B.Ed./M.Ed.

अधिगम के क्षेत्र में पिआजे (Piaget) का योगदान

अधिगम के क्षेत्र में पिआजे (Piaget) का योगदान
अधिगम के क्षेत्र में पिआजे (Piaget) का योगदान

अधिगम के क्षेत्र में पिआजे (Piaget) का योगदान

पिआजे के अनुसार- “बुद्धि, नयी परिस्थितियों के प्रति मानसिक अनुकूलन की योग्यता है।” पिआजे के अनुसार बालक को यदि विकासात्मक दृष्टि से देखा जाए तो वह चार स्थितियों से गुजरता है। ये चारों ही स्थितियाँ स्वयं में बड़ी जटिल हैं और इनमें से प्रत्येक स्थिति के अन्तर्गत भी कई अन्य स्थितियाँ आती हैं। पिआजे के विचार से इन जटिल समस्याओं को विकास की इन स्थितियों में औपचारिक रूप से सुलझाना उस समय तक असम्भव-सा ही है, जब तक कि वह व्यक्ति विकास की पूर्व-स्थितियों से न गुजरा हो। प्रौढ़ावस्था में बुद्धि का जो स्वरूप दिखायी देता है, वह इन्हीं विभिन्न परिस्थितियों से गुजरा होता है।

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ (Stages of Cognitive Devlopment)

पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएँ बतायी हैं। प्रत्येक अवस्था में बालक को संज्ञानात्मक विकास की कुछ विशिष्टताएँ होती हैं। इन अवस्थाओं में ज्ञान विचार एवं व्यवहारों का एक संगठित समूह या शृंखला होती है जिसे पियाजे ने स्कीमा कहा है। यह स्कीमा अनुभवों के परिणामस्वरूप बनती है। जैसे-जैसे बालकों का बाह्य संसार से सम्पर्क होता है उनमें संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और निरन्तर चलती रहती है। बालक निम्नलिखित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं से होकर गुजरता है-

1. संवेदीय पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage)

2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage)

3. मूर्त स्थूल संक्रियात्मक अवस्था (Concrete of Operational Stage)

4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage) |

1. संवेदीय पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage )

मानसिक विकास का यह चरण जन्म से लेकर दो वर्ष तक की अवधि में पूरा होता है। इस अवस्था में बालकों की मानसिक क्रियाएँ उनकी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में ही सम्पन्न होती हैं। उन्हें भूख लगी है, इस बात को वे रोकर व्यक्त करते हैं। किसी भी वस्तु को जो उन्हें चाहिए उसे दिखाकर अपनी बात करते हैं। इस प्रकार से वह इस अवस्था में बालक भाषा में अभाव में अपने चारों ओर वातावरण को अपनी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं और अनुभवों के माध्यम से ही जानते हैं। उन्हें विचारों के रूप में जो कुछ कहना और समझना होता है। उसकी गामक क्रियाओं के रूप में ही अभिव्यक्ति होती है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व बच्चे के सामने तभी तक होता है जब तक वह वस्तु उसकी आँखों के सामने रहें।

2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage )

इस अवस्था का समय काल 2 वर्ष से लेकर 7 वर्ष के मध्य होता है। इस दौरान बालकों में भाषा का विकास ठीक प्रकार से प्रारम्भ हो जाता है। अभिव्यक्ति का माध्यम अब भाषा बनने लग जाती है, गामक क्रियाएँ नहीं। वस्तुओं के बारे में सोचने-विचारने के लिए अब भाषा तथा अन्य तरीकों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है।

3. मूर्त स्थूल संक्रियात्मक अवस्था (Concrete of Operational Stage )

इस अवस्था का समय काल 7 वर्ष से 11 वर्ष के बीच होता है। बालकों में होने वाले इस अवस्था के मानसिक विकास में निम्न मुख्य बातें देखने को मिलती हैं-

उनमें वस्तुओं को पहचानने, उनका विभेदीकरण करने, वर्गीकरण करने तथा उपयुक्त नाम या वर्गीकरण द्वारा समझने और व्यक्त करने की क्षमता विकसित हो जाती है। उनमें विभिन्न प्रकार के सम्प्रत्ययों का निर्माण हो जाता है।

वे वस्तुओं के बीच समानता, सम्बन्ध, असमानता, दूरी और विसंगता को समझने लगते हैं। शुरू में इस प्रकार की उनकी समझ केवल मूर्त या स्थूल रूप तक ही सीमित होती हैं, जैसे नौ सेब, तीन सेबों में कितने अधिक होते हैं। कुत्ते या बिल्ली में अगर वे उनके सामने हों तो उनमें निहित अन्तरों को वे स्पष्ट कर सकते हैं आदि-आदि।

4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage )

पियाजे के अनुसार यह अवस्था 12 वर्ष से आरम्भ होकर जीवन के अंत तक चलती रहती है। इस अवस्था में तार्किक चिन्तन का विकास होता है, जैसे-जैसे आयु और अनुभव बढ़ता जाता है वैसे-वैसे तर्कों में परिपक्वता आती है और संज्ञानात्मक क्षमता का विकास होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अमूर्त वस्तुओं, तथ्यों या समस्याओं का चिन्तन करता है उनका चिन्तन तर्कपूर्ण, व्यवस्थित तथा संगठित होता है। किसी समस्या के प्रति वह व्यापक दृष्टिकोण रखता है उसके निराकरण की परिकल्पना बनाता है। तदनुरूप कार्य योजना का संगठन करता है।

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shubham yadav

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