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एक बालक के शैक्षिक विकास में घर की भूमिका

एक बालक के शैक्षिक विकास में घर की भूमिका
एक बालक के शैक्षिक विकास में घर की भूमिका

एक बालक के शैक्षिक विकास में घर की भूमिका

घर या परिवार : शिक्षा के साधन के रूप में (Home or Family : As an Agency of Education)

पारम्परिक दृष्टि से घर या परिवार को शिक्षा के अनौपचारिक एवं सक्रिय साधन के रूप में देखा गया है । परन्तु समय के बदलाव के साथ-साथ इसके स्वरूप तथा कार्यों में भी बदलाव आया | ऑगबर्न व निमकॉफ (Ogburn & Nimcoff) के अनुसार, अतीत में परिवार के निम्नांकित कार्य थे-

(1) प्रेम-सम्बन्धी, (2) आर्थिक, (3) आर्थिक, (4) रक्षा-सम्बन्धी, (5) मनोरंजन सम्बन्धी, (6) परिवार की प्रतिष्ठा तथा (7) धर्म की स्थिति । परन्तु समय के बदलाव के कारण इसके बहुत से कार्यों को विद्यालय ने अपने हाथ में ले लिया है। साथ ही इसके कुछ कार्यों को अन्य संस्थाओं ने ले लिया। औद्योगीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या के विस्फोट, आवागमन की सुविधाओं आदि ने संयुक्त परिवार प्रणाली के स्थान पर एकाकी परिवारों को जन्म दिया। साथ ही उनके कार्यों में भी महान् परिवर्तन ला दिया। आज बच्चों का लालन-पालन ‘शिशुगृहों’ में होने लगा है जबकि अतीत में यह परिवार का प्रमुख कार्य था । आज अनेक ऐसे विद्यालय हैं जहाँ बच्चे पूरे दिवस वहीं रहते हैं व उनकी घर या परिवार से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। सिनेमा, सर्कस, रेडियो, दूरदर्शन, क्लब आदि ने मनोरंजन के कार्य को अपने हाथ में ले लिया है। कल्याणकारी राज्यों ने बच्चों के लालन-पालन के कार्यों को अपने हाथ में ले लिया है। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के भाग 5 में ‘शिशुओं की देखभाल और शिक्षा’ का दायित्व सरकार को दिया गया है । राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुसार- ” “बच्चों के विकास के विभिन्न पक्षों को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। पौष्टिक आहार व स्वास्थ्य को और बच्चों के सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक और भावनात्मक विकास को समेकित रूप में देखना होगा। इस दृष्टि से शिशुओं की देखभाल और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जायेगा और इसे जहाँ भी सम्भव हो, समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम के साथ जोड़ा जाएगा। प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के सन्दर्भ में शिशुओं की देखभाल के केन्द्र खोले जायेंगे, जिससे अपने छोटे भाई-बहिनों की देख-रेख करने वाली लड़कियों को स्कूल जाने की सुविधा मिल सके।”

इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने परिवार के एक प्रमुख कार्य को अन्य संस्थान को हस्तांतरित कर दिया।

शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का दोहरा दायित्व है। प्रथम, व्यक्ति के प्रति तथा द्वितीय, समाज के प्रति व्यक्ति के प्रति उसका प्रमुख दायित्व, बच्चे का समाजीकरण करना है साथ ही उसके विकास तथा संरक्षण के लिये कार्य करना है। ऐसा वह हस्तान्तरण तथा प्रभाव डालकर करता है । समाज के अंग के रूप में परिवार अपने सदस्यों के लिये शिक्षा की मांग करता है। इसके लिये वह विद्यालयों आदि संस्थाओं की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

पारिवारिक शिक्षा का प्रारम्भ, एक प्रकार से बच्चे को जन्म से पूर्व से ही हो जाता है । इस प्रकार परिवार का प्रमुख कार्य भावी जीवन की आधारशिला का निर्माण करना है। अतः पारिवारिक शिक्षा के कार्य बहु-आयामी होते हैं जिनका संक्षिप्त विवेचन नीचे किया जा रहा है-

(1) सीखने का प्रथम स्थान (Primary Place of Learning)- घर या परिवार प्रथम स्थान हैं, जहाँ बालक बहुत-सी बातें सीखता। रेमॉण्ट (Raymount) के शब्दों में “सामान्य रूप से घर ही वह स्थान है, जहाँ बालक अपनी माँ से चलना, बोलना, मैं और तुम में अन्तर करना, और अपने चारों ओर की वस्तुओं के सभी गुणों को सीखता है।”

(2) नैतिक व सामाजिक शिक्षण (Moral and Social Training)- परिवार नैतिक और सामाजिक प्रशिक्षण का सबसे मुख्य स्थान है। पहले बच्चा भाषा सीखता है । फिर वह भाषा के माध्यम से नैतिक और सामाजिक नियमों को सीखता है। वह परिवार के ढंगों, व्यवहारों और परम्पराओं को अपनाता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, वैसे-वैसे वह अधिक उत्तम, नैतिक और सामाजिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है ।

(3) दूसरों से अनुकूलन (Adjustment with Others) — बालक घर में ही दूसरों से अनुकूलन करने का पहला पाठ सीखता है। वह परिवार के विभिन्न सदस्यों को एक-दूसरे से मेल रखते हुए देखता है। इसका उस पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और वह भी वैसा ही करने का प्रयत्न करता है।

(4) सामाजिक व्यवहार का आधार (Basis of Social Behaviour)- बालक परिवार के सामाजिक जीवन में जो अनुभव प्राप्त करता है, वही भविष्य में उसके सामाजिक व्यवहार का आधार होता है। बचपन में ही वह संघर्ष या सहयोग, भक्ति या भक्तिहीनता के प्रति कुछ प्रवृत्तियों को अपनाता है। जब वह समाज में अपना स्थान प्राप्त करता है, तब वह उन्हें अपने कार्यों द्वारा व्यक्त करता है।

(5) मूल्यों व आदतों का विकास (Cultivation of Values and Ideals)- घर का प्रभाव बालक में कुछ मूल्यों और आदतों का विकास करता है। वह अपने पिता से न्याय, माता से प्रेम और भाई-बहिनों से भ्रातृत्व-भावना सीखता है। घर में बालक—सहायता, सहानुभूति, क्षमता, सच्चाई, परिश्रम और उदारता के आदर्शों को देखता है। वह इन मूल्यों और आदर्शों में से कुछ को अपने भावी जीवन में अपनाता है।

(6) आदतों का निर्माण (Formation of Habits)- बालक में अच्छी या बुरी आदतें घर में ही पड़ती है। वह अपने परिवार के सदस्यों की कुछ आदतों को देखता है और अनजाने ही उनको ग्रहण कर लेता है। बुरी आदतें छूत के रोगों के समान होती हैं। अतः आवश्यक है कि माता-पिता अच्छी आदतों के उदाहरण ही अपने बच्चों के सामने रखें।

(7) पसन्दों व रुचियों का विकास (Development of Tastes and Interest)-  परिवार में ही बालक की पसन्दों और रुचियों का विकास होता है। यदि वह अपने घर में सदैव सुन्दर और आकर्षक वस्तुएँ देखता है, तो उसे निश्चित रूप से ऐसी वस्तुओं में रुचि होगी । वह उन वस्तुओं को पसन्द व नापसन्द करने लगता है, जिन्हें परिवार में पसन्द या नापसन्द किया जाता है।

(8) मानसिक व भावात्मक प्रवृत्ति का निर्माण (Formation of Mental and Emotional Disposition)— घर का वातावरण बालक में मानसिक और भावात्मक प्रवृत्ति का निर्माण करता है; उदाहरणार्थ जिस बालक का पालन-पोषण संगीतकारों के परिवारों में होता है, उनमें संगीत के प्रति मानसिक और भावात्मक प्रवृत्ति का पाया जाना आवश्यक है ।

(9) वैयक्तिकता का विकास (Development of Individuality)— बालक की वैयक्तिकता का विकास घर में होता है। उसके प्रति उसकी माँ का दृष्टिकोण पूर्ण रूप से वैयक्तिक होता है । वह चाहती है कि उसका पुत्र सब बातों में अन्य व्यक्तियों से श्रेष्ठ हो । वह और परिवार के अन्य सदस्य उनकी वैयक्तिकता का विश्लेषण करते हैं और उसे विकसित करने के लिए सभी प्रकार के अवसर देते हैं।

(10) प्रेम की शिक्षा (Education in Love)- माँ केवल बालक से प्रेम ही नहीं करती है, बल्कि उसे प्रेम की शिक्षा भी देती है। माँ के अलावा परिवार के दूसरे सदस्य भी बालक को प्रेम की शिक्षा देते हैं। परिणामतः बालक परिवार, समाज, देश और विश्व से प्रेम करने लगता है। राम और शर्मा (Ram & Sharma) का कथन है—“माता-पिता द्वारा बच्चे को दिया जाने वाला आराम, निःस्वार्थ प्रेम का सर्वोत्तम जीवित उदाहरण प्रस्तुत करता है। “

(11) निःस्वार्थता की शिक्षा (Education in Selflessness)- व्यक्ति सामाजिक प्राणी है इसलिए, उसे निःस्वार्थता की शिक्षा मिलना बहुत आवश्यक है। बालक अपने माता-पिता की निःस्वार्थता को प्रति क्षण देखता है। वे हर मुसीबत को उठाकर बच्चे को अधिक-से-अधिक आराम देने का प्रयत्न करते हैं। परिणाम यह होता है कि बालक भी उनके समान निःस्वार्थ बनने का प्रयास करता है। बोगार्डस (E. S. Bogardus) ने लिखा है- “परिवार का आधार आत्म- बलिदान का सिद्धान्त है। आत्म-बलिदान के ही कारण इसकी महान शक्ति है और इसलिए यह बालकों के सामाजिक प्रशिक्षण का केन्द्र है। “

(12) सहयोग की शिक्षा (Education in Co-operation)- जब बालक बड़ा होकर समझदार बनता है, तब अपने परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे को सहयोग देते हुए देखता है माँ घर का काम-काज करती है, पिता धन कमाकर लाता है, बड़े भाई-बहिन किसी-न-किसी काम में माता-पिता का हाथ बँटाते हैं। बालक इन सबसे सहयोग की शिक्षा ग्रहण करता है। बोसांके (Bosanquet) ने ठीक ही लिखा है—“परिवार ही वह स्थान है, जहाँ प्रत्येक नई पीढ़ी नागरिकता का यह नया पाठ सीखती है कि कोई भी मनुष्य बिना सहयोग के जीवित नहीं रह सकता है।”

(13) परोकार की शिक्षा (Education in Philanthropy) — हर बड़े परिवार में कोई-न-कोई व्यक्ति ऐसा अवश्य होता है जो रोगी या वृद्ध होने के कारण दूसरों पर निर्भर रहता है। उसकी देखरेख घर के दूसरे लोग करते हैं। बालक परोपकार के कार्यों को देखता है । फलतः उसमें परोपकार की भावना जाग्रत होती है। इस सम्बन्ध में शॉ (Alfred J. Shaw) ने लिखा है “परोपकार की भावना का विकास सबसे पहले परिवार में होता है जहाँ बालक परिवार के रोगी, वृद्ध और छोटे सदस्य की सहायता और सेवा को न केवल देखते हैं, वरन् उन्हें अक्सर ऐसा करना भी पड़ता है ।”

(14) सहिष्णुता की शिक्षा (Education in Tolerance)- हर परिवार में हर तरह के व्यक्ति होते हैं किसी को बहुत जल्दी क्रोध आ जाता है। कोई भावुक होता है और कोई उग्र स्वभाव का। इन सबके कारण परिवार का वातावरण दूषित हो सकता है और सभी सदस्य दुखी हो सकते हैं। परिवार में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो शान्त स्वभाव के होते हैं। इनमें सहन-शक्ति या सहिष्णुता भी होती है । इनके प्रयास के फलस्वरूप परिवार में शान्ति बनी रहती है। समझदार बालक सहिष्णुता के इस पाठ को सीखता है ।

(15) आज्ञापालन व अनुशासन की शिक्षा (Education in Obedience and Discipline)- हर परिवार पर किसी-न-किसी व्यक्ति का पूर्ण अधिकार होता है चाहे वह पिता हो या माता या कोई अन्य सदस्य । उसकी आज्ञा परिवार के प्रत्येक सदस्य को माननी पड़ती है । अतः बालक भी आज्ञा-पालन और अनुशासन के गुणों को ग्रहण करता है। कॉम्टे (Auguste Comte) का कथन है—“आज्ञापालन और शासन दोनों रूपों में पारिवारिक जीवन सामाजिक जीवन का सदैव शाश्वत विद्यालय रहेगा ।”

(16) कर्त्तव्य-पालन की शिक्षा (Education for Performance of Duty)- परिवार में बड़े सदस्य अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं। माँ गृहस्थी का काम करना और अपने बच्चों को सुखी रखना अपना कर्त्तव्य समझती है। पिता हर प्रकार से उनकी उचित आवश्यकताओं को पूर्ण करना अपना परम कर्त्तव्य समझते हैं। बड़े भाई-बहिन अपने से छोटे के प्रति अपने कुछ कर्त्तव्य समझते हैं और उनको करते हैं। बालक परिवार के सब सदस्यों में कर्त्तव्यपालन की भावना को देखता और सीखता है।

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shubham yadav

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