राजनीति विज्ञान (Political Science)

उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार बाजार-समाज प्रतिरूप पर प्रकाश डालिए।

उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार बाजार-समाज प्रतिरूप
उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार बाजार-समाज प्रतिरूप

उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार बाजार-समाज प्रतिरूप

विकासशील राष्ट्रों को अनेक क्षेत्रों में विकास करना है-विशेषतः आर्थिक, प्रौद्योगिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में विकासशील देशों में निम्न उत्पादकता और निर्धन्ता को अल्पविकास के मुख्य लक्षणों में गिना जाता है। इनसे जुड़ी हुई परिस्थितियों को बदलने की प्रक्रिया को आर्थिक विकास की संज्ञा दी जाती है आर्थिक संवृद्धि इसकी आवश्यक शर्त है, हालांकि यह उसके लिए पर्याप्त नहीं है। मुख्यतः विकास के दो स्तरों की पहचान की जाती है: (क) बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति, जैसे कि पोषण, स्वास्थ्य और आवास और (ख) उत्तम जीवन के लिए आवश्यक साधनों की व्यवस्था, जैसे कि सार्वजनीन शिक्षा, रोजगार, नागरिक स्वतंत्रताएं और राजनीतिक सहभागिता। विकास का तात्कालिक उद्देश्य है— एक पिछड़ी हुई और परंपरागत व्यवस्था को आधुनिक व्यवस्था में परिणत करना। इसके साथ यह मान्यता जुड़ी है। कि ‘आधुनिक’ व्यवस्था राज्य और समाज की समस्याओं को सुलझाने में अधिक कार्यकुशल सिद्ध होती है।

जेम्स एम. कोलमैन ने आधुनिकीकरण और राजनीतिक विकास को समवर्ती मानते हुए आधुनिक समाज के इन लक्षणों पर विशेष बल दिया है: शहरीकरण का उन्नत स्तर, साक्षरता का विस्तार, प्रति व्यक्ति आय का उच्च स्तर, भौगोलिक और सामाजिक गतिशीलता, अर्थव्यवस्था में वाणिज्य-व्यापार और औद्योगीकरण का ऊँचा स्तर, जनसंपर्क के साधनों का विस्तृत और सर्वव्यापक जाल तथा आधुनिक सामाजिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में समाज के सदस्यों की विस्तृत सहभागिता (द पॉलिटिक्स ऑफ द डिवेलपिंग एरियाजः विकासशील देशों की राजनीति, संपादक गेब्रियाल ए. ऑल्मंड और जेम्स एस. कोलमैन) (1960)। जाहिर है, ये सारे लक्षण पश्चिमी जगत् के उन्नत देशों के लक्षण हैं। यह दृष्टिकोण विकास की उदारवादी धारणा के साथ जुड़ा है। अतः इस दृष्टिकोण विकास की उदारवादी धारणा के साथ जुड़ा है। अतः इस दृष्टिकोण के अनुसार, राजनीतिक विकास और आधुनिकीकरण वस्तुततः नवोदित देशों के पश्चिमीकरण के पर्याय हैं। इस तरह संयुक्त राज्य अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों के सिद्धांतकारों ने पश्चिम के उदार लोकतंत्र को विकसित राजनीतिक प्रणाली का प्रतिरूप मानते हुए एक मानदंड के रूप में अपनाया ताकि नवोदित देशों की राजनीतिक संरचनाओं को इसके साथ मिलाकर उनके विकास के स्तर को मापा जा सके। इसमें यह संकेत या संदेश छिपा था कि नवोदित देशों को अपने राजनीतिक विकास के लिए पश्चिमी देशों के अनुरूप संरचनाएं विकसित करनी होगी, अन्यथा वे पिछड़े रह जाएंगे। चुंकि राजनीतिक विकास की प्रक्रिया को सामाजिक जीवन के अन्य पक्षों-जैसे कि आर्थिक, प्राद्योगिक और प्रशासनिक विकास की प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता, इसका मतलब यह था कि विकासशील देशों अपना आर्थिक विकास भी पश्चिमी ढंग के करना चाहिए। राजनीतिक विकास के इस प्रतिरूप के अंतग्रत यह तर्क दिया गया कि तीसरी दुनिया के देशों को अपनी अर्थव्यवस्था मुक्त व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए खुली रखनी चाहिए। अतः इस सिद्धांत के अंतर्गत दुनिया में बाजार अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की वकालत की गई।

दारवादी दृष्टिकोण के समर्थक ‘आर्थिक संवृद्धि’ को विकास की अनिवार्य शर्त मानते हुए यह तर्क देते हैं कि प्रत्येक राष्ट्र को प्रचुरता (Abundance) की स्थिति तक पहुँचने से पहले आर्थिक संवृद्धि की निश्चित अवस्थाओं को पार करना होता है। इस तरह डब्ल्यू. डब्ल्यु. रॉस्टो ने अपनी चर्चित कृति ‘स्टेजेज ऑफ इकॉनॉमिक ग्रोथ’ (आर्थिक संवृद्धि की अवस्थाएं) (1960) के अन्तर्गत आर्थिक संवृद्धि की पांच अवस्थाओं की पहचान की है।

(1) परंपरागत समाज जिसमें श्रम-प्रधान कृषि जिसमें ही उत्पादन का मुख्य स्रोत होती है, और प्रौद्योगिकी तथा उत्पादकता का बहुत निम्न स्तर पर पाया जाता है;

(2) संक्रांतिकालीन अवस्था जो परिवर्तित की पूर्वशर्तें करती हैं;

(3) उत्कृष अवस्था जब औद्योगीकरण के मार्ग की संरचनात्मक बाध्यताएं हट चुकी होती है, और उद्यमी वर्ग का उदाय हो चुका होता है;

(4) प्रौढ़ता की ओर प्रेरणा की अवस्था जब औद्योगीकरण शुरू हो जाता है और प्रौद्योगिक विकास तथा उत्पादकता का स्तर ऊँचा हो जाता है; और

(5) उच्च स्तर के जनपुंज-उपभोग की अवस्था जब प्रचुरता की स्थिति आ जाती है, और समाज बुनियादी आवश्यकताओं के स्तर से ऊपर उठकर टिकाऊ वस्तुओं का भरपूर उपभोग करने लगता है।

ए. एफ. के ऑर्गेस्की ने इसी तर्क-प्रणाली का अनुसरण करते हुए अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘द स्टेजेज ऑफ पोलिटिकल डिवलपमेंट’ (राजनीतिक विकास की अवस्थाएं) (1965) के अनतर्गत आर्थिक संवृद्धि को राजनीतिक विकास का अंग मानते हुए राजनीतिक विकास की चार अवस्थाओं का विवरण दिया है:

(1) आदिम एकीकरण की अवस्था; (2) औद्योगीकरण की अवस्था

(3) राष्ट्रीय कल्याण या खुशहाली की अवस्था; और

(4) प्रचुरता की राजनीति ।

विकास के इन सिद्धान्तों से ये संकेत मिलता है कि विकासशील देशों अपने विकास के लिए पूंजीवादी देशों के पद-चिह्नों का चलना होगा। उदारवादी दृष्टिकोण हमें यह आशा बँधाता है. कि विकासशील देशों में आर्थिक विकास के माध्यम से लोकतंत्र की स्थापना हो पाएगी जिसमें जनसाधारण की इच्छा को सर्वोपरि स्थान मिलेगा। दूसरे शब्दों में, इस दृष्टिकोण के साथ यह विचार जुड़ा है कि विकासशील देश पश्चिमी देशों का अनुकरण करके आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पश्चिमी देशों के तुल्य हो जाएंगे।

सीमोर लिप्सेट ने अपनी चचिर्तत कृति ‘पोलिटिकल मैन : द सोशल बसेस ऑफ पॉलिटिक्स’ (राजीनीतिक मानव-राजनीति के सामाजिक आधार-तत्व) (1960) के अंतर्गत लोकतंत्र को एक आदर्श व्यवस्था मानते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि किसी देश के लोग जितने संपन्न होंगे, वहां लोकतंत्र की संभावनाएं उतनी ही उज्जवल होंगी। उसने तर्क दिया है कि संपन्न अर्थव्यवस्था लोगों में साक्षरता और शिक्षा का विस्तार करती है, और उन्हें जनसंपर्क के साधनों से परिचित कराती है। ये सब तत्व लोकतंत्र को बढ़ावा देते हैं। समृद्ध अर्थव्यवस्था लोगों के लिए राजनीतिक अवसरों का द्वार खोल देती है जिससे राजनीतिक तनावों में कमी आती है। ऐसी अर्थव्यवस्था को सत्तावादी तरीकों से नहीं चलाया जा सकता। वह यह मांग करती है कि सारे कायदे-कानून उन लोगों की सहमति से बनाए जाने चाहिए जिन्हें वे प्रभावित करते हों। फिर, संपन्न अर्थव्यवस्था आय के समतामूलक वितरण को बढ़ावा देती है जो कि लोकतंत्र की भावना के लिए उपयुक्त आधार प्रस्तुत करता है।

तीसरी दुनिया के संदर्भ में लिप्सेट के तर्क के तथ्यों के आधार पर प्रमाणित करना कठिन है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट (1995) के अनुसार, 1993 में संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर और कुवैत में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद 19,300 अमरीकी डालर के ऊपर था, परंतु इनमें से कोई भी लोकतंत्र नहीं बन पाया। इसके विपरीत, भारत में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद केलव 300 अमरीकी डालर था, परंतु वह आधी शताब्दी से लोकतंत्र रहा है।

सैमुअल हंटिंगटन ने 1984 के ‘पालिटिकल क्वार्टली’ में प्रकाशित लेख के अंतर्गत ऐसे चार तत्वों का विवरण दिया है जो किसी देश में लोकतंत्र की संभावना को संकेत देते हैं:

(क) राजनीतिक विशिष्वर्गों की पसंद क्या है- हंटिंगटन ने लिखा है कि जैसे जैसे किसी देश का आर्थिक विकास होता है, वैसे-वैसे वहां परंपरागत गैर-लोकतंत्रीय राजनीतिक संस्थाओं को कायम रखना मुश्किल हो जाता है। फिर भी यह जरूरी नहीं कि ऐसी हालत में प्रत्येक देश पश्चिमी ढंग का लोकतंत्र अपना लेगा। लोकतंत्रीय और गैर-लोकतीय विकल्पों में से उपयुक्त विकल्प का चयन राजनीतिक विशिष्टयों के हाथ में रहता है:

(ख) सुसंगठित मध्यवर्ग का उदय कहां तक हो पाया है- यदि किसी देश में नागरिक समाज की संस्थाएं पर्याप्त विकसित हों तो वहां लोकतंत्र की संभावनाएं उज्वल होंगी। दूसरे शब्दों में, वहां ऐसे स्वायत समूहों का विकास होना चाहिए जो अपनी भिन्न-भिन्न पहचान रखते हों, और अपने-अपने दृष्टिकोण को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ हों। ऐसे समूह सरकार की शक्ति पर अंकुश रख सकेंगे जिससे लोकतंत्रीय मनोवृत्ति की पुष्टि होगी। हंटिंगटन के अनुसार, जहां ऐसा स्वायत मध्यवर्ग मौजूद हो जो राजनीतिक दृष्टि से सजग हो, वहां लोकतंत्र को जड़ें जमाने में देर नहीं लगेगीः

(ग) बाहर के देश वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए कितना दबाव डालते हैं? इंटिगटन का विचार है कि किसी देश को लोकतंत्र की ओर प्रेरित करने में ब्रिटिश और अमरीकी प्रभाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रभाव के अनेक स्रोत हो सकते हैं, जैसे कि उपनिवेशवादी शासन की विरासत, युद्ध में पराजय या किसी अन्य कारण से उस देश पर लोकतंत्रीय राजनीतिक प्रबंध लागू करने की कार्रवाई: और अंततः

(घ) प्रस्तुत देश की संस्कृति में लोकतंत्र के प्रति कितना झुकाव है? हंटिंगटन का दावा है कि ईसाई देशों में लोकतंत्र के प्रति ज्यादा झुकाव पाया जाता है; हिंदू या शिंटो धर्म से प्रभावित संस्कृति लोकतंत्र के प्रति प्रायः उदासीन होती है, हालांकि वह लोकतंत्र के विरूद्ध भी नहीं होती। परंतु इस्लामी, कन्फ्यूशसवादी और बौद्ध संस्कृति निस्संदेह लोकतंत्र की भावना के विरूद्ध है।

विकासशील देशों में लोकतंत्र की संभावनाओं के बार में हंटिंगटन का विश्लेषण बहुत महत्त्वपूर्ण है। परंतु वह सर्वथा युक्तिसंगत नहीं है। किसी देश में प्रचलित धर्म को ही वहां की संस्कृति का मुख्य सूचक मानकर वहां लोकतंत्र की संभावनाओं के बारे में निर्णय देना भ्रामक होगा। उदाहरण के लिए, जॉर्डन, मलेशिया, मिस्र और लेबनान मुख्यतः मुस्लिम देश हैं; नेपाल हिन्दू देश हैः श्रीलंका मुख्यतः बौद्ध धर्मावलंबी है, थाइलैंड बौद्ध धर्मावलंबी है; ताइवान कन्फ्यूशन का अनुयायी है; भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी, इत्यादि अनेक धर्मावलंबी लोग रहते हैं। परंतु ये सब-के-सब सक्रिय लोकतंत्र है। किसी देश की राजनीतिक संस्कृति वहां लोकतंत्र के भविष्य को अवश्य निर्धारित करती है, परंतु इसकी प्रकृति का पता लगाने के लिए केवल वहां के धर्म पर विचार करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि वस्तुपरक मानदंड अपनाना जरूरी है।

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shubham yadav

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