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कबीर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी है। इस कथन के आधार पर कबीरदास के ब्रह्म विषयक चिंतन पर प्रकाश डालिए।
कबीर बहुश्रुत थे। उन्होंने वैष्णव, सूफी, नाथपंथी आदि मतों को ध्यान से सुना और इसके पश्चात् ब्रह्म, जीव आदि के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त निश्चित किए, वे अपने अनुभवों के आधार पर इतना अवश्य है कि कबीर के सिद्धान्तों पर सभी मत-मतान्तरों की छाया पड़ती है। उनके काव्य का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उन्हें तत्कालीन दार्शनिक चिन्तन प्रणाली की सूक्ष्म जानकारी थी। साथ ही स्वानुभूति की उनके पास कोई कमी नहीं थी जिसकी तत्त्वचिन्तन में सबसे अधिक आवश्यकता है। कबीर ने स्वतः इस बात की चेतावनी दे दी है कि कोई उनके गीत को साधारण गीत न समझे क्योंकि इनमें उन्होंने अपना ‘दर्शन’ प्रस्तुत है किया-
तुम्ह जिनि जानौं गीत है, यहु निज ब्रह्म विचार ।
केवल कहि समुझाइया आतम साधन सार ।।
दर्शन के अनेक अंग-उपांग होते हैं तत्त्व मीमांसा उसका प्रमुख अंग है जिसमें जीव, जगत तथा ईश्वर और उनके पारस्परिक सम्बन्धों की मीमांसा की जाती है। यहाँ इन पर क्रमशः विचार किया जाएगा।
(क) ब्रह्म-दर्शन- कबीर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार, अजन्मा अचिन्तय, अव्यक्त और अलक्ष्य है। वह आम, अगोचर और सर्वगापी है। वह अवतार भी नहीं लेता है। वह कुरूप होते हुए भी ऐसा रूपवान है कि संसार की सभी सुन्दर वस्तुएँ उसी से सुन्दरता प्राप्त करती हैं। वह पुस्तक के ज्ञान से परे और वर्णनातीत है-
बाबा अगम अगोचर कैसा, ताते कहि समझाऊँ ऐसा ।
जो दीखै सो है नहि, हैं सो कहा न जाई ।।
उसको अपने में ही खोजना चाहिए-
ज्यों मिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आगि।
तेरा सांई तुझमें, जागि सकै तो जागि।।
(ख) जीव-दर्शन- कबीर जीव को परमात्मा से पृथक नहीं मानते और भारतीय अद्वैतवाद के पोषक हैं। माया का व्यवधान उसे परमात्मा से अलग रखता है किन्तु उसके हटते ही दोनों का मिलन हो जाता है-
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तथ्य कथौ न जानी ।।
(ग) माया- कबीर माया से घृणा करते हैं। उसकी दृष्टि में वह महाठगिनी है। जीव को ब्रह्म से अलग रखना इसका प्रधान कार्य है-
माया महा ठगिन हम जानी।
उनका मायावाद उपनिषद, गीता तथा शंकराचार्य के मायावाद से प्रभावित है।
(घ) प्रकृति या जग दर्शन- कबीर ने इसे चित्रमय नाना रूपात्मक जगत की वास्तविक सत्ता नहीं मानी है। इस प्रसंग में उन्होंने सांख्य के विकास क्रम (महतू, अंधकार, मनु, इन्द्रियाँ तथा तन्मात्राएँ) को ही स्वीकार किया है।
उपसंहार- दर्शन के क्षेत्र में कबीर की अपनी एक सुनिश्चित विचारधारा है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उन्हें अधिकांश रूप में मान्य है, किन्तु एक स्वतन्त्र चिन्तक की भाँति उन्होंने अन्य दर्शनों से भी उपयोगी तत्त्व लेकर युग की आवश्यकता के अनुरूप पूर्ति की है। डॉ० पारसनाथ तिवारी के शब्दों में- “हम यह नहीं कह सकते कि कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा लेकर उन्होने भानुमती का कुनबा जोड़ दिया है। साथ ही हम यह भी मानने के पक्ष में नहीं हैं कि उन्होंने कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि की भाँति दर्शन के क्षेत्र में ऐसी कोई नवीन उपस्थापना प्रस्तुत कर दी है जो चिन्तन की दिशा ही मोड़ दे।….. सीधे सादे शब्द में कभी-कभी वे इतनी बड़ी बात कह लेते हैं जिसे केवल शास्त्रीय पद्धति से सोचने वाला तत्त्वज्ञ उतने सरल रूप में नहीं कह पाता। शास्त्रों के रूढ़ व घिसे पिटे चिन्तन के स्थान पर उन्होंने सहज लोक-धर्म की प्रतिष्ठा की।” इसलिए उनके दर्शन में औपनिषद्कालीन ऋषियों के स्वतंत्र-चिन्तन की सी ताजगी मिलती है।
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