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जायसी का भावपक्ष जितना प्रभावशाली है उतना कला पक्ष भी प्रस्तुत कथन की समीक्षा कीजिए।
भावपक्ष- जायसी के प्रादुर्भाव के समय देश के अन्दर का साम्प्रदायिक संघर्ष कुछ कम हो चला था। साधारण जनता राम और रहीम की एकता को स्वीकार कर चुकी थी। महान सुधारक कवि और महात्मा कबीर के ज्ञानोपदेश के कारण हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के निकट आ चुके थे। पहली जैसी धार्मिक असहिष्णुता उनमें अब नहीं रही थी। पारस्परिक विचार-विनिमय करने लगे थे। वे सामूहिक रूप में ब्रह्म की प्राप्ति के विचार भी करने लगे थे। देश के कोने-कोने में भक्ति की भावना का स्रोत उमड़ रहा था। जयदेव और विद्यापति के पदों को गा-गाकर सगुणोपासक अपनी भक्ति भावना का परिचय दे रहे थे। चैतन्य महाप्रभु, बल्लभाचार्य और रामानन्द के द्वारा प्रेम-प्रधान वैष्णव धर्म का प्रचार कर वाम मार्ग तथा शक्तिमत का विरोध किया जा रहा था, जिससे कुछ समझदार मुसलमान भी शराब, कबाब, पशुहिंसा आदि के विरोधी हो गये थे। सूफी कवि प्रेम की पीर से युक्त काव्य-रचना में लीन थे और इश्क हकीकी का पाठ पढ़ा रहे थे, परन्तु इतना सब होते हुए भी हृदय के रागात्मक तत्त्वों में एकता उत्पन्न न हो सकी थी। ऊपरी भेद-भाव अवश्य कुछ कम हुआ था।
ऐसे समय में कुछ सूफी कवि हिन्दू पात्र – पात्रियों को लेकर प्रेम-पीर की कहानियों सहित साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए और खण्डन को छोड़कर प्रेम-तत्त्व की प्रधानता को ही उन्होंने समाज के समक्ष रखा। जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं को प्रेम-प्रधान घटनाओं में रखकर हिन्दू और मुसलमान दोनों में रागात्मक सम्बन्ध स्थापित किया। जायसी उन्हीं कवियों में एक थे जिन्होंने अपने पद्मावत में चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावत की प्रेम कथा का वर्णन किया है। जायसी ने भी अपना प्रेम आख्यान अन्य सूफी कवियों की भाँति भारतीय चरित-काव्यों की सर्गबद्ध शैली में न लिखकर फारसी के मसनवी ढंग पर भी लिखा है, उसमें लौकिक कथा में आध्यात्मिक पक्ष ही प्रधान होता है और सारी कथा एक ही मसनवी छन्द में होती है तथा कथा के प्रारम्भ में ईश-वन्दना तथा तत्कालीन राजा की वन्दना होना आवश्यक है।
जायसी के पद्मावत की प्रेमकथा का वर्णन यद्यपि लौकिक पक्ष में है, परन्तु उसका आधार में आध्यात्मिक है। ईश्वर की प्राप्ति में प्रेम मार्ग के साधक को साधना मार्ग में जो कठिनाइयाँ होती हैं, उनका अच्छा चित्रण इस काव्य में है। प्रेम-प्रेमिका के वियोग में उसे प्राप्त करने की लालसा में भटकता है और अपने-अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए जिस भी कठिनाई का सामना करना पड़े वह उसे उत्साहपूर्वक सहने की सिद्धता उत्पन्न करता है। जायसी ने अपने पद्मावत के अन्त में इस बात को स्पष्ट कर दिया है
“तन चितउर मन राजा कीन्हा । हिल सिंहल बुद्धि पझिनि चीन्हा ।।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा। बिना गुरु जगत को निर्गुन पावा।।
नागमती यह दुनिया धन्धा वाचा सोइ जो नहिं को निर्गुन पावा।।
राघव दूत कथा सैतानू । माया अलाउद्दीन सुलतानू ।
‘पद्मावत’ की कथा पूर्वार्द्ध में एक प्रेम-गाथा है, परन्तु उत्तरार्द्ध की कथा ऐतिहासिक आधार पर है। जायसी ने कथा का निर्वाह इस योग्यता से किया है कि अलौकिक भावना, ऐतिहासिक भावना पर अन्योक्ति रूप से घटित हो जाय परन्तु कहीं-कहीं पर जायसी का यह आध्यात्मिक पक्ष उथला हो गया है। कथा आध्यात्मिकता की हँसी उड़ती है और आध्यात्मिकता से कहानी का आदर्श गिर गया है। केवल एक पक्षी के द्वारा किसी सुन्दर रमणी के रूप की प्रशंसा करने पर प्रेममयी परिणीता पत्नी छोड़कर कुमारी कन्या पर लपकने वाले रतनसेन को हम एक चरित्र भ्रष्ट नायक ही कह सकते हैं। हाँ, यदि उसका पहले कभी पद्मावत से परिचय हुआ होता और वह पद्मिनी को नागमती की अपेक्षा इतना शीलवान पाता कि वास्तव में पद्मिनी ईश्वर-तुल्य होती और नागमती दुनियाँ धन्धा ही प्रतीत होती तो हम रतनसेन के चरित्र की दृढ़ता को मान जाते और उसका चरित्र प्रशंसनीय हो जाता। जो नागमती आदर्श भारतीय रमणी के रूप में पति वियोग में वन-वन मे घूमती है और अपने आदर्श को नहीं गिराती है, उसे दुनियाँ का धन्धा कहना कम से कम हमें उपयुक्त नहीं जँचता। यदि जायसी नागमती को दुनियाँ धन्धा ही समझते थे और पद्मिनी को आध्यात्मिक पक्ष में ब्रह्म, तो फिर ईश्वर की प्राप्ति के पश्चात् दुनियाँ के धन्धे को पुनः स्वीकार कर लेना अच्छा प्रतीत नहीं होता। उस समय वह गुरु (तोता) अपनी शिक्षा क्यों नहीं देता। इसलिए अध्यात्मवाद की आड़ में समाज में ऐसी प्रेम-कथा (जिसमें नायक का नैतिक पतन हो जाय) की मान्यता तथा प्रचार जायसी के मस्तिष्क की चतुरता ही कहा जा सकता है? यदि जायसी नागमती को कुलटा या चरित्र-भ्रष्ट रमणी के रूप में चित्रित करते तो नागमती (दुनियाँ धन्धा) से विरक्त होकर ईश्वर रूपी पट्टिमनी का प्राप्त करना सच्चा अध्यात्मवाद होता है। वैसे जहाँ तक साधक की साधना और सिद्धान्त का सम्बन्ध है वहाँ जायसी खरे उतरे हैं जैसे-
ओहि मिलन जो पहुँचे कोई। तब हम कहब पुरुष भल सोइ ।।
है आगे परवत के बाटा। विषम अपार अगम सुठि घाटा ।।
बिच-बिच नदी खोह औ नारा। ठाँमहि ठाम बैठ बंटमारा।।
जब पार्वती अप्सरा का रूप धरकर रतनसेन के प्रेम की परीक्षा करती है, तब रतनसेन बड़ा प्रशंसनीय उत्तर देता है। वह कहता है कि-
भलेहि रंग अछरी तोर राता। मोहिं दुसर सो भाव न बाता।
यहाँ सेव्य-सेवक भाव में रतनसेन स्वयं ब्रह्म बन जाता है और कई स्त्रियों का अपास्य देव बनना चाहता है, जो हास्यास्पद ही है।
जायसी का विरह-वर्णन अच्छा बन पड़ा है। विरह में आकुल नागमती के आँसुओं से समस्त सृष्टि भीगी जान पड़ती है-
कुहकि-कुहकि जस कोयल रोई। रकत आँसु घुँघची बन बोई ।।
जहँ-तहँ ठाड़ होई वनवासी। तहँ-तहँ होहि घुँघचि कै रासी ।।
बूँद-बूँद में जानहु ओऊ । गुँजा गुँजि करै पिउ पीऊ ।।
नागमती के रुदन से वन-पक्षियों को नींद नहीं आती। यह स्वाभाविक ही है-
‘फिर-फिर रोव कोई नहिं डोला। आधी रात विहंगम बोला।
तू फिरि-फिरि दाहे सब पाँखी। केहि दुख रैनि न लावसि आँखी।’
विरह से व्यथित नागमती जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों से सन्देश भेजती है और विरह-वेदना, कोमलता, गम्भीरता और सरलता सब कुछ एक ही स्थान पर प्रकट कर उनसे सहानुभूति की भावना से कहती है कि-
“पिउ से कहेउ संदेसड़ा, है भौंरा !
हे काग। तुव धनि विरहा जरि मुई, तेहिक धुँवा हम लाग ।।
जायसी का प्रकृति-वर्णन, ऋतु – वर्णन बारहमासा भी अच्छा है।
चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा साजा विरह दुन्द दल बाजा।
X X X
पुष्प नखत सिर ऊसर आवा। हौं बिनु नाँह मंदिर का छावा।
जायसी को ऐतिहासिक तथा भौगोलिक ज्ञान कम था। उनका शास्त्रीय ज्ञान भी कम था। यही कारण है कि उनके काव्य में यत्र-तत्र कुछ भूलें पाई जाती हैं।
कलापक्ष- जायसी ने बोलचाल की सीधी-सीधी ठेठ-अवधी में ही अपनी काव्य-धारा को प्रवाहित किया है। उनको अधिक भाषाओं का ज्ञान न था। वे केवल तत्कालीन लोक भाषा को ही अपना सके। परिमार्जित भाषा में माधुर्य-भाव की प्रधानता के साथ-साथ स्वाभाविकता और कोमलता का पुट जायसी की कला-निपुणता का द्योतक है। शास्त्रीय ज्ञान के अभाव से व्याकरण की भूलें जैसे ‘मेघ’ को स्त्रीलिंग माना है। यह जायसी जैसे कलाकार के लिये नगण्य है। आपने कुछ विशेष शब्दों का भी प्रयोग किया जैसे ‘सरह’ (शलभ) के अर्थ में, भुआल (भूपाल) के अर्थ में, सेंदूर (गुलाल) के अर्थ में ‘विलास’ (विश्वासघात) के अर्थ में। भाषा में यद्यपि प्रवाह
है परन्तु कहीं-कहीं पर समास-पदावली का भी प्रयोग किया है। जायसी ने दोहों और चौपाइयों में परिमित शब्दों में रचना की है। कहीं-कहीं आपकी रचना में छन्दो-भंग भी है। शब्दों का तोड़-मरोड़ आपने नहीं किया है। आपने मुहावरों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया है, जैसे :
‘लागै केहि के गले’, ‘तुरग रोग हरि माथे जाएँ।
आपने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति आदि अलंकारों का अच्छा समावेश किया। अलंकारों के प्रयोग में मौलिकता नहीं अपितु परम्परागत अलंकारों का प्रयोग ही इन्होंने किया है।
जायसी के अलंकार रस- परिपाक में सहायक हुए हैं। विषादन अलंकार का एक बड़ा ही सुन्दर चित्र जायसी ने प्रस्तुत किया है। एक विरहिणी मन बहलाव के लिए वीणा बजाती है, जिससे चन्द्रमा की सवारी का मृग ठंहर जाता है। रात बढ़ती है और उसके साथ ही साथ विरहिणी का विरह भी बढ़ता है। इस विरह से बचने के लिए सिंह का चित्र खींचकर मृग को भगाने का उपक्रम होता है-
गहे बीन मकु रैन बिहाई । संसि वाहन तहँ रहे ओनाई ।।
पुनि घनि सिंह उरै लागे। ऐसेहि बिथा रैनि सब जागे ।।
श्लेष और मुद्रा का मिश्रित निम्नलिखित उदाहरण बड़ा ही सुन्दर है-
धौरी, पंडुक कहु पिउ नाउं । जो चितरीख न दूसर ठाऊँ ।।
जाहि क्या होइ पिय कठ लावा। करै मेराव सोइ गौड़ावा ।।
भावपक्ष एवं कलापक्ष की दृष्टि से जायसी का काव्य अनुपम है। इसी कारण उनकी गणना श्रेष्ठ कवियों में की जाती है।
- जायसी की काव्यगत विशेषताएं
- प्रेमाश्रयी काव्यधारा की विशेषताएँ
- जायसी और उसके पद्मावत का स्थान एवं महत्त्व
- कबीर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी है।
- कबीर की भक्ति भावना का परिचय दीजिए।
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