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हिन्दी पत्रकारिता के उद्भव और विकास
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय जनजागरण की कहानी है। यह जानजागरण – राष्ट्रीयता के विकास, राष्ट्रीय चेतना के विकास, समाज-सुधार और अंधविश्वास की जकड़न से उभरने के एहसास की कहानी है। देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दुरवस्था से मुक्ति की आवश्यकता को महसूस . का जो मानस बनता गया उसके साथ देश में पत्रकारिता का उद्भव करने. और विकास होता गया। शिक्षा के प्रसार और विदेशों की तरक्की की खबरों से भारतवासी भी महसूस करने लगे थे कि व जड़ता, अंधविश्वास और अपने विकास के प्रति बेखबरी से ग्रस्त हैं। अँगरेजी हुकूमत के शोषण का एहसास भी उन्हें होने लगा था। हिन्दी पत्रकारिता ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही सामाजिक चेतना और समाज को गति दी, शक्ति दी, तीक्ष्णता दी, उसके आधार को व्यापक बनाया तथा तत्कालीन-संबंधी योजनाओं को सैद्धांतिक रूप से प्रस्तुत करने के साथ ही जनमानस को अनेक खबरों के प्रति सचेत किया। हिन्दी पत्रकारिता का मुख्य स्वर शुरू से ही राष्ट्रीय एवं सार्वदेशिक रहा है। हिन्दी पत्रकारिता आरम्भिक दिनों में भी क्षेत्रीय या संकुचित दायरे में नहीं सिमटी।
हिन्दी पत्रकारिता के प्रवर्तक जातीय चेतना, युग-बोध और अपने महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व के प्रति पूर्णतः सचेत थे। शायद इसीलिए उन्हें सरकार की दमन-नीति का शिकार होना पड़ा, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी। हिन्दी पत्रकारिता को कई भौतिक एवं वैचारिक परिस्थितियां से गुजरना पड़ा। शुरुआत में हिन्दी पत्रकारिता आजादी की प्राप्ति, समाज-सुधार, उत्थान एवं जागृति के लिए एक साधन थी। आज यह सूचना, प्रचार, सामाजिक एवं शासकीय व्यवस्था की रक्षक या उसके बदलाव का हथियार बन गयी है। पत्रकारिता को आवश्यकता ने जन्म दिया और परिस्थितियों एवं मनःस्थितियों ने इसे प्रभावित किया। आज अखबार एवं दूसरे संचार माध्यम देश की नीति, व्यवहार, आचरण एवं मानस को प्रभावित करते हैं। अखबार, पत्र-पत्रिकाएं, रेडियो, टी.वी. एवं फिल्में आज जनजीवन पर व्यापक असर डालते हैं।
भारत में पहला छापाखाना कलकत्ता में 1755 में आया और यह बड़ी दिलचस्प बात है कि ईस्ट इंडिया कंपनी एवं उसके अँगरेज कर्मचारियों के बीच एक संघर्ष छिड़ गया। तब अँगरेज कम्पनी की आलोचना और अँगरेज कर्मचारियों ने की और 1780 में हिकी गजट आया जो अँगरेजी में था। इसे एक अंगरेज जेम्स आगस्टस हिकी ने निकाला था। इसका नाम था ‘कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर ।’ 1818 में बॅगला अखबार ‘दिग्दर्शन’ निकला और फिर कई अखबार निकले। तब एक अँगरेजी हुकूमत देश में अपना शिकंजा मजबूत कर चुकी थी।
दिग्दर्शन : उदन्त मार्तण्ड
एक मान्यता है कि ‘दिग्दर्शन’ हिन्दी में भी निकला था, इसलिए वह पहला हिन्दी पत्र था। लेकिन इसके प्रमाण नहीं मिलने से 30 मई, 1826 को कलकत्ता से निकले ‘उदन्त मार्तण्ड’ को पहला हिन्दी समाचार पत्र माना जाता है। हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में यह स्मरणीय दिवस है। पं. युगलकिशोर शुक्ल इसके संपादक थे।
‘उदन्त मार्त्तण्ड’ एक वर्ष सात माह चलकर बंद हो गया। हिन्दी पत्रकारिता के पहले अखबार ने जो बीज पत्रकारिता के बोये वे क्रमशः पल्लवित होते गये। इसमें देशी-विदेशी समाचार, विज्ञप्तियाँ, इश्तहार, सरकारी अफ़सरों की नियुक्तियाँ आदि सूचनाएँ छपती थीं। शुरू के वर्षों में कलकत्ता ही हिन्दी पत्रकारिता का केन्द्र रहा।
इसके बाद बनारस, आगरा, लखनऊ, बंबई, प्रयाग से अखबार निकले। लेकिन 1818 तक हिन्दी पत्रकारिता पिछड़ी ही रही। अधिकांश हिन्दी अखबार शुरू में कलकत्ता और बनारस से निकले। इस बीच अँगरेजी, उर्दू, फारसी तथा दूसरी भाषाओं के अखबारों की संख्या भी तेजी से बढ़ी।
1848 में मध्य प्रदेश के इंदौर से ‘मालवा अखबार’ निकला, जिसने अँगरेजों के खिलाफ चेतना बहुत योगदान दिया। लेकिन जब महाराजा होल्कर को पता चला कि इस अखबार ने अँगरेजों जगाने में के खिलाफ़ चेतना जगाने का जो अभियान छेड़ा है, उससे अँगरेजी हुकूमत नाराज है, तो इसे बंद कर दिया गया।
हिन्दी पत्रकारिता की दृष्टि से 1854 महत्त्वपूर्ण वर्ष है, क्योंकि इस वर्ष हिन्दी का प्रथम दैनिक ‘समाचार-सुधार-वर्षण’ कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। यह हिन्दी और बँगला दोनों में एक साथ छपता था। यह 1868 तक छपा। समाचारों और अग्रलेखों की दृष्टि से यह स्तरीय अखबार था। इसमें देशी विदेशी समाचार भी होते थे। 1857 के स्वातंत्र्य समर के दिनों में यह अखबार अँगरेजी हुकूमत का कोप का शिकार बना, क्योंकि इसने तत्कालीन मुगल सम्राट् बहादुरशाह जफ़र का वह फ़रमान छाप जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह का आह्वान किया गया था। इसके कारण उसके संपादक श्यामसुंदर सेन पर कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा भी चला, लेकिन उन्हें बरी कर दिया गया।
संघर्ष के दौर में नये अखबारों का उदय
प्रारंभिक दौर के जो समाचार पत्र निकले उनके नामों से उनके उद्देश्य का संकेत मिलता है। जैसे-समाचार दर्पण दिग्दर्शन, संवाद कौमुदी, समाचार – चंद्रिका, बंगदूत, संवाद-प्रभाकर, ज्ञान-दीपक, ज्ञानान्वेषण, संवादपूर्ण चंद्रोदय, संवाद-भास्कर, ज्ञानदीप, ज्ञानप्रकाश, बुद्धिप्रकाश, मालवा अखबार, हिन्दी प्रदीप, ग्वालियर गजट, बनारस अखबार, सरस्वती, नवप्रभात, उचित वक्ता, शुभचिंतक, बुंदेलखंड अखबार, भारतमित्र, भारतमाता, भारत जीवन, देवनागरी प्रचारक, हिंदुस्थान ।
साहित्यिक पत्रकारिता
1868 को हिंदी पत्रकिरता में तीसरा महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है, जब काशी से भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ‘कविवचन-सुधा’ का प्रकाशन शुरू किया, जो वैसे तो कविता की पत्रिका थी, लेकिन इसमें राजनीतिक एवं सामाजिक सुधार तथा साहित्य की वृद्धि, तीनों का निर्वाह होता रहा। पहले यह मासिक था, लेकिन 1875 में यह साप्ताहिक हो गया। 1885 तक इसका प्रकाशन जारी रहा। 1885 ही कांग्रेस के जन्म का वर्ष है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र का वर्तमान हिंदी को संवारने में महान् योगदान है। भाषा का जो स्वरूप उन्होंने निर्धारित किया वह 75 साल तक चलता रहा। भाषा का अभी भी वही मूल आधार है। उन्होंने भाषा को सँवारा और मानकीकरण किया। उन्होंने कवियों, लेखकों और पत्रकारों को एकजुट किया। कविवचन-सुधा का सभी ओर व्यापक प्रभाव हुआ।
विस्तार युग- 19वीं शताब्दी का अंत और बीसवीं शताब्दी का प्रारम्भ हिंदी पत्रकारिता के विस्तार का काल है। यह देश के स्वाधीनता आंदोलन की जड़ें जमने और जनमानस में आजादी के प्रति ललक एवं अंगरेजी हुकूमत के अन्याय के प्रति रोष का काल है, जो अखबारों के स्वर से झलकता है। आजादी के उस संघर्ष काल में राजनीतिक नेतृत्व, पत्रकारिता, साहित्य, समाज-सुधार, सभी क्षेत्र एकजुट हो गये थे। इन सभी का पहला उद्देश्य देश में मानवीय मूल्यों की स्थापना और देशवासियों को इंसान की तरह जीने का हक दिलाना था। तब की कविता में भी यही स्वर प्रस्फुटित होते हैं। राजा राममोहन राय से लेकर लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविन्द, लाला लाजपत राय, महात्मा गाँधी, सुब्रह्मण्य भारती, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, सभी के विचारों को जनता तक पहुँचाने में अखबारों का माध्यम महत्वपूर्ण था। हिंदी पत्रकारिता के पितृ-पुरुष बाबूराव विष्णु पराड़कर ने कहा था ‘मैं कलकत्ता पत्रकार होने नहीं, बल्कि देश की शीघ्र स्वतंत्र देखने और क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ कार्य करने के उद्देश्य से आया था।’ संपाद का चार्य लक्ष्मण नारायण गर्दे ने कहा था, ‘पत्र संपादन के क्षेत्र में प्रवेश करने का मेरे लिए प्रत्यक्ष कारण स्वतंत्रता आंदोलन रहा।’ महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, बालकृष्ण शर्मा नवीन जेसे क्रांतिकारी साहित्यकारों ने पत्रकारिता को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना।
विद्यार्थी और प्रताप
महान् पत्रकार और कानपुर से प्रकाशित होने वाले ‘प्रताप’ के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ने 9नवंबर, 1913 के अपने पहले अंक में अपनी नीति स्पष्ट करते हुए लिखा था, ‘आज अपने हृदय में नयी-नयी आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूर्ण विश्वास रखकर ‘प्रताप’ कर्मक्षेत्र में आता है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमास परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं।’
‘आज’ का उदय
हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित नगर वाराणसी से प्रकाशित ‘दैनिक आज’ ने 5 सितम्बर, 1920 के अंक में अपने उद्देश्यों की चर्चा करते हुए लिखा था-
“हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश का गौरव बढ़ायें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें। उनको ऐसा बनायें कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो, संकोच न हो, यह अभियान स्वतंत्रता देवी की उपासना करने से मिलता है।’ ‘आज’ का प्रकाशन हिन्दी पत्रकारिता में उल्लेखनीय घटना है।
17 जनवरी, 1920 के ‘कर्मवीर’ के पहले अंक में संपादक ‘राष्ट्रीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी कहते हैं, ‘हम स्वतंत्रता के हामी हैं, मुक्ति के उपासक हैं ………। दासता से हमारा मतभेद रहेगा। फिर चाहे वह शरीर की हो या मन की, व्यक्तियों की हो या परिस्थितियों की।’
1857 के स्वातंत्र्य समर तक हिन्दी पत्रों की संख्या कम रही, लेकिन इस आंदोलन के बाद देश में नयी चेतना फूटी, जिसने हिन्दी पत्रकारिता के विकास का मार्ग प्रशस्त किया और इसका शुभारंभ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से हुआ, जिनके लेखन में स्वदेशी भावना की वह उमंग दिखायी पड़ता हैं। जिसे संगठित कर हमारे नेताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन को प्रचंड सात्विक शक्ति के रूप में प्रभावशाली बना दिया। उस उमंग ने भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी नयी दृष्टि, नयी वाणी, नयी अभिव्यंजना, नयी प्रेरणा, नया ओज और नयी शक्ति दी।
भारत-मित्र
जहाँ पं. बालकृष्ण भट्ट का मासिक पत्र पहले साहित्यिक और फिर राष्ट्रीयता की भावना से पूर्ण था, वहीं 1885 के बाद इसका स्वर क्रांतिकारी हो गया। बंग-भंग के बाद इसका स्वर उग्र हो गया। ‘भारत-मित्र’ ने देश के बाहर भेजे जाने वाले अनाज को चर्चा करके ब्रिटिश सरकार के सामने एक संकट पैदा कर दिया। स्थानीय अत्याचारों के खिलाफ़ भी हिन्दी पत्रकारिता ने आवाज़ उठाना शुरू कर दिया। समाचार पत्रों के इस स्वर को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश सरकार भी सक्रिय होती गयी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से हिन्दी पत्रकारिता को नया स्वर मिला। 1905 में बंगाल के विभाजन से उसका स्वर ज्यादा उम्र हुआ। कर्मयोगी, स्वराज्य, अभ्युदय, प्रताप, हिन्दी केसरी तथा शक्ति जैसी समाचार पत्रों का प्रकाशन जनमानस के आक्रोश और उग्र स्वर की झलक देते हैं। इन पत्रों से जहाँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विचार लोगों तक पहुँचाने का सक्षम संचार माध्यम तैयार हुआ, वहीं अंग्रेजों के खिलाफ नफ़रत का वातावरण तैयार करने में भी मदद मिली।
हिन्दी पत्रकारिता अनेक किस्म वो उतार-चढ़ाव के बाद भी आगे बढ़ी है। वह समय की आवश्यकता और कसौटी पर खरी उतरती रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- ‘अपने विश्वास के प्रति निष्ठावान् रहने के लिए मैं क्रोध में आकर या विद्वेष की भावना से कभी नहीं लिखूँगा। पाठक को इस बात का पता नहीं होता कि लिखने के विषयों और मेरी शब्दावली के चयन में मुझे कितने संयम से काम लेना पड़ता है। ‘वास्तव में, पत्रकारिता आधुनिकता की विशिष्ट उपलब्धि है।
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