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अनुदेशन के सिद्धान्त एवं प्रविधियां या आव्यूह

अनुदेशन के सिद्धान्त
अनुदेशन के सिद्धान्त

अनुदेशन के सिद्धान्त (Principles of Instruction)

शिक्षा की मुख्य धारा से सम्बन्धित बालकों को यद्यपि विशिष्ट अधिगम सम्बन्धी आवश्यकताएँ होती हैं, फिर भी वे सामान्य कक्षा के शिक्षण के बहुत से कार्यों को करने की आवश्यक निपुणता रखते हैं। विशिष्ट विद्यार्थियों को भी विषय क्षेत्र में निपुणता एवं शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न विषयों में कार्य करने की दक्षता के आधार पर शिक्षा की मुख्य धारा से सम्बद्ध किया जा सकता है।

अब ऐसे बालकों को क्या पढ़ाना है इसमें परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है यदि सामान्य शिक्षा का पाठ्यक्रम उन बालकों के लिए उपयुक्त है फिर भी अनुदेशनात्मक विधियों में शीघ्र परिवर्तन करना आवश्यक है अर्थात् किस प्रकार सूचनाओं एवं निपुणता और दक्षताओं की बालकों को शिक्षा दी जाये। विशिष्ट बालकों तथा उनके अन्य साथियों को क्रमबद्ध शिक्षा की आवश्यकता होती है। जिसके अन्तर्गत अनुदेशन लक्ष्य संस्था तथा संस्था की विधियाँ, आदि बतानी पड़ती हैं। ऐसा करते समय बालकों की प्रगति पर विशेष आँकड़े एकत्र करने के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार से बनाये गये अनुदेशनों का संगठन ध्यानपूर्वक किया जाता है इनका प्रारूप पहले से निश्चित किये गये छात्रों की कार्य प्रणाली, कार्य क्षमता, निपुणता, दक्षता तथा वातावरण के अनुसार किया जाता है। यह वैयक्तिक अनुदेशन प्रत्येक विद्यार्थी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाया जाता है परन्तु इसका मुख्य रूप से यह अर्थ नहीं है कि एक अध्यापक एक विद्यार्थी को अनुदेशन दे अथवा अनुदेशित करे।  अनुदेशन में निम्नलिखित पाँच बिन्दु सम्मिलित होते हैं-

(i) पाठ्यक्रम चयन करना (Curricular choice )

(ii) किसी के समक्ष अपनी बात/प्रस्तुतीकरण (Presentation)

(iii) अभ्यास करना (Practice)

(iv) दक्षता का विकास करना, तथा

(v) क्रियान्वयन करना (Application)

छात्रों के मुख्य अंश जिनका प्रभाव उनके अधिगम पर विशेष रूप से पड़ता है पर्याप्त रूप से सार्थक होते हैं तथा उनका अपना महत्त्वपूर्ण अर्थ होता है। इनमें कुछ इस प्रकार हैं- शिक्षण कला से सम्बन्धित उद्देश्यों को प्राप्त करना, अध्यापक तथा छात्र के मध्य सम्प्रेषण, छात्र के अधिगम की विधि, छात्र द्वारा अपने विचारों को दूसरों के समक्ष रखने की विधि, उपयुक्त अभ्यास विभिन्न क्षेत्रों के कार्यकलापों का अभ्यास, अनुदेशनात्मक परिस्थितियाँ, आदि हैं।

इस प्रकार अनुदेशनों को प्रभावशाली बनाने के लिए विभिन्न भागों को देखना आवश्यक है तथा विशेष रूप से निम्नलिखित बिन्दुओं को देखना आवश्यक है-

(i) उपयुक्त अधिगम कार्यों को चुनना

(ii) अधिगम कार्यों को छोटे-छोटे पढ़ाते योग्य खण्डों (पदों) में बाँटना।

(iii) अनुदेशनात्मक विधियों का क्रमबद्ध प्रयोगा अनुदेशनों को प्रभावी बनाने के साधन अभ्यास द्वार, स्वयं कार्य करके दूसरों को दिखाना, दूसरों के मार्गदर्शन में अभ्यास करता और आत्म निर्भरता के आधार पर अभ्यास करना।

(iv) गति तथा किसी कार्य की यथार्थता समझना, अभिगम कार्य चुनने तथा वर्णन करने में अध्यापक को निश्चित करना चाहिए कि अनुदेशनात्मक लक्ष्य कार्य शीघ्रता से करना है। अथवा कार्य की यथार्थता (किसी सीमा तक कार्य त्रुटि रहित है) इसका प्रभाव तथा प्रस्तुतीकरण पर पड़ता है।

(v) बालक को कार्य के प्रति स्पष्ट निर्देशन दिये जायें अधिगम कार्यों से सम्बन्धित निर्देशन स्पष्ट रूप से दिये जायें जो बालक के स्पष्ट रूप से समझने योग्य हैं।

(vi) बालक को कार्य में व्यस्त रहने का अधिकतम समय निश्चित करना। कार्य में व्यस्त रहने के अधिकतम समय से घण्टे तथा मिनट से है जिसमें बालक ध्यानपूर्वक कार्य करने में तथा अनुदेशन में भागीदार रहता है

(vii) सफलतम रूप से कार्य करने पर बालक को उसके परिणाम से अवगत कराया। जाये अर्थात् बालक को प्रोत्साहन दिया जाये। सफल रूप से कार्य करने के पश्चात् अध्यापक का विशिष्ट रूप से ध्यान बालक की ओर जाना, बालक की प्रशंसा करना पारितोषिक, आदि बालक को दिया जाये।

(viii) सामान्यीकरण और रख-रखाव तथा व्यवस्था का निरीक्षण करना। बालक के द्वारा किया गया कार्य का नियमित रूप से निरीक्षण होना चाहिए। आवश्यकतानुसार बालक को कार्य करने का अभ्यास भी कराते रहना चाहिए। अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को कार्य करके दिखाये जिससे बालकों को स्पष्ट रूप दर्शाया जा सके कि विभिन्न परिस्थितियों में निपुणता तथा सूचनाओं का किस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है।

बाधित बालकों के लिए सूचनाओं के अनुकूलन का आव्यूह (Strategies For Adapting Instruction For Disabled)

यदि बालकों को निपुणता तथा सूचनाएँ समझने में कठिनाई होती हैं तो अनुदेशन अनुकूलन की निम्नलिखित प्रविधियाँ हैं-

1. कार्य तथा सामग्री का परिवर्तन (Modifying Materials and Activities)-

(i) कार्य निर्देशन स्पष्ट होना चाहिए।

(ii) अधिगम कार्यों में सहायता हेतु संकेत शब्दों को तथा ऐसी आकर्षक विधियों को सम्बद्ध किया जाये जो बालक को कार्य समझाने में स्पष्टता प्रदान करें। संकेत मौखिक, लिखित अथवा वस्तु-विशेष को देखकर भी हो सकते हैं जैसे प्रतीक बनाना, अथवा आकृति या शब्दों के नीचे रेखा खींचना जिसमें बालक का ध्यान आकर्षित हो।

(iii) यदि बालक किसी विशेष त्रुटि को बार-बार करे तो त्रुटि को सुधार कर बालक का ध्यान विशिष्ट रूप से आकर्षित किया जाये जिससे बालक में सुधार हो सके।

2. शिक्षण प्रक्रियाओं में सुधार व परिवर्तन (Changing Teaching Proce- dure)

(i) निपुणता तथा सूचनाओं का अतिरिक्त प्रस्तुतीकरण दो।

(ii) अतिरिक्त मार्गदर्शन का अभ्यास।

(iii) बालकों के द्वारा किये गये सफल कार्यों के परिणामों को आकर्षण का केन्द्र बनायें इसमें अध्यापक के द्वारा दिये गये परिणाम तथा पारितोषिक का ज्ञान भी सम्मिलित है।

(iv) अनुदेशन में हुई प्रगति को मन्द करो, अनुदेशन तथा अधिगम कार्यों के लिए निश्चित समय में परिवर्तन मत करो, समय पहले के समान ही रखो लेकिन सामग्री तथा अभ्यास को कम कर दो।

3. कार्य की आश्यकताओं में परिवर्तन करना (Altering Task Require- ments) – विद्यार्थियों की सफलता में वृद्धि करने हेतु अधिगम कार्यों में परिवर्तन किया जा सकता है-

(i) सफल रूप से कार्य करने के लिए मानदण्ड में परिवर्तन करो, सफलतापूर्वक कार्य करने के मानदण्ड में मुख्य तीन बातें सम्मिलित हैं-कार्य की मात्रा, गति तथा शुद्धता (त्रुटि रहित)।

(ii) कार्य के गुणों में परिवर्तन करो। कार्य-गुणों में कार्य करने की स्थितियाँ तथा व्यवहार की प्रकृति भी सम्मिलित है।

(iii) कार्य को छोटे-छोटे कार्यों में बाँटो, यदि कार्य गुण तथा मानदण्ड परिवर्तन से सफलता प्राप्त न हो तो समझना चाहिए शायद कार्य संकीर्ण तथा समस्याओं से भरा है। ऐसी दिशा में कार्य छोटे-छोटे भागों में बाँटो।

4. वैकल्पिक कार्य चुनाव (Selection an Alternative Task)- यदि अनुदेशनात्मक अनुकूल के बावजूद भी विद्यार्थी की कार्य करने की क्षमता में प्रगति न हो तो अध्यापक को अधिगम कार्य में परिवर्तन करना चाहिए तथा विकल्प के रूप में अन्य कोई कार्य देने चाहिए जैसे-

(i) पहले जैसे कार्य के समान परन्तु उससे कोई आसान कार्य।

(ii) कोई कार्य जो पहले भी किया गया है। इस स्थिति में मूल कार्य को अन्य कार्य में परिवर्तित कर दिया जाता है। अध्यापक को बालकों की समस्या, प्रकृति तथा बालक की बाधित के परिणाम को ध्यान में रखते हुए आव्यूहों को चुनना चाहिए।

बाधित बालकों के लिए अनुकूलन शिक्षण आव्यूह (Adaptation Teaching Strategies For Disabled)

अध्यापक को बाधित बालकों की प्रत्येक विषय में अधिगम सम्बन्धी समस्याओं को पहचान करनी चाहिए तथा रोकथाम हेतु उचित अभ्यास करने के प्रस्ताव देने चाहिए परन्तु इस प्रकार के अभ्यास संसाधित अध्यापक द्वारा सामान्य ही विशिष्ट व्यवस्था करने के पश्चात् दिये जाने चाहिए। उदाहरण के लिए, जैसे ध्वनि में कक्षा में न देकर अन्य उपयुक्त स्थान पर दिये जाने चाहिए जो शिक्षण संस्था के समय में भेद का विकास करने के लिए कुछ कार्य क्षेत्र में अधिगम अभ्यास दे सकता है।

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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