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छायावाद
छायावाद का समय सन् 1918 से 1936 तक माना जाता है। यह आधुनिक हिन्दी कविता का तृतीय उत्थान काल है। द्विवेदी जी की साहित्यिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन हुआ। यह परिवर्तन द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता एवं स्थूल भावना के फलस्वरूप हुआ। द्विवेदी युग का काव्य कुछ विशेष सीमाओं से जकड़ा हुआ था। रीतिकालीन काव्य की परम्परा समाप्त हो चुकी थी, फलतः काव्य में नीरसता आ गयी। छायावाद के जन्म का एक और कारण तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ थीं। सन् 1914 में प्रथम महायुद्ध हुआ, भीषण रक्तपात हुआ। परिणामस्वरूप समाज में दुःख, वेदना एवं निराशा का साम्राज्य छा गया। उसी समय टैगोर ने गीतांजलि में रहस्य एवं वेदना को महत्त्व दिया। धीरे-धीरे राजनीतिक एवं सामाजिक बन्धनों को तोड़ने के साथ-साथ साहित्य-रचना में भी परिवर्तन हुए। कवियों ने स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह किया और कविता समष्टि से हटकर व्यष्टि में आ गई।
इस युग में कविता के विषयों में विस्तार हुआ, अभिव्यंजना के क्षेत्र में भाषा का परिमार्जन, शुद्ध तत्सम शब्दों का प्रयोग, अलंकार शैली, प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता अन्योक्ति पद्धति का आश्रय, शब्द-सौन्दर्य आदि को स्थान मिला। उषा, सन्ध्या, प्रभात, किसान, मैं, तुम, रेल, बादल, पहाड़ आदि विषयों को लेकर कविताएँ हुई। छायावादी युग के कवियों ने द्विवेदी युग की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया, द्विवेदी युग में मूलतः चार अभाव थे- (1) द्विवेदी युग के कवियों का भाव क्षेत्र सीमित था। कुछ गिने-चुने विषय थे जैसे देश-प्रेम, राष्ट्रीयता, शोषितों के प्रति सहानुभूति, नारी के प्रति उच्च भावना आदि। छायावादी कवियों ने इस सीमित भाव क्षेत्र का विस्तार किया। उन्होंने नवीन विषयों पर कविता करके स्थूल के प्रति सूक्ष्म को महत्त्व दिया । (2) द्विवेदी युग में कविता वस्तुगत थी। छायावाद में कविता की प्रवृत्ति आत्मगत हो गयी। (3) द्विवेदी युगीन कविता उपदेशात्मक थी और वे लोग अविद्या को मानकर चले। छायावादी दृष्टि को प्रश्रय मिला तथा लक्षणा और व्यंजना को महत्त्व दिया गया। (4) द्विवेदी युगीन कविता युग में सौन्दर्यवादी में इतिवृत्तात्मकता थी। छायावादी कवियों ने इसे दूर करने की कल्पना को प्रधानता दी।
छायावाद की परिभाषा
छायावाद की परिभाषा में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी परिभाषायें दी हैं जो इस प्रकार हैं-
(1) जयशंकर प्रसाद (युग-प्रवर्त्तक) के अनुसार- “कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दर बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।”
(2) डॉ० रामकुमार वर्मा के अनुसार- “परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है। आत्मा की छाया परमात्मा में। यही छायावाद है।”
(3) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों से समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहाँ उसका सम्बन्ध काव्यवस्तु से होता है। – छायावाद का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।”
(4) महादेवी वर्मा के अनुसार- “छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद है प्रकृति में चेतना का आरोप सूक्ष्म सौन्दर्य सत्ता का उद्घाटन एवं असीम के प्रति अनुरागमय आत्मविसर्जन की प्रवृत्तियों का गीतात्मक एवं नवीन शैली में व्यक्त रूप छायावाद है।”
(5) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार- “मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्ति सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भाव मेरे विचार में छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।”
छायावाद काव्य की मुख्य विशेषताएँ
छायावादी काव्य की विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-भावपक्ष की विशेषतायें एवं कलापक्ष की विशेषताएँ ।
(I) भावपक्ष की विशेषताएँ
भावपक्ष की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. व्यक्तिवाद की प्रधानता- द्विवेदी युग की कविता वस्तुगत थी लेकिन छायावादी, कविता वस्तुगत न होकर आत्मगत या रागात्मक थी। वैयक्तिकता के फलस्वरूप छायावादी काव्य में स्वच्छन्दतावाद की उद्भावना हुई। इस युग में व्यक्तिगत सुख-दुःख की अभिव्यक्ति जोरों से हुई, विश्व की व्यथा से स्वयं व्यथित होने की जगह वह अपनी व्यथा से विश्व को व्यथित देखने लगे। समाज के दुःख में वह अपने दुःख की कल्पना करने लगे। इस प्रकार इस युग में व्यक्तिवादी विचारधारा को बल मिला। प्रसाद का आँसू इस भावना का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करता है।
रो-रोकर सिसक-सिसककर कहता मैं करुण कहानी ।
तुम सुमन नोचते फिरते करते जानी अनजानी।।
2. प्रकृति-चित्रण- छायावादी कवियों का प्रकृति चित्रण रीति युग में सर्वथा भिन्न है। इन कवियों ने प्रकृति के आलम्बन रूप का चित्रण किया। रीतिकालीन ऐन्द्रियता के स्थान पर सात्त्विकता को स्थान मिला। छायावादी कवियों का मन प्रकृति में सराबोर है। उन्होंने प्रकृति में सूक्ष्मता का समावेश किया। प्रकृति का नारी रूप में चित्रण तथा प्रकृति पर चेतना का आरोप (मानवीकरण) किया है।
3. सौन्दर्य भावना- नारी सौन्दर्य के चित्रण में छायावादी कवियों की उद्भावनाएँ सर्वथा मौलिक हैं। उन्होंने स्थूलता और अश्लीलता के स्थान पर सूक्ष्मता और सात्विकता स्वीकार की। प्रसाद ने कामायनी में श्रद्धा के सौन्दर्य का चित्रण अपनी सात्विकता से किया है-
नील परिधान बीच सुकुमार, खिल रहा मृदुल अधखिला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग ।।
4. राष्ट्र-प्रेम- छायावादी काव्य राष्ट्रीय जागरण में पल्लवित हो रहा था फलतः स्वदेश प्रेम की भावना का बढ़ना निश्चित था। वह युग की पुकार के साथ चलता रहा। प्रसाद जी ने ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में लिखा है-
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा,
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
5. रहस्यवादी भावना- छायावाद के युग का कवि अन्तर्मुखी था, बहिर्मुखी प्रवृत्ति की अपेक्षा अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की ओर झुकाव ही रहस्यवाद का प्रतीक है लेकिन इन कवियों में कबीर एवं जायसी सी गहराई नहीं थी। इस दृष्टि से महादेवी जी का गीत “तुझे मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या” रहस्यवाद का उत्कृष्ट उदाहरण हो सकता है।
6. दुःख एवं निराशा- छायावाद का मूल दुःख है और वह दुःख कहीं-कहीं निराशा में बदल गया है। वेदना एवं दुःख का यह प्रवाह स्वाभाविक मनोभावों को लेकर चला है। अतः इस युग में निराला को उभरने का अच्छा मौका मिला।
7. स्वच्छन्दतावाद- इस युग में कवियों ने किसी बन्धन को स्वीकार नहीं किया। पुरानी घिसी-पिटी परिपाटी से हटकर काव्य की रचना की फलतः काव्य विषय-वस्तु का दायरा असीमित हुआ और विचारों में आमूल परिवर्तन हुआ।
8. मानवतावादी दृष्टिकोण- छायावादी कवियों ने मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर सब में समानता लाने का प्रयत्न किया। युग-युग की बन्दी नारी की स्वतन्त्रता का आह्वान किया। बिना किसी भेदभाव के मानव को चाहे वह किसी वर्ग का हो अपनी कविताओं का विषय बनाया, किसान, मजदूर तथा भिखारिन तक को अपने काव्य का विषय बनाया तथा मानव को संसार की सुन्दरतम् वस्तु माना। इस सम्बन्ध में पन्त जी ने लिखा है-
“सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर मानव तुम सबसे सुन्दरतम् । “
(II) कलापक्ष की विशेषताएँ
कलापक्ष की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. प्रतीकात्मकता- प्रतीकात्मकता छायावादी कवियों का स्वर है। उन्होंने प्रकृति को अपने व्यक्तिगत जीवन का प्रतीक माना है। उनकी रचनाओं में लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम का प्रतीक बनकर आया है।
2. लाक्षणिकता एवं ध्वन्यात्मकता- इस युग के कवियों ने लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग किया है। द्विवेदी युग में अभिधा की प्रधानता थी, परन्तु छायावाद में लक्षणों और व्यञ्जना को प्रधानता मिली। इन कवियों ने छन्द के बन्धन को स्वीकार किया। तथा मुक्त छन्द की नवीन शैली में रचनाएँ कीं।
3. संगीतात्मकता- गेयता की दृष्टि से छायावादी कवियों ने अद्भुत सफलता प्राप्त की है। गीतकाव्य के लिए जिस सौन्दर्यवृत्ति और स्वानुभूति की आवश्यकता होती है वह युग के विषयों में विद्यमान थी।
4. अलंकार विधान- छायावादी कवियों ने नये-नये अलंकारों का खुलकर प्रयोग किया है इसमें मानवीकरण तथा विशेषण विपर्यय मुख्य हैं। अन्य अलंकारों में उपमा, रूपक, उल्लेख, सन्देह, व्यतिरेक, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग किया है।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि छायावाद वैयक्तिक अनुभूति, आत्माभिव्यंजना, वेदना, निराशा, देश-प्रेम, मानवतावाद एवं सौन्दर्य का समन्वित रूप है। इस युग के कवियों ने कविता को गेयता के गुण से सजाकर एक नई दिशा दी है।
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- जयशंकर प्रसाद जी प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
- जयशंकर प्रसाद के काव्य की विशेषताएँ बताइए।
- जयशंकर प्रसाद जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना का परिचय दीजिए।
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