अनुक्रम (Contents)
जायसी का रहस्यवाद
जायसी का रहस्यवाद सूफीमत से प्रभावित है। सूफीमत स्वयं प्रेम-प्रधान होने के कारण भारतीय ज्ञान-प्रधान अद्वैतवाद का रसात्मक (भावात्मक) रूप है। सूफीमत में ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में की जाती है। इस प्रकार के प्रेम-प्रणय को ‘माधुर्यभाव’ कहा जाता है। मीरा की भक्ति और रहस्य भावना माधुर्य भाव की ही थी। ईसाई सन्तों में भी सैफो, सेंटोटेरसा जैसी भक्तियों ने ईश्वर की उपासना पति रूप में ही की है। अद्वैतवाद के अनुसार एक और आत्मा और परमात्मा का ऐक्य भाव समाविष्ट है तो दूसरी ओर ब्रह्म और जगत की एकता अन्तर्भूत है। अपनी साधना के लिए भक्त और सन्त पहले पक्ष को महत्त्व देते हैं, परन्तु दूसरे पक्ष की अनुभूति के बिना उसकी भावना की व्यापकता तथा पूर्णता नहीं मिलती। प्रकृति की प्रत्येक विभूति में संसार के प्रत्येक कार्य व्यापार में उन्हें उस परोक्ष सत्ता का संकेत और आभास मिलता है।
अद्वैतवाद के मूल में एक दार्शनिक सिद्धान्त है वह तत्त्वचिंतन का फल है। वह ज्ञान क्षेत्र की वस्तु है लेकिन जब उसका आधार लेकर कल्पना या भावना उठ खड़ी होती है तब उच्चकोटि के भावात्मक रहस्यवाद की सृष्टि होती है। रहस्यवाद दो प्रकार का होता है- (1) साधनात्मक रहस्यवाद और (2) भावात्मक रहस्यवाद।
भारतीय योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद । जायसी से हमें दोनों प्रकार की रहस्य-भावना के दर्शन होते हैं, पहिले जायसी की साधनात्मक रहस्य भावना पर विचार किया जाता है।
जायसी की साधनात्मक रहस्य भावना
पद्मावत में हम स्थान-स्थान पर इड़ा पिंगला, नाड़ियों की चर्चा पाते हैं, दशमद्वार, वज्रासन, तारी लगना आदि भी प्रसंगानुकूल उपस्थित किये गये हैं। गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोपीचन्द्र, मैनावती आदि के भी प्रसंग हैं किन्तु ऐसे स्थलों से यह स्पष्ट झलकता है कि कवि का मन इसमें रमा नहीं है। कवि इस साधनात्मक क्षेत्र के बाह्यांग से ही परिचित है, भीतर घुसकर नहीं देख सकता है। कदाचित् इसमें उसका पूर्ण विश्वास भी नहीं है। अपने ग्रंथ ‘अखरावट’ में अवश्य उन्होंने कई स्थलों पर रहस्य-साधनाओं का उल्लेख किया है। एक स्थल पर दो स्पष्ट शब्दों में हठयोग की साधना का आदेश दिया है :
छाँड़हु घीउ औ मछरी मांसू। सूखे भोजन करहु गरासू ।।
दूध, मांसु, घिउ कस न अहारू। रोटी सानि करहू फरहारू ।।
एहि विधि काम घटावहु काया । काम क्रोध तिसना मद माया ।।
तब बैठहु बज्रासन मारी । गहि सुखमना पिंगला नारी ।।
भावात्मक रहस्य भावना
जायसी के पूर्व के सूफी कवियों की रचनाओं में हमें भावात्मक रहस्यवाद के दर्शन होते हैं लेकिन जायसी इन सबमें सर्वश्रेष्ठ हैं। जायसी के रहस्यवाद के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए पं० रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुन्दर अद्वितीय रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही उच्चकोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत् के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप – माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों का ‘पुरुष’ के समागम के हेतु प्रकृति के शृंगार, उत्कण्ठा या विरह विकलता के रूप में अनुभव करते हैं। दूसरे प्रकार की भावना ‘पद्मावत’ में अधिक मिलती है।”
जायसी ने भारतीय पद्धति के अनुरूप ही प्रकृति के समरूप एवं व्यापारों को देखा है और उनमें उस रहस्यमयी सत्ता का आभास उपस्थित कराया है। पद्मावत की दीप्ति और सौन्दर्य के द्वारा वह उस परोक्ष ज्योति और सौन्दर्य की ओर संकेत करते हैं।
रवि, ससि, नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ।।
जहँ जहँ विहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकी जोति परगसी।।
X X X
नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नीर शरीर ।
हँसत जो देखा हँस भा, दसन जोति नग हीर।।
जायसी के उस ईश्वर की रूप-छटा को प्रकृति के नानारूपों में तो देखा ही है लेकिन कहीं-कहीं वे सिद्धों और योगियों के अनुकरण पर उसे हृदय के भीतर भी बतलाते हुए देखे जा सकते हैं-
पिउ हिरदय महँ भेट न होई। को रे मिलाव, कहौं केहि रोई।।
मानस (हृदय) के भीतर उस प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न कैसे अपरिमित आनन्द की व्यंजना जायसी ने की है- वह नीचे की पंक्तियों में देखी जा सकती है-
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हुलास पुरइनि होई छावा ।।
अंधियान रैन-मसि छुटी। भा भिनसार किरन रवि फूटी ।।
कँवल बिगस तब विहँसी देही। भीतर दसन होई रस लेही ।।
जायसी का मत है कि पहिले ब्रह्म और जीव, पृथ्वी और स्वर्ग दोनों एक थे परन्तु न मालूम किसने बीच में भेद डालकर उनमें बिछोह करा दिया-
धरती सरग मिले हुत दोऊ। केई निनार कै दीन्ह बिछोहू ।
इसीलिए समस्त महाभूत उसी तक पहुँचने का निरन्तर प्रयत्न करते हैं। सफल न होने पर इसी में तत्पर रहते हैं-
धाई जो बाजा कै मन साधा मारा चक्र भएउ दुइ आधा ।।
चाँद सुरुज ओर नखत तराई। तेहि डर अंतरिख फिरहिं सदाई।।
पौन जाई तहँ पहुँचै चाहा। मारा तैस लोटि भुई रहा ।।
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धूआँ उठा, उठि बीच बिलाना।।
पानि उठा उठि जान न छूआ बहुरा रोइ आइ भूँइ चूआ ।।
सम्पूर्ण सृष्टि उसी के अनुराग में डूबी दिखाई देती है-
सूरज बूढ़ि उठा होई राता। औ मजीठ टेसू बन राता ।।
भा बसन्त राती बनसपती। और राते सब जोगी जती ।।
पुहुप जो भीजि भएज सब गेरू। औ राते सब पंखि पखेरू ।।
राती, सती, अगिनि सक काया। गगन मेघ राते तेहि छाया ।।
सायं प्रभात न जाने कितने लोग मेघ खण्डों को रक्तवर्ण का होते देखते हैं, वे किसके रंग से रँगे हैं, इसे कोई जायसी सरीखा रहस्यदर्शी भावुक ही समझ सकता है। कवि की दृष्टि में संसार का प्रत्येक व्यापार केवल उसी के सामीप्य की प्राति का प्रयत्न है-
सरवर रुप विमोहा, हिये हिलोरहिं लेइ ।।
पाँव छुवै मकु पावों, एहि किसी लहरहिं दे ।।
वह दिव्य आलोक तो सर्वत्र व्याप्त है, फिर भी दूर क्यों प्रतीत होता है-
चख महँ नियर निहारत दूरी। सब घट माँह रहा भर पूरी ।।
कवि कहीं-कहीं इतना भावुक हो उठता है कि उसको सर्वत्र उसी सत्ता की झलक दिखाई ने लगती है-
परगट गुपुत सकल मह, पूरि रहा सो नाँव ।
लहँ देखों तहँ औहि, दूसर नहिं जहँ जाँव।।
और उस तक पहुँचने का मार्ग भी सरल है। उसे जो प्रेम के साथ देखता है। उसे वह दिखाई दे जाता है-
जो ओहि हेरत जाई हेराई। सो पावै अमृत फल खाई ।।
इस अद्वैती रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं-कहीं उस रहस्यवाद में भी फँस गए हैं। जिसे पाश्चात्य विद्वान ‘झूठा रहस्यवाद’ (Pseudo-mysticism) कहते हैं। ऐसे स्थानों पर उन्होंने नाथपंथी योगियों के प्रभाव से इस साधना की हठयोगी क्रियाओं को पूर्ण माना है :
नौ पौरी तेहि गढ़ मँझियारा। औ तहँ फिरहि पाँच कोटवारा ।।
दसवै दुआर गुपुत एक ताका अगम चढ़ाव वाट सुचि बाँका ।।
भेदै जाइ सोइ वंह घाटी। जो लहि भेद चढ़ होड़ चाँटी ।।
चित्तौड़गढ़ के वर्णन में कवि ने इसी प्रकार शरीर स्थित सातखण्ड और नौ भँवरी का वर्णन किया है-
सातौ पँवरी कनक-केवारा। सातों पर बाजहिं घरियारा ।।
सात रंग तिन्ह सातौँ पँवारी। तब तिन्ह चढ़, फिरै नव भँवरी ।।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जायसी की रहस्य-भावना बड़ी उच्चकोटि की है। वह सृष्टि के प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक व्यापार में और प्रत्येक घटना में उसी सत्ता की झलक देखते हैं। प्रकृति का प्रत्येक कण उनको उसी के वियोग में व्यथित तथा उससे मिलने को उतावला हुआ दृष्टिगोचर होता है। अतः जायसी के रहस्यवाद के लिए शुक्ल जी का निम्न कथन सत्य ही है।
“हिन्दी कवियों में यदि कहीं रमणीय और अद्वैती रहस्यवाद है, तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही ऊँची कोटि की है। वे सूफियों की भक्ति-भावना अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप-माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और क्रिया-व्यापारों को पुरुष के समागम के हेतु प्रकृति के शृंगार, उत्कण्ठा या विरह-विकलता के रूप में अनुरूप करते हैं।”
- जायसी की काव्यगत विशेषताएं
- प्रेमाश्रयी काव्यधारा की विशेषताएँ
- जायसी और उसके पद्मावत का स्थान एवं महत्त्व
- कबीर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी है।
- कबीर की भक्ति भावना का परिचय दीजिए।
You May Also Like This
- पत्राचार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कार्यालयीय और वाणिज्यिक पत्राचार को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
- प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख तत्त्वों के विषय में बताइए।
- राजभाषा-सम्बन्धी विभिन्न उपबन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
- हिन्दी की संवैधानिक स्थिति पर सम्यक् प्रकाश डालिए।
- प्रयोजन मूलक हिन्दी का आशय स्पष्ट कीजिए।
- प्रयोजनमूलक हिन्दी के विविध रूप- सर्जनात्मक भाषा, संचार-भाषा, माध्यम भाषा, मातृभाषा, राजभाषा
- प्रयोजनमूलक हिन्दी के विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए। इसका भाषा-विज्ञान में क्या महत्त्व है?