अनुक्रम (Contents)
अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार (Types of Programmed Instruction or Learning)
अभिक्रमित अनुदेशन तीन प्रकार का होता है :
(i) रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Linear Programmed Instruction)
(ii) शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Branching Programmed Instruction)
(iii) अवरोही अभिक्रमित अनुदेशन (Methetics Programmed Instruction)
(i) रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Linear Programmed Instruction)
इसको सन् 1954 में हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बी. एफ. स्किनर ने दिया। इसको श्रृंखला अभिक्रमित अनुदेशन भी कहते हैं । इसका आधार मनोवैज्ञानिक है व इसका प्रमुख उद्देश्य देना है। रेखीय अभिक्रमित का शाब्दिक अर्थ ‘सीधी रेखा का कार्यक्रम’ से है, जिसमें विद्यार्थी प्रारम्भिक व्यवहार से अंतिम व्यवहार तक सीधी रेखा में चलता रहता है। इस विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें प्रत्येक पद पर बालक की अनुक्रिया होती है। जिसका सम्बन्ध अंतिम व्यवहार से होता है । इस अनुदेशन में विद्यार्थी को प्रत्येक पद को पढ़ाना होता है और उसी प्रकार से वह धीरे-धीरे वांछित व्यवहार अर्जित कर लेता है व अपने मार्ग से विचलित नहीं होता है। इसके स्वरूप को निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है।
पद→ (1) → (2) → (3)→ (4)→ (5)→ (6)→ (7)→ समाप्त
↓ ↓
पूर्व व्यवहार अंतिम व्यवहार
इसमें प्रत्येक विद्यार्थी एक के बाद एक फ्रेम या सोपान को पढ़ता चला जाता है व अन्त तक सभी फ्रेमों को एक के बाद एक पढ़ता है और ज्ञान अर्जित करता है । इसमें विद्यार्थी पहला पद पढ़ने के बाद अनुक्रिया करता है तथा दूसरे पद को पढ़ने से पहले प्रथम पद के उत्तर की जाँच भी कर लेता है, जिससे उसे पृष्ठ – पोषण मिलता है।
रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन की अवधारणाएँ (Assumptions of Linear Programmed Instruction)
रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन की निम्नलिखित अवधारणाएँ हैं:
(i) जिसमें विद्यार्थी सही अनुक्रियाओं से प्रेरित होते हैं, जिसके कारण वे अधिक सीख जाते हैं।
(ii) इसमें विद्यार्थी स्वयं करके सीखने के लिए सक्रिय होते हैं।
(iii) अध्ययन के समय कम-से-कम त्रुटियाँ ‘करने पर विद्यार्थी अधिक सीखता है
(iv) इसमें पाठ्य-वस्तु को सरल व सुग्राह्य रूप में पदों में प्रस्तुत किया जाता है इसलिए विद्यार्थी अधिक सीखते हैं।
(v) विषय-वस्तु क्रमबद्ध शिक्षण-सूत्रों के अनुसार होती है जिसके फलस्वरूप अधिगम अधिक होता है।
(vi) इसमें उपचारात्मक शिक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है।
रेखीय अभिक्रमित की विशेषताएँ (Characteristics of Linear Programming)
रेखीय अभिक्रमित की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
(i) इसमें एक ही फ्रेम में सभी विद्यार्थी पढ़ते हैं व अनुक्रिया करते हैं।
(ii) इसमें सभी विद्यार्थी अनुकरण के लिए एक ही रास्ता अपनाते हैं।
(iii) विद्यार्थी एक फ्रेम से दूसरे फ्रेम की ओर तब तक बढ़ता है जबतक कि सारा कार्यक्रम समाप्त नहीं होता है।
(iv) इसमें गलतियाँ होने की सम्भावना कम रहती है।
(v) प्रत्येक विद्यार्थी अपनी स्वयं की गति से कार्य करता है और उसी तरह फ्रेम का अनुसरण है।
(vi) इसमें सारा कार्यक्रम छोटे-छोटे पदों या फ्रेमों का बना होता है और उसमें एक ही उदाहरण व विचार होते हैं।
(vii) इसमें पृष्ठ पोषण या पुनर्बलन तुरंत मिलता है, जिससे बालक कार्य के प्रति अभिप्रेरित रहता है।
(viii) रेखीय अभिक्रमित में विद्यार्थियों की अनुक्रिया को नियंत्रित रखा जाता है।
(ix) अधिकांशतः रेखीय अभिक्रमित में रचनात्मक अनुक्रियाओं का ही प्रयोग होता है।
(x) इसमें उद्दीपन प्रारम्भ में ही दे दिया जाता है, जिससे विद्यार्थी कार्य के प्रति जागरूक होता है।
रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन का स्वरूप (Structure of Linear Programming)
इसमें पाठ्य-वस्तु को छोटे पदों या फ्रेमों में बाँटा जाता है। जिसमें तीन पद निहित होते है-
(1) उद्दीपन (Stimulus),
(2) अनुक्रिया (Response),
(3) पुनर्बलन (Reinforcement)
(1) उद्दीपन (Stimulus) — यह अनुदेशन व्यवहारवादी मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित है । रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में पद उद्दीपन होते हैं, जो विद्यार्थियों को प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसको स्वतंत्र चर भी कहा जाता है।
(2) अनुक्रिया (Response) — विद्यार्थी को उद्दीपन के लिए अपेक्षित अनुक्रिया करनी होती है, जिसे आश्रित चर कहते हैं। यह अनुक्रिया उद्दीपन पर निर्भर करती है। विद्यार्थी के पद के प्रति की गई प्रतिक्रिया अनुक्रिया कहलाती है। इससे विद्यार्थियों के ज्ञान में वृद्धि होती है और अनुक्रिया की पुष्टि विद्यार्थी को पुनर्बलन प्रदान करती है। अनुदेशन में दो प्रकार की अनुक्रियाएँ होती हैं-
(i) रचनात्मक अनुक्रिया
(ii) विभेदीकृत अनुक्रिया।
जब प्रत्येक पद के लिए निर्धारित स्थान में विद्यार्थी को अनुक्रिया लिखनी होती है। यह अनुक्रिया विद्यार्थी के लिए नया व्यवहार होता है। यही व्यवहार रचनात्मक अनुक्रिया कहलाती है।
कुछ पदों में अनुक्रिया के लिए दो विकल्प दिए जाते हैं व उनमें से ही एक सही अनुक्रिया होती है। पद को पढ़ते समय विद्यार्थी को सही अनुक्रिया का चयन करना होता है। इसको ही विभेदीकरण अनुक्रिया कहते हैं।
(3) पुनर्बलन (Reinforcement)- प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी अनुक्रियाओं की जाँच करनी होती है, जिसके लिए प्रत्येक अभिक्रमित के अन्त में सही उत्तर दिया जाता है । विद्यार्थी अनुक्रिया में सही होने पर अधिक सीखने के लिए प्रेरित होता है। यह सही अनुक्रिया विद्यार्थी को नया ज्ञान प्रदान करती है। इसको पुनर्बलन कहते हैं ।
रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन की सीमाएँ (Limitations of Linear Programmed Instruction)
उपरोक्त विशेषताओं के होते हुए भी रेखीय अनुदेशन की निम्न सीमाएँ होती हैं-
(i) यह विधि अधिक महँगी होती है।
(ii) इस विधि में समय ज्यादा लगता है।
(iii) इसमें विद्यार्थी स्वतंत्र नहीं रह पाते।
(iv) इस विधि द्वारा विद्यार्थियों को केवल ज्ञानात्मक पक्ष का ज्ञान प्राप्त होता है, भावात्मक व क्रियात्मक पक्ष का नहीं।
(v) यह सभी स्कूल विषयों के लिए सामग्री पैदा करने में सहायक नहीं होती।
(vi) उच्च स्तर की अभिक्रमित सामग्री पैदा करना बहुत कठिन कार्य होता है।
(ii) शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Branching Programmed Instruction)
इसको आन्तरिक अभिक्रमित भी कहते हैं। इसको सन् 1950 ई. में नार्मन क्राउडर 1950 ने दिया। इनके अनुसार, इसमें विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों या फ्रेमों में व्यवस्थित करने की अपेक्षा इसमें विषय-वस्तु को एक प्रत्यय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका आकार बड़ा होता है। विद्यार्थी इनमें से किसी एक के सही उत्तर को चयनित करता है व फिर उस पद में दिए गए संकेत के अनुसार आगे कार्य करता है। इसमें विद्यार्थी स्वतंत्र रहता है। इसमें यदि विद्यार्थी गलत उत्तर देता है तो उसे निदानात्मक फ्रेम की ओर संकेत दिया जाता है, जहाँ पर उसे उसकी गलती का कारण पता चलता है।
शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन में विद्यार्थियों की त्रुटियाँ का पुर्वानुमान लगा दिया जाता है। इन त्रुटियों को ढूँढ़कर उसका निदान किया जाता है। इस प्रकार से विद्यार्थी इसमें एक रास्ता न अपनाकर, अलग-अलग शाखाओं में बँट जाते हैं। शाखीय अनुदेशन दो प्रकार के होते हैं-
(i) विषय-वस्तु फ्रेम (ii) निदानात्मक वस्तु।
विषय-वस्तु फ्रेम में विद्यार्थियों की अनुक्रियाओं को दोहराकर सकारात्मक प्रामाणिकता नई सूचनाएँ आदि सम्मिलित होते हैं, जबकि निदानात्मक फ्रेम में विद्यार्थियों की अनुक्रिया को दोहराना, नकारात्मकता प्रमाणिकता त्रुटियाँ होने के कारण व आगे बढ़ने के निर्देश इत्यादि सम्मिलित होते हैं। काउडर के अनुसार, “इसको एक प्रोग्राम या अभिक्रमित की तरह परिभाषित किया
जाता है, जिसमें विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को बिना किसी बाह्य युक्ति के ग्रहण किया जाता है, जैसे कम्प्यूटर ।
फ्रेम 1 → फ्रेम 2 → फ्रेम 3 → फ्रेम 4
उपचारात्मक फ्रेम
उपचार→ उपचार → उपचार → उपचार
शाखीय अभिक्रमित उद्देश्य की विशेषताएँ (Characteristics of Branching Programmed Instruction)
शाखीय अभिक्रमित की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
(i) इसमें विद्यार्थियों की कमजोरियों के लिए उपचारात्मक अनुदेशन की व्यवस्था की जाती है।
(ii) इसमें विद्यार्थियों को तुरंत पृष्ठपोषण दिया जाता है।
(iii) इसमें विद्यार्थियों को प्रत्युत्तरों की रचना करनी नहीं पड़ती है।
(iv) इसमें अधिक जानकारी दी जा सकती है।
(ix) इस अनुदेशन में विद्यार्थियों की कठिनाइयों की तरफ ज्यादा ध्यान दिया जाता है।
(v) इसमें विद्यार्थी अपने अध्ययन का मार्ग स्वयं निर्धारित करता है।
(vi) इसमें ट्यूटोरियल पद्धति की तरह कार्य किया जाता है।
(vii) इसका प्रयोग उच्च शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
(viii) इस अनुदेशन में अभिप्रेरणा पर अधिक बल दिया जाता है।
(x) शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन का निर्माण कार्य सरल होता है।
(xi) इसमें विषय-वस्तु के फ्रेम रेखीय की अपेक्षा बड़े होते हैं तथा साथ-ही-साथ एक पद एक प्रत्यय को ही प्रस्तुत करता है।
शाखीय अनुदेशन की अवधारणाएँ (Assumptions of Branding Instruction)
शाखीय अनुदेशन की निम्न अवधारणाएँ होती हैं-
(i) पाठ्य-वस्तु को छोटे रूप में प्रस्तुत न करके, बड़े रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
(ii) इसमें पदों को पृष्ठों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें दो प्रकार के पृष्ठ (1) गृह पृष्ठ, (2) त्रुटि पृष्ठ होते हैं।
(iii) इसमें अधिगमकर्त्ता अपनी संतुष्टि के लिए व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रख सकता है।
(iv) इसमें पृष्ठों पर पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु की व्याख्या की जाती है तथा त्रुटि पृष्ठ पर निदानात्मक तथा उपचारात्मक निर्देश दिए जाते हैं। शाखीय अनुदेशन के निम्न चार सिद्धांत होते हैं :
शाखीय अनुदेशन के सिद्धांत (Principles of Branching Instruction)
(1) कार्य विश्लेषण (Task Analysis) — इसमें कार्यों को उनके तत्वों के अनुसार बाँटा। ये तत्व एक व्यवस्थित क्रम में होते हैं, जिससे सरलतापूर्वक इन्हें अधिगम के लिए जाता प्रयोग व हस्तांतरित किया जा सके।
(2) प्रस्तुति (Exposure) — इसमें कार्यों को एक विस्तृत रूप में या किसी एक यूनिट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
(3) निदान (Diagnosis) — इसमें बालकों की कमजोरियों का निवारण किया जाता है, जो बालक के विकास में बाधक सिद्ध होती है।
(4) उपचार (Remedialation) — निदान करने के बाद इसमें बालकों की कमियों को दूर किया जाता है।
रेखीय और शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन में अंतर (Difference Between Linear and Branching Programmed Instruction)
शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन | रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन |
1. इसमें पदों या फ्रेमों का आकार बड़ा होता है। | 1. इसमें पदों या फ्रेमों का आकार छोटा होता है। |
2. इसमें ज्यादा मात्रा में अधिगम होता है। | 2. इसमें कम अधिगम होता है । |
3. इसमें विद्यार्थियों को प्रत्युत्तरों की रचना नहीं करनी पड़ती । | 3. इसमें विद्यार्थी को एक बार में ही सही प्रत्युत्तर देने होते हैं। |
4. शाखीय अभिक्रमण बनाना सरल नहीं होता। | 4. रेखीय अभिक्रमित सरलतापूर्वक बनाया जा सकता है। |
5. इसका सम्बन्ध निदान करने से होता है। | 5. रेखीय अभिक्रमण का सम्बन्ध व्यवहार परिवर्तन से होता है। |
6. इसमें अधिक जानकारी प्रदान की जा सकती है। | 6. इसमें अधिक जानकारी प्रदान नहीं की जा सकती है। |
(iii) अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन (Methetics Programmed Instruction)
इस अनुदेशन का विकास 1962 में थॉमस एफ. गिलबर्ट ने किया है। मेथेटिक्स शब्द यूनानी भाषा के ‘मेथीन’ शब्द से लिया गया है, जिसका तात्पर्य, सीखना है। इसका सम्बन्ध सीखने के हस्तांतरण से है। इस विधि में अभिप्रेरणा एक आवश्यक कारक है। इसमें विषय-वस्तु की अपेक्षा अध्ययनकर्त्ता की क्रियाओं पर अधिक बल दिया जाता है। अवरोह-अभिक्रमित अनुदेशन का प्रमुख उद्देश्य ‘विषय-वस्तु के स्वामित्व’ पर अधिक बल देना है। वास्तव में यह एक नया संप्रत्यय है।
इस विधि में सम्पूर्ण पाठ्य वस्तु को एक रेखा या श्रृंखला में व्यवस्थित या क्रमबद्ध रूप में कर दिया जाता है। इस पाठ्यक्रम की श्रृंखला के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों को अनेक प्रकार की क्रियाएँ करनी पड़ती है। इसमें पूर्व-नियोजित क्रिया को अंत में करना होता हैं। इस प्रकार से ये अनुक्रियाएँ अवरोह क्रम में की जाती हैं, इसी कारण से इसे अवरोह श्रृंखला कहते हैं।
गिलबर्ट के अनुसार, “मेथेटिक्स, पुनर्बलन सिद्धान्तों का जटिल व्यवहार कोष के विश्लेषण एवं पुनर्निर्माण में उपयोगी है। जटिल व्यवहार कोष से तात्पर्य विषय-वस्तु के स्वामित्व, ज्ञान एवं कौशलों से है। मेथेटिक्स, यदि परिश्रम से उपयोग किया जाए तो यह ऐसी शिक्षण सामग्री का विकास करती है, जो पाठों की कार्यक्षमता को अन्य किसी भी विधि की अपेक्षा अधिक बढ़ाती है। “
मेथेटिक्स अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ (Characteristics of Methetics Programmed Instruction)
मेथेटिक्स अभिक्रमित अनुदेशन की निम्न विशेषताएँ होती हैं:
(i) मेथेटिक्स में विषय-वस्तु के स्वामित्व पर बल दिया जाता है।
(ii) इसमें पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों या फ्रेमों में प्रस्तुत करके विद्यार्थियों को सरलता से बोधगम्य कराने में आसानी रहती है।
(iii) इसमें विद्यार्थी, अध्यापक की अनुपस्थिति में भी पाठ्य वस्तु पर स्वामित्व प्राप्त कर सकता है।
(iv) मेथेटिक्स में विद्यार्थी को अनुक्रियाएँ अवरोही क्रम में करनी होती हैं।
(v) इस विधि में अधिगम प्राप्त करने के लिए विभेदीकरण श्रृंखला व सामान्यीकरण का प्रयोग किया जाता है।
(vi) इस अभिक्रमित अनुदेशन में सहायता के लिए प्रदर्शन व अनुबोधकों का प्रयोग किया जाता है।
(vii) इसमें विद्यार्थियों को अपनी अनुक्रियाओं की पुष्टि करने से पुनर्बलन मिलता है जिससे बालकों को प्रेरणा मिलती है।
अवरोही अभिक्रमित अनुदेशन की अवधारणाएँ (Assumptions of Methetics Programming Instruction)
(i) यह अनुदेशन प्रेरणादायी क्रियाओं के लिए अधिक प्रभावशाली होता है।
(ii) पाठ्य-वस्तु के स्वामित्व के लिए यह अनुदेशन अधिक उपयोगी होता है।
(iii) पाठ्य-वस्तु का स्वरूप उद्दीपन व अनुक्रिया के द्वारा ही निर्धारित होता है।
(iv) कार्यों की सफलता पुनर्बलन प्रदान करती है।
(v) अधिगम की परिस्थिति में विभेदीकरण, सामान्यीकरण व श्रृंखला अधिक प्रभावशाली होता है।
अवरोही अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांत (Principle of Methetics Programmed Instruction)
पाठ के प्रस्तुतीकरण करने के लिए निम्न तीन सिद्धांत होते हैं :
(1) श्रृंखला का नियम (Law of Chaining)— इसमें पाठ्य वस्तु को एक ही क्रम में प्रस्तुत किया जाता है । पाठ्य वस्तु का विश्लेषण करके उसके तत्वों को उद्दीपन-अनुक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रत्येक अनुक्रिया इसमें अगले पद के लिए उद्दीपन का कार्य करती है; जैसे :
उद्दीपन1 → अनुक्रिया1 → उद्दीपन2 → अनुक्रिया2 → उद्दीपन3 → अनुक्रिया3
S1→ R1 → S2 → R2→S3→R3
(2) विभेदीकरण का नियम (Law of Generalization)— जब विभिन्न उद्दीपनों के लिए एक ही अनुक्रिया का प्रयोग किया जाता है, तो इस नियम का प्रयोग किया जाता है; जैसे :
इसमें अनुक्रिया ‘धातु’ सामान्यीकरण के आधार पर कहा गया है।
अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ, लाभ और महत्त्व (Characteristics, Advantages and Importance)
(i) यह एक ऐसी प्रविधि है जिसमें अनुदेशन सामग्री को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसके द्वारा अधिगम स्वरूपों का विकास किया जाता है और छात्रों को लगातार जाता सही अनुक्रियाओं के लिए पुनर्बलन दिया जाता है।
(ii) इसमें शिक्षार्थी के पूर्व व्यवहारों तथा धारणाओं का विशिष्टीकरण किया जाता है।. इन व्यवहारों में उनकी भाषा की बोधगम्यता का स्तर, निष्पत्ति स्तर, पाठ्य-वस्तु सम्बन्धी पृष्ठभूमि तथा बौद्धिक क्षमताओं को ध्यान में रखा जाता है।
(iii) अनुदेशन द्वारा प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखा जाता है तथा उनके मापन के लिए मानदंड परीक्षा का निर्माण किया जाता है।
(iv) पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया जाता है जिसे छात्र सुगमतापूर्वक बोधगम्य कर लेते हैं। इन पदों को तार्किक क्रम में रखा जाता है।
(v) छात्र तथा अनुदेशन में अंतःक्रिया होती है। छात्र प्रत्येक पद के लिए अनुक्रिया करता है जिससे वह नया ज्ञान अथवा नया व्यवहार सीखता है और सही अनुक्रिया से पृष्ठ-पोषण भी दिया जाता है। इस प्रविधि में तीन तत्व उद्दीपन, अनुक्रिया तथा पुनर्बलन क्रियाशील होते हैं।
(vi) अभिक्रमित अनुदेशन में छोटे-छोटे पदों की सहायता से अधिगम स्वरूपों को उन्पन्न किया जाता है। जिससे व्यवहार शृंखला विकसित होती है और अंतिम उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
(vii) इसमें छात्रों को अपनी व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार सीखने का अवसर दिया जाता है। प्रत्येक छात्र अपनी गति के अनुसार अध्ययन करता है।
(viii) इसमें छात्रों की अनुक्रियाओं की तुरंत पुष्टि की जाती है जिससे छात्रों को पुनर्बलन मिलता है और अधिगम प्रभावशाली होता है। प्रत्येक अनुक्रिया छात्र को नया ज्ञान प्रदान करती है।
(ix) छात्र अनुदेशन सामग्री के अध्ययन के समय तत्पर रहता है, क्योंकि उसे अनुक्रिया करनी होती है। इसमें कार्य द्वारा अधिगम होता है।
(x) अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री के निर्माण के बाद उसका मूल्यांकन किया जाता है। अनुदेशन की प्रभावशीलता के सम्बन्ध में छात्रों की अनुक्रियाओं के आधार पर निर्णय लिया जाता है और उनका सुधार तथा परिवर्तन किया जाता है।
(xi) अभिक्रमित अनुदेशन में छात्रों की कमजोरियों का निदान किया जाता है और उनके लिए उपचारात्मक अनुदेशन भी दिया जाता है। यह प्रविधि एक अनुवर्ग शिक्षण की भाँति कार्य करती है।
(xii) अभिक्रमित अनुदेशन के अनेक रूप हैं जो शिक्षण की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाते हैं।