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एक उदीयमान राष्ट्र के रूप में भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था का वर्णन करें।

एक उदीयमान राष्ट्र के रूप में भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था
एक उदीयमान राष्ट्र के रूप में भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था

एक उदीयमान राष्ट्र के रूप में भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था

डेमोक्रेसी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्द ‘डेमास’ तथा ‘क्रेटिक’ से हुई है। यहाँ डेमोस का अर्थ है शक्ति तथा क्रेटिक का अर्थ है जनता। इस प्रकार डेमोक्रेसी का अर्थ हुआ— जनता के हाथ में शक्तिअब्राहम लिंकन ने इसे ‘जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिये शासन’ कहा है।

निश्चय ही जनतंत्र शासन व्यवस्था के रूप में अत्यधिक पुरानी है किन्तु उसका वर्तमान रूप जनतंत्र का वर्तमान स्वरूप अधिक प्राचीन नहीं है। पश्चिमी देशों में प्राचीन काल में यह आलोचना का विषय भी था। प्लेटो और अरस्तु लोकतंत्र की आलोचना करते हुए कहते थे कि शासन जैसे जटिल कार्य के लिये बहुसंख्यक वर्ग का शासन उपयुक्त नहीं होता। अतएव प्लेटो और अरस्तु दोनों ने ही लोकतंत्र के शासन को निकृष्टतम रूप कहा था। दार्शनिक राजा के शासन को प्लेटो ने उत्तम माना था और अरस्तु ने शासन-सत्ता को मध्यम वर्ग को सौंपने का परामर्श दिया था। आज शासन के रूपों में लोकतंत्र को ही सर्वश्रेष्ठ रूप. में स्वीकार किया जाता है और विश्व के अधिकतर देशों में लोकतंत्र विद्यमान है। जिन देशों में राजतंत्र है, वहाँ पर भी राजतंत्र को बहुत मर्यादित कर दिया गया है, अतः लोकतंत्र के विस्तृत अर्थ में यह कहा जा सकता है कि आज विश्व के प्रायः सभी देशों में लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था कायम है। ‘लोकतंत्र’ बड़ा व्यापक शब्द है और इसके कई प्रकार से अर्थ किये जाते हैं। इसे कुछ विद्वान शासन सम्बन्धी विचार मानते हैं, तो कुछ इसे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित कहते हैं। कुछ के लिये यह आर्थिक विषमताओं को दूर करने से सम्बन्धित प्रत्यय है। लोकतंत्र के तीन मुख्य रूप हैं—प्रशासकीय रूप, सामाजिक रूप तथा आर्थिक रूप।

1. प्रशासकीय रूप (Administrative Form) – इस रूप में लोकतंत्र की से विचारधाराएँ हैं । एक विचारधारा के अनुसार यह राज्य का स्वरूप है, तो दूसरी के अनुसार यह एक प्रकार की शासन प्रणाली है। अधिकांश विद्वान दूसरी विचारधारा का समर्थन करते हैं। इसके अतिरिक्त वे इसे एक प्रकार की शासन प्रणाली या प्रशासकीय व्यवस्थामा हैं। इसे प्लेटो तथा अरस्तु ने भी शासन का एक रूप ही समझा था किन्तु वे कहा करते भूतपूर्व थे कि बहुसंख्यक निर्धन होता है, अतः यह मुख्यतः निर्धनों का राज्य है । लोकतंत्र को प्रशासकीय व्यवस्था के रूप में अनेक प्रकार से परिभाषित की गई है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा दी गई निम्नलिखित परिभाषा अत्यन्त प्रसिद्ध है-

“लोकतंत्र जनता का, जनता के लिये और जनता के द्वारा शासन है।”

अब्राहम लिंकन ने जनता को प्रमुखता दी है। लोकतंत्र में शासन जनता के हाथों में ही रहता है। अमेरिका संसार का नवीनतम राष्ट्र किन्तु प्राचीनतम लोकतंत्र है, अतएव वहाँ के एक भूतपूर्व राष्ट्रपति द्वारा दी गई परिभाषा ने लोगों का ध्यान अत्यधिक आकर्षित किया।

लोकतंत्र का सर हेनरी मैन ने भी शासन का रूप किया है। गार्नर महोदय ने लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए कहा कि यह शासन का वह रूप है जो इस सिद्धांत के आधार पर बनाया एवं संचालित किया जाता है कि प्रत्येक वयस्क नागरिक को कम-से-कम इतना अधिकार तो है कि वह शासकों को स्वतंत्रता से चुन सके।

वस्तुतः प्रशासकीय लोकतंत्र प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष- दो प्रकार का होता है। प्रत्येक लोकतंत्र में प्रत्यक्ष रूप से जनता स्वयं शासन करती है। यह शासन का वह रूप है जो इस सिद्धांत के आधार पर बनाया एवं संचालित किया जाता है कि प्रत्येक वयस्क नागरिक को कम-से-कम इतना अधिकार तो है कि वह शासकों को स्वतंत्रता से चुन सके।

वस्तुतः प्रशासकीय लोकतंत्र प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है । प्रत्यक्ष लोकतंत्र में प्रत्यक्ष रूप से जनता स्वयं शासन करती है। यह क्षेत्रफल एवं जनसंख्या की विशालता के कारण प्राय: असम्भव होता है। स्विट्जरलैण्ड में हमें प्रत्यक्ष लोकतंत्र का कुछ आभास मिलता है। जनता अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधियों द्वारा शासन करती है।

2. सामाजिक रूप (Social form) – साधारण रूप से सामाजिक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र ऐसा विचार है कि जो स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व की भावनाओं के आधार पर समाज को गठित करना चाहता है। ध्यान रखना है कि लोकतंत्रीय सामाजिक व्यवस्था आदर्श है जिसकी ओर हमें बढ़ते जाना है और सम्भव है कि अपने पूर्ण रूप में हमें वह भी प्राप्त ही न हो सके। प्राचीन यूनान में एथेन्स को एवं मध्यकाल में फ्लोरेन्स के विषय में हम सकते हैं कि वहाँ के निवासियों ने कुछ अंशों में इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को प्राप्त किया है वर्तमान काल में इंग्लैण्ड और अमेरिका में भी इस आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न हुआ है।

3. आर्थिक रूप (Economic form) – आर्थिक स्वरूप लोकतंत्र का तीसरा रूप है । आर्थिक लोकतंत्र में सम्पूर्ण देश की सम्पत्ति पर सम्पूर्ण देशवासियों का अधिकार स्वीकार किया जाता। इस दृष्टि से व्यक्तियों में यथासम्भव आर्थिक समानता होनी चाहिए। यह समानता सम्पत्ति के उचित वितरण से हो सकती है। सम्पत्ति का वितरण इस प्रकार हो कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार उसके परिश्रम का मूल्य मिले । साम्यवादी देश आर्थिक लोकतंत्र को ही सच्चा मानते हैं और उनकी दृष्टि में आर्थिक विषमता के रहते हुए समानता की बात करना लोकतंत्र का उपहास करना है। भारत में ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व हमें लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था के दर्शन होते हैं।

ऋग्वैदिक काल में आर्यों ने राजतंत्रीय व्यवस्था के साथ-साथ समितियों, सभाओं एवं जनपदों का विकास किया था। यह लोकतंत्रीय परम्परा ईसा पूर्व छठी शताब्दी में और अधिक विकसित रूप में दिखाई पड़ती है। बौद्ध धर्म के उदय के कुछ पूर्व, उत्तरी भारत में अनेक गणतंत्र विद्यमान थे। इन गणतंत्रों के अतिरिक्त सामाजिक व्यवस्था के रूप में भी लोकतंत्र ते भारतीय परिचित थे। ऋग्वैदिक काल में समाज यद्यपि चार वर्णों में बँटा हुआ था किन्तु प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत लोकतंत्र विद्यमान था। आज भी जातियों के अन्तर्गत लोकतंत्रीय ढंग से ही निर्णय लिये जाते हैं। विभिन्न उदाहरणों से ज्ञात होता है कि एक जाति के लोग एक साथ बैठकर परस्पर विचार-विमर्श करके किसी व्यक्ति को दण्ड या पुरस्कार देते हैं । प्राचीन बौद्ध धर्म के सिद्धांत तो जाति-विहीन समाज की रचना के लिये आदर्श प्रस्तुत करते हैं। इस विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय समाज के लिये लोकतंत्र कोई विदेशी या अपरिचित प्रत्यय नहीं है। यह आदर्श तो यहाँ की जलवायु में ओत-प्रोत है। यहाँ की परम्पराएँ जनतंत्रीय आदर्शों के अनुकूल हैं।

भारत मध्यकालीन सातवीं शताब्दी के पश्चात् राजनीतिक दृष्टि से जर्जर हो गया । यह देश हर्ष की मृत्यु के पश्चात् एक झण्डे के नीचे न रहा सका। सम्पूर्ण देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया और ये राज्य आपस में ही छोटी-छोटी बातों पर लड़ने लगे। इसके परिणामस्वरूप भारत की पश्चिमोत्तर सीमा को पार करते हुए मुस्लिम शासकों ने इस देश पर आक्रमण किया और वे यहाँ पर अपना शासन स्थापित करने में सफल हो गये।

भारत में दसवीं शताब्दी के बाद मुसलमानों का शासन प्रारंभ होता है और तभी से भारत मैं लोकतंत्र की परम्पराएँ लुप्त प्राय होती गई। मध्यकाल में एक समय ऐसा आया कि यहाँ के निर्बल मुस्लिम शासकों के हाथों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने धीरे-धीरे शासन की बागडोर अपने हाथ में सँभाल ली और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् यह बागडोर ब्रिटिश सम्राट के हाथ में चली गई। लोकतंत्र की दासता के इस काल में स्वप्न देखना भी अपराध था किन्तु कुछ भारतीय नेता अंग्रेजी के लोकतंत्रीय शासन से संघर्ष करते रहे। 15 अगस्त, 1947 को इसके परिणामस्वरूप भारत स्वतंत्र घोषित हुआ और 26 जनवरी, 1950 को देश में गणतंत्र स्थापित हो गया। भारत का इस दिन से शासन अपने संविधान के आधार पर प्रारम्भ हुआ।

हमारे संविधान की प्रस्तावना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसका विवरण निम्नलिखित है-

 “हम भारतीय लोग भारत की सार्वभौमिक सत्ता-सम्पन्न गणतंत्र की स्थापना के लिये वचनबद्ध हैं और हम इस देश के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय , की व्यवस्था करेंगे, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास एवं आराधना की स्वतंत्रता की व्यवस्था , करेंगे, स्तर और अवसर की समानता का प्रबंध करेंगे तथा राष्ट्र की एकता और व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करते हुए उन सब में भ्रातृत्व की भावना का विकास करेंगे।”

उपरोक्त प्रस्तावना से स्पष्ट होता है कि, भारतीय संविधान ने नागरिकों की स्वतंत्रता एवं समानता की गारंटी की ओर एतदर्थ समुचित न्याय दिलाने का आश्वासन दिया है। संविधान के इन आदर्शों की प्राप्ति के लिये संविधान ने राज्य के लिये कुछ नीति-निर्देशक तत्वों का भी उल्लेख किया है।

धीरे-धीरे भारतीय लोकतंत्र प्रगति कर रहा है किन्तु इसकी प्रगति के मार्ग में कुछ बाधाएँ भी हैं जिनसे हम सबको सतर्क रहना है।

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shubham yadav

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