राजनीति विज्ञान (Political Science)

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त के विकास के चरण

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त के विकास के चरण
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त के विकास के चरण

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सिद्धान्त के विकास के चरण

कैनेथ डब्ल्यू. थॉम्पसन ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विकास का सुव्यवस्थित ढंग से विश्लेषण किया है तथा इसके विकास की चार स्तरों में व्याख्या की है-

1. पहला चरण- कूटनीतिक इतिहास का चरण

विषय के विकास का पहला चरण प्रथम विश्वयुद्ध तक फैला हुआ था तथा उस समय इतिहासकारों का इस पर प्रभुत्व था। श्लेचर लिखते हैं कि, “प्रथम महायुद्ध से पहले अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संगठित अध्ययन न तो अमरीकी विश्वविद्यालयों तथा विद्यालयों तथा न ही किसी और विश्वविद्यालय में था । चाहे प्रो० Paul. S. Reinsch ने 1900 ई0 में Wisconsin विश्वविद्यालय में ‘विश्व राजनीति’ पर व्याख्यान दिये थे तथा वह इस क्षेत्र के अगुआ थे।”

शुरू-शुरू में इसके अध्ययन पर कूटनीतिक इतिहासकारों का प्रभुत्व रहा तथा सारा ध्यान राष्ट्रों के मध्य कूटनीतिक सम्बन्धों के इतिहास के अध्ययन पर ही केन्द्रित रहा । विद्वान राष्ट्रों के मध्य राजनीतिक तथा कूटनीतिक सम्बन्धों के अतीत के इतिहास के अध्ययन में ही लगे रहे। उन्होंने एक कालक्रमानुसार तथा वर्णनात्मक विचारधारा अपनाई परन्तु अपने ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन से एक सर्वमान्य सिद्धान्त बनाने के कोई प्रयत्न नहीं किए। उन्होंनें वर्तमान को भूतकाल से जोड़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी। उन्होंने भूतकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बारे में कई मनोरंजन तथा महत्वपूर्ण तथ्य तो पेश किए परन्तु अन्तर्युद्ध काल के वर्षों में सम्बन्धों के अध्ययन में यह तथ्य कोई लाभप्रद सहायता प्रदान नहीं कर सके। इस आंशिक और एकांगी धारणा से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में कोई सिद्धान्त बनाने में कोई विशेष सहायता प्रदान नहीं की। कूटनीतिक इतिहासकारों द्वारा काल-क्रमानुसार तथा वर्णनात्मक अध्ययन ने न तो उनके समय के सम्बन्धों के अध्ययन करने की आवश्यकता तथा न ही विषय के काल में परिवर्तन की मांग को सन्तुष्ट किया। सिवाए कुछ तथ्यों को प्रकाश में लाने के, यह चरण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में कोई सिद्धान्त बनाने या विषय को समझने के लिए महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करने में असफल ही रहा।

दूसरा चरण – दूसरा चरण – सामयिक घटनाओं का काल

युद्धकालीन सम्बन्ध (1914-19) के अनुभवों ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ के अध्ययन को एक नया मोड़ दिया। वेल्स विश्वविद्यालय में ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों’ की Woodrow Wilson Chair की स्थापना ने इस विषय के अध्ययन में एक नया अध्याय खोल दिया। सामयिक घटनाओं तथा समस्याओं का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का मूलभूत उद्देश्य माना जाने लगा। राज्यों के मध्य दिन-प्रतिदिन के सम्बन्धों को समझने के लिए समाचार-पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं तथा दैनिकों की समीक्षा, उचित तथा आवश्यक कदम माना जाने लगा। विद्वान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सामयिक उतार-चढ़ावों तथा समस्याओं की व्याख्या पर जोर देने लगे। इस काल में पहले स्तर की कमियों को दूर करने का तथा ऐतिहासिक पूर्वाग्रह के स्थान पर वर्तमान पर केन्द्रित होने के प्रयत्न किए गये।

3. तीसरा चरण – कानूनी संस्थात्मक चरण

तीसरे चरण में, जो दूसरे चरण के साथ- साथ ही विकसित हुआ, अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संस्थाओं द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के भविष्य को सुधारने के प्रयत्न किए गये। पहले महायुद्ध द्वारा दिए गए कष्टों से दुःखी हो कर विद्वानों ने एक आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाया जिसमें जैसी विकासात्मक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा संस्थानीकरण करके, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को सुधारने तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून को एक ऐसी नियमों वाली संस्था के रूप में संहिताबद्ध करने, जो राष्ट्रों के आपसी सम्बन्धों का संचालन करती है, पर ध्यान केन्द्रित किया गया। संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति विल्सन द्वारा दिए गये चौदह सूत्रों को इकट्ठे रूप में राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों के लिए सुधार चार्टर माना गया। पेरिस शान्ति सम्मेलन तथा उसके बाद राष्ट्रसंघ की स्थापना ने इस आशा को बल दिया कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सुधार के लिए प्रयत्नों की मांग भी है तथा यह सम्भव भी है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये कानूनी संस्थावादियों ने तीन विकल्पित दृष्टिकोणों को पेश किया।

(1) विश्व स्तरीय संस्थाओं की रचना ताकि युद्ध तथा संघर्षात्मक भू-क्षेत्रीय राज्यों की व्यवस्था को परिवर्तित किया जा सके।

(2) युद्ध पर कानूनी नियन्त्रण को बढ़ाया जाए तथा इसके लिये एक नए अन्तर्राष्ट्रीय मापदण्डों (अन्तर्राष्ट्रीय कानून) की रचना की जाए ताकि युद्ध को शुरू होने से रोका जाए और अगर युद्ध शुरू हो जाए तो इसके द्वारा किए जाने वाले विनाश को कम-से-कम किया जाये।

(3) विश्व स्तर पर शस्त्र नियन्त्रण एवं निःशस्त्रीकरण द्वारा शस्त्रों को समाप्त करके शान्ति को सुदृढ़ किया जाए।

तीसरे चरण में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन, मानवीय सम्बन्धों की अच्छाई में विश्वास से प्रभावित हुआ तथा परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संस्थाओं का सुधार तथा अध्ययन किया जाने लगा। युद्ध, जिसे पाप और दुर्घटना दोनों समझा जाता था, को सम्बन्धों के संस्थानीकरण द्वारा समाप्त किया जाना एक उद्देश्य माना गया। यह विश्वास व्यक्त किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास द्वारा तथा सफल अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा सुलझाई जा सकती है। इस चरण के अधीन विचारकों ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के भविष्य का सुधार करना चाहा। एक युद्धविहीन आदर्श अन्तर्राष्ट्रीय समाज की स्थापना को एक आदर्श के रूप में अपनाया गया।

क्योंकि इस चरण का दृष्टिकोण संकीर्ण था इसलिए कानून तथा संगठनवादी विचारधारा अत्यन्त परिवर्तनशील अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को एक चिरस्थायी आधार देने में असफल रही। तानाशाही, आक्रामक राष्ट्रवाद तथा 1930 की आर्थिक मन्दी, जैसे दूसरे तत्वों ने राष्ट्र संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के लिए कार्य करना और भी जटिल बना दिया। दूसरे विश्व युद्ध का आगमन इस चरण पर अन्तिम प्रहार था तथा इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आदर्शवाद का युग समाप्त हो गया।

चौथा चरण (आधुनिक चरण)

1919 से लेकर 1939 तक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन तीन मुख्य चरणों से गुजरा – कूटनीतिक इतिहास, सामयिक घटनाएं, कानून तथा संगठन का चरण अथवा राजनीतिक सुधारवाद का चरण हैं। ये तीनों चरण अपर्याप्त तथा के बाद के समय पक्षपातपूर्ण थे। पहला भूतकाल से सम्बन्धित था, दूसरा सम-सामयिक समस्याओं से ग्रसित था तथा तीसरा आदर्शवादी सुधारवाद पर केन्द्रित था । इसमें से कोई भी दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन को सार्थक दिशा नहीं दे सका। ऐसी आवश्यकता दूसरे विश्व युद्ध में ही पूर्ण हो सकी। चौथे चरण को प्रगतिशील माना जाता है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई। इसका मुख्य उद्देश्य विश्व में शान्ति स्थापना का रहा। अन्तर्राष्ट्रीय कानून का मानवीकीकरण हुआ। सम्प्रभु देशों की भागीदारी बढ़ाई गई। मानवाधिकारों को प्रमुखता मिली। परन्तु 1997 तक अन्तर्राष्ट्रीय द्वि-ध्रुवीय रही अतः पक्षपातपूर्ण व्यवहार एवं तटस्थता को पूरी तरह से नही अपनाया जा सका।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को व्यापकता, विशालता, परिवर्तनशीलता तथा जटिलताओं के कारण इस विषय क्षेत्र के अध्ययन क्षेत्र में विभिन्नताएँ अभी भी विद्यमान है। डेविड सिंगर ने कहा है कि, वैज्ञानिक विचारधारा ने उपलब्धियों की अपेक्षा वायदों को जन्म दिया है।” चाहे कुछ भी हो यह तो मानना पड़ेगा कि इससे विषय अधिक लोकप्रिय हो गया है। व्यवस्था विश्लेषण, शान्ति-शोध का दृष्टिकोण तथा विश्व व्यवस्था दृष्टिकोण ने अध्ययन क्षेत्र को बहुत विशाल तथा सिद्धान्त-निर्माण के कार्य को चुनौतीपूर्ण बना दिया है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आज परम्परागत दिशाएँ भी है परन्तु इसके साथ-साथ बहुत से पुराने घरों को तोड़ा भी गया है तथा कई नए नियमों अवधारणाओं, दृष्टिकोणों विधियों, परिप्रेक्ष्यों तथा सिद्धान्तों को विकसित किया गया है। वास्तव में विकास के चौथे चरण में ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’ का अध्ययन एक स्वायत्त विषय की ओर तेजी से बढ़ रहा है। यह वैज्ञानिक बना है तथा इसमें सिद्धान्त – निर्माण का कार्य प्रगति पर है।

इसी भी पढ़ें…

About the author

shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment