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सन्त कबीरदास
कवि का साहित्यिक परिचय और कृतियाँ
कबीरदास
(सन् 1440-1518 ई.)
कबीरदास संक्षिप्त जीवन परिचय
- जन्म: विक्रमी संवत 1455 (सन् 1398 ई ) वाराणसी, (उत्तर प्रदेश, भारत)
- ग्राम: मगहर (उत्तर प्रदेश, भारत)
- मृत्यु: विक्रमी संवत 1551 (सन् 1494 ई )
- कार्यक्षेत्र: कवि, भक्त, (सूत कातकर) कपड़ा बनाना
- राष्ट्रीयता: भारतीय
- भाषा: हिन्दी
- काल: भक्ति काल
- विधा: कविता, दोहा, सबद
- विषय: सामाजिक, आध्यात्मिक
- आन्दोलन: भक्ति आंदोलन
- साहित्यिक आन्दोलन: प्रगतिशील लेखक आन्दोलन
- प्रमुख कृतियाँ: बीजक, साखी, सबद, रमैनी
- प्रभाव: सिद्ध, गोरखनाथ, रामानंद
- इनसे प्रभावित: दादू, नानक, पीपा, हजारी प्रसाद द्विवेदी
एक जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म हिन्दू-परिवार में हुआ था। कहते हैं कि ये एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने इन्हें लोक-लाज के भय से काशी के लहरतारा नामक स्थान पर तालाब के किनारे छोड़ दिया था, जहाँ से नीरू नामक एक जुलाहा एवं उसकी पत्नी नीमा नि:सन्तान होने के कारण इन्हें उठा लाये।
कबीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद हैं, परन्तु अधिकतर विद्वान् इनका जन्म काशी में ही मानते हैं, जिसकी पुष्टि स्वयं कबीर का यह कथन भी करता है—काशी में परगट भये, हैं रामानन्द चेताये। इससे इनके गुरु का नाम भी पता चलता है कि प्रसिद्ध वैष्णव सन्त आचार्य रामानन्द से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। गुरुमन्त्र के रूप में इन्हें ‘राम’ नाम मिला, जो इनकी समग्र भावी साधना का आधार बना।
कबीर की पत्नी का नाम लोई था, जिससे इनके कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक पुत्री उत्पन्न हुई। कबीर बड़े निर्भीक और मस्तमौला स्वभाव के थे। व्यापक देशाटन एवं अनेक साधु-सन्तों के सम्पर्क में आते रहने के कारण इन्हें विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों का ज्ञान प्राप्त हो गया था। ये बड़े सारग्राही एवं प्रतिभाशाली थे। कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है, स्थान-विशेष के प्रभाव से नहीं। अपनी इसी मान्यता को सिद्ध करने के लिए अन्त समय में ये मगहर चले गये; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने वाले को मुक्ति मिलती है, किन्तु मगहर में मरने वाले को नरक। अधिकतर विद्वानों ने माना है कि कबीर की मृत्यु संवत् 1575 ( सन् 1519) में हुई। इसके समर्थन में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-
साहित्यिक सेवाएँ—कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु ये बहुश्रुत होने के साथ-साथ उच्च कोटि की प्रतिभा से सम्पन्न थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी स्पष्ट कहा है कि, ”कविता करना कबीर का लक्ष्य नहीं था, कविता तो उन्हें सेंत-मेंत में मिली वस्तु थी, उनका लक्ष्य लोकहित था।” इस दृष्टि से उनके काव्य में उनके दो रूप दिखाई पड़ते हैं—(1) सुधारक रूप तथा (2) साधक (या भक्त) रूप। उनके बाद वाले रूप में ही उनके सच्चे कवित्व के दर्शन होते हैं।
- कबीर का सुधारक रूप—कबीरदास के समय में हिन्दुओं और मुसलमानों में कटुता चरम सीमा पर थी। कबीर ने इन दोनों को पास लाना चाहा। इसके लिए उन्होंने सामाजिक और धार्मिक दोनों स्तरों पर प्रयास किया।
- कबीर का साधक ( या भक्त) रूप-सुधारक रूप में यदि कबीर में तर्कशक्ति और बुद्धि की प्रखरता देखने को मिलती है तो साधक रूप में उनके भावुक हृदय से मार्मिक साक्षात्कार होता है। कबीर के अनुसार मानव-जीवन की सार्थकता ईश्वर-दर्शन में है। उस ईश्वर को विभिन्न धर्मों के
अनुयायी अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। कृतियाँ-कबीर लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे। यह बात उन्होंने स्वयं कही है– मसि कागद छूयो नहीं, कलम गयो नहिं हाथ। उनके शिष्यों ने उनकी वाणियों का संग्रह ‘बीजक’ नाम से किया, जिसके तीन मुख्य भाग हैं-साखी, सबद (पद), रमैनी। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘बीजक’ का सर्वाधिक प्रामाणिक अंश ‘साखी’ है। इसके बाद सबद’ और अन्त में ‘रमैनी’ का स्थान है।
कबीर दास जी की मुख्य रचनाएं
कबीर दास जी की अन्य रचनाएं:
- साधो, देखो जग बौराना – कबीर
- कथनी-करणी का अंग -कबीर
- करम गति टारै नाहिं टरी – कबीर
- चांणक का अंग – कबीर
- नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार – कबीर
- मोको कहां – कबीर
- रहना नहिं देस बिराना है – कबीर
- दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ – कबीर
- राम बिनु तन को ताप न जाई – कबीर
- हाँ रे! नसरल हटिया उसरी गेलै रे दइवा – कबीर
- हंसा चलल ससुररिया रे, नैहरवा डोलम डोल – कबीर
- अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल – कबीर
- सहज मिले अविनासी / कबीर
- सोना ऐसन देहिया हो संतो भइया – कबीर
- बीत गये दिन भजन बिना रे – कबीर
- चेत करु जोगी, बिलैया मारै मटकी – कबीर
- अवधूता युगन युगन हम योगी – कबीर
- रहली मैं कुबुद्ध संग रहली – कबीर
- कबीर की साखियाँ – कबीर
- बहुरि नहिं आवना या देस – कबीर
- समरथाई का अंग – कबीर
- पाँच ही तत्त के लागल हटिया – कबीर
- बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे – कबीर
- अंखियां तो झाईं परी – कबीर
- कबीर के पद – कबीर
- जीवन-मृतक का अंग – कबीर
- नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार – कबीर
- धोबिया हो बैराग – कबीर
- तोर हीरा हिराइल बा किचड़े में – कबीर
- घर पिछुआरी लोहरवा भैया हो मितवा – कबीर
- सुगवा पिंजरवा छोरि भागा – कबीर
- ननदी गे तैं विषम सोहागिनि – कबीर
- भेष का अंग – कबीर
- सम्रथाई का अंग / कबीर
- मधि का अंग – कबीर
- सतगुर के सँग क्यों न गई री – कबीर
- उपदेश का अंग – कबीर
- करम गति टारै नाहिं टरी – कबीर
- भ्रम-बिधोंसवा का अंग – कबीर
- पतिव्रता का अंग – कबीर
- मोको कहां ढूँढे रे बन्दे – कबीर
- चितावणी का अंग – कबीर
- कामी का अंग – कबीर
- मन का अंग – कबीर
- जर्णा का अंग – कबीर
- निरंजन धन तुम्हरो दरबार – कबीर
- माया का अंग – कबीर
- काहे री नलिनी तू कुमिलानी – कबीर
- गुरुदेव का अंग – कबीर
- नीति के दोहे – कबीर
- बेसास का अंग – कबीर
- सुमिरण का अंग / कबीर
- केहि समुझावौ सब जग अन्धा – कबीर
- मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा – कबीर
- भजो रे भैया राम गोविंद हरी – कबीर
- का लै जैबौ, ससुर घर ऐबौ / कबीर
- सुपने में सांइ मिले – कबीर
- मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै – कबीर
- तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के – कबीर
- मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै – कबीर
- साध-असाध का अंग – कबीर
- दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ – कबीर
- माया महा ठगनी हम जानी – कबीर
- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो – कबीर
- रस का अंग – कबीर
- संगति का अंग – कबीर
- झीनी झीनी बीनी चदरिया – कबीर
- रहना नहिं देस बिराना है – कबीर
- साधो ये मुरदों का गांव – कबीर
- विरह का अंग – कबीर
- रे दिल गाफिल गफलत मत कर – कबीर
- सुमिरण का अंग – कबीर
- मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में – कबीर
- राम बिनु तन को ताप न जाई – कबीर
- तेरा मेरा मनुवां – कबीर
- भ्रम-बिधोंसवा का अंग / कबीर
- साध का अंग – कबीर
- घूँघट के पट – कबीर
- हमन है इश्क मस्ताना – कबीर
- सांच का अंग – कबीर
- सूरातन का अंग – कबीर
- हमन है इश्क मस्ताना / कबीर
- रहना नहिं देस बिराना है / कबीर
- मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया – कबीर
- कबीर की साखियाँ / कबीर
- मुनियाँ पिंजड़ेवाली ना, तेरो सतगुरु है बेपारी – कबीर
- अँधियरवा में ठाढ़ गोरी का करलू / कबीर
- अंखियां तो छाई परी – कबीर
- ऋतु फागुन नियरानी हो / कबीर
- घूँघट के पट – कबीर
- साधु बाबा हो बिषय बिलरवा, दहिया खैलकै मोर – कबीर
- करम गति टारै नाहिं टरी / कबीर
साहित्य में स्थान—
कबीर के जीवन और सन्देश के सदृश ही उनकी कविता भी आडम्बरशून्य है। कविता की यह सादगी ही उसकी बड़ी शक्ति है। न जाने कितने सहृदय तो उनके साधक रूप की अपेक्षा उनके कवि रूप पर मुग्ध हैं और उन्हें हिन्दी के सिद्धहस्त महाकवियों की पंक्ति में अग्र स्थान का अधिकारी मानते हैं।
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