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क्षेत्रवाद (Regionalism in Hindi)
क्षेत्रवाद से आशय एक देश या देश के किसी भाग में उस छोटे से क्षेत्र से हैं, जो आर्थिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक अस्तित्व के लिए जागरुक हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा सकता है कि क्षेत्रीयतावाद का आशय किसी क्षेत्र के लोगों की उस भावना या प्रयत्नों से है जिसके द्वारा वे अपने क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों में वृद्धि चाहते हैं। इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया जाता है –
“क्षेत्रीयतावाद उस अध्ययन से सम्बन्धित है जिसमें कि एक भौगोलिक क्षेत्र तथा मानव व्यवहार के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों पर बल दिया जाता है। इस रूप में क्षेत्रीयवादता एक प्रकार का विश्व-परिस्थिति विज्ञान है, क्योंकि इसकी रुचि विभिन्न क्षेत्रों के बीच तथा एक ही क्षेत्र के विभिन्न अंगों के बीच पाये जाने वाले प्रकार्यात्मक साव्यवी सम्बन्धों में है।” – लुण्डवर्ग
क्षेत्रवाद के लिए उत्तरदायी कारक
सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक शक्तियों का योगदान रहा है। वर्तमान में क्षेत्रवाद को बढ़ाने में भारत में क्षेत्रवाद की भावना को उत्पन्न करने में भौगोलिक, मानव पर्यावरण ऐतिहासिक, निम्नलिखित कारक उत्तरदायी है-
1. ऐतिहासिक कारक
भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि संपूर्ण भारत में प्राचीनकाल से ही अलग-अलग राजाओं का शासन रहा है। उनका अपना इतिहास है, संस्कृति है औरउनमे अपनी सामाजिक सांस्कृतिक एकता की भावना सदैव से ही बलवती रही है। चंद्रगुप्त और अशोक के शासनकाल को छोस दें तो कभी किसी राजा ने संपूर्ण भारत पर शासन नहीं किया है। अंग्रेजा ने भी संपूर्ण भारत पर शासन किया है। इतिहास में ही क्षेत्रीयता की भावना विरासत में दी है।
2. भौगोलिक कारक
भारत में प्रत्येक भौगोलिक भाग की विशेषता उसकी भू-आकृति, जलवायु, मिट्टी और मौसम रही है, जो दूसरे मू-भाग से नहीं मिलती है। इस भौगोलिक पृथकता ने ही उनमे क्षेत्रीयता की भावना को बढ़ाया है। सभी क्षेत्रों की भाषा, धर्म, निवास व्यवस्था प्रथायें, रीति-रिवाज दूसरे क्षेत्रों से पृथक है। इसीलिए क्षेत्रवाद की बावना बलवती हुई है।
3. राजनीतिक कारक
क्षेत्रवाद को जन्म देने में केन्द्र तथा राज्यों में तथा दो राज्यों के मध्य आपस में किसी न किसी विषय पर तनावपूर्ण संबंध बने रहते हैं। इसमें केन्द्र द्वारा दी गयी परियोजनायें, विकास के लिए विशेष क्षेत्रों का चयन, आर्थिक सहायता, पानी और बिजली के बंटवारे को लेकर भी तनाव उत्पन्न हो रहा है। कई राजनैतिक दल इस भावना को हवा देकर अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं।
4. आर्थिक कारक
अर्थ ही सभी झगड़ों की जड़ बना हुआ है। केन्द्र द्वारा कहीं तो बहुत अधिक आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है और कहीं कम। कहीं आज तक गांवों तक सड़कों का निर्माण नहीं हो सका है और कही तो प्रभावशाली नेता व्यक्तिगत प्रयासों से अनुदान लेकर विकास करवा रहे हैं। इस तरह का भेदभाव ही क्षेत्रीयता को जन्म देता है। अविकसित क्षेत्र पृथकता वादी हो रहे हैं।
5. मनोवैज्ञानिक कारक
अपने क्षेत्र के प्रति मानसिक एवं भावात्मक लगाव होना स्वाभाविक है। उसकी उन्नति और विकास सभी चाहते हैं। यही भावना क्षेत्रवाद को जन्म देती है। उपेक्षित क्षेत्रों के लोगों की यह भावना जब ईर्ष्या, द्वेष एवं संघर्ष के रूप में मुखरित होने लगती है तो राष्ट्रीयता का खतरा, पैदा हो जाता है।
6. भाषावाद क्षेत्रीय
भाषा ने भी इस समस्या को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अपने क्षेत्र की भाषा के विकास के लिए या उसको राष्ट्रीय स्तर पर लाने के लिए भी इस भावना का उदय होता है।
7. सामाजिक सांस्कृतिक कारक
क्षेत्रवाद के जन्म में सामाजिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भाषा और संस्कृति ने क्षेत्रवाद बढ़ाया है। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध इसी भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता को लेकर भी क्षेत्रवाद पनपा है
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