्रकृति-चित्रण पंत की अनेक रचनाओं में प्राप्त होता है। यह उद्दीपन की परम्परा रीतिकाल से ही चली आ रही है। उद्दीपन के चित्रण में कवि अपने अनुसार विश्व को देखता है। उसकी प्रसन्नता में समस्त संसार दिखाई देता है तथा दुःख में सारा संसार रोता हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसी स्थिति में वसन्त की मादकता और वर्षा की शीतल फुहार उसे उद्दीप्त बना देती है। कोकिल उसकी वेदना को और भी तीव्रता प्रदान करती है। देखिए कितना मनोरम चित्रण है
“काली कोकिल सुलगा उर में, स्वरमयी वेदना का अंगार।
आया वसंत घोषित दिगन्त, करती भर पावक की पुकार ।।
(3) अलंकारों रूप में प्रकृति-चित्रण- अलंकार के रूप में पन्त जी ने प्रकृति का सुन्दर वर्णन किया है। सौन्दर्य के प्रति उन्हें विशेष अनुराग है। अन्योक्ति के माध्यम से किया गया नारी के नेत्रों का वर्णन कितना सजीव एवं आकर्षक है-
‘कमल पर जो चारु दो खंजन प्रथम,/पंख फड़फड़ाना नहीं थे जानते।
चपल चोखी चोटकर अब पंख की,/ वे विकल करने लगे हैं भ्रमर को।”
(4) दार्शनिक रूप में प्रकृति-चित्रण- पन्त जी ने प्रकृति के रहस्यात्मक रूप को भी देखा है। प्रकृति के अन्दर उन्होंने किसी अज्ञात सत्ता के दर्शन किये हैं। ‘नौका विहार’ में कवि का दार्शनिक रूप अत्यन्त उभरकर सामने आया है। गंगा का रमणीय चित्र उपस्थित करता हुआ कवि दार्शनिक हो जाता है। संसार में जीवन-मरण का चक्र भी गंगा की धारा के समान है-
इस धारा सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम ।
शाश्वत है गति शाश्वत संगम ।
X X X
हे जग जीवन के कर्णधार चिर जन्म मरण के आर पार।
शाश्वत जीवन नौका विहार।
(5) मानवीकरण के रूप में प्रकृति-चित्रण- मानवीकरण के रूप में प्रकृति का चित्रण करने में कवि ने अन्य छायावादी कवियों की तरह ही चित्रण किया है। इस प्रकार के चित्रण में उन्हें अद्वितीय सफलता मिली है। प्रकृति में मानवीय भावों का दर्शन करना ही मानवीकरण कहलाता है। उदाहरणार्थ-
‘कौन-कौन तुम परहित वसना, म्लानमना भू पतिता सी।
धूल धूसरित मुक्त कुन्तला, सबके चरणों की दासी ।
6. उपदेशात्मक रूप में प्रकृति-चित्रण- पन्त की परिवर्तन कविता में इस रूप के दर्शन होते हैं। प्रथम तो कवि सौन्दर्य का उपासक है। प्रकृति में उसे सौन्दर्य का दर्शन मिलता है लेकिन वह सौन्दर्य क्षणिक है, अस्थायी है और परिवर्तनशील है। यहीं पर कवि प्रकृति से उपदेश ग्रहण करता है। “क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति सदैव रूपं रमणीताया” की कहावत चरितार्थ करते हैं। परिवर्तन में जीवन की निस्सारता तथा क्षणभंगुरता को देखकर कवि का मन क्षुब्ध हो उठता है। देखिए-
“आर्त पावस नद के उद्गार, काल के बनते चिह्न कराल
प्रातः का सोने का संसार, जला देती संध्या की ज्वाल ।। “
इस प्रकार हम देखते हैं कि पंत की रचनाओं में प्रकृति-चित्रण किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान है क्योंकि प्रकृति से उनका तादात्म्य है। पंत पर यूरोपीय प्रभाव अधिक रहा, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी कवि वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स तथा टेनीसन के अनुसार ही कल्पनाओं का चित्रण किया है। प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से पन्त जी सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, क्योंकि उन्होंने प्रकृति का सुकुमार कल्पनामय एवं सचेतन रूप ही ग्रहण किया है ।
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